!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( चत्वारिंशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
तीन दिन हो गये हैं ….शचिदेवि और विष्णुप्रिया की तो बात छोड़ ही दो …नवद्वीप में किसी ने अन्न का दाना तक नही खाया है । इन दिनों नवद्वीप के लोग शचिदेवि के घर में ही हैं ….शचिदेवि को समझाते हैं ….पर समझाते हुए ये लोग भी रो देते हैं ….शचिदेवि के आस पास नवद्वीप की बूढ़ी बड़ी माताएँ हैं ….वो बारम्बार – “अपने को सम्भालो शचि देवि”….ये कहती रहती हैं । पर शचि देवि के अश्रु रुके नही हैं इन तीन दिनों में भी ।
अब विष्णुप्रिया की दशा का वर्णन क्या किया जाये ….उनके पास लोग जाते हैं समझाने के लिए पर उनकी स्थिति देखकर रोते हुए लौट आते हैं ।
तीन दिन से अन्न की कौन कहे ….इस वियोगिनी ने जल का एक बूँद अपने मुँह में नही रखा है ।
ओह ! धरती पर पड़ी हैं…..मलिन वस्त्र हैं ….केश बिखरे हुये हैं ….प्रिया के रोने की आवाज से मनुष्य की कौन कहे …पशु पक्षी भी करुण हो उठे हैं । किसी की हिम्मत नही है प्रिया तक जाने की …..हिम्मत तो कान्चना की है जो तीन दिन से अपनी सखी के साथ है …वो भी साथ दे रही है रोने में …हाँ …कई बार इसने जल देने की कोशिश की ….पर ….”नाथ ! प्यासे हैं”। ये कहकर फिर हिलकियाँ बंध गयीं । कान्चना प्रिया की स्थिति देखकर जिद्द भी नही कर सकती ।
हाँ …एक वृद्ध पण्डित जी ….जो नवद्वीप में सबसे वृद्ध थे ….सब इनका आदर करते थे …”श्री वास” इनका नाम था …ये गये भीतर, विष्णुप्रिया को समझाने के उद्देश्य से गये थे …पर वहाँ विष्णुप्रिया की स्थिति जब देखी ….उनका वो क्रन्दन जब इनके कानों से होकर हृदय को बेधने लगा ….विष्णुप्रिया के रोम रोम से “ हा गौरांग ! हा गौर ! “ यही निकल रहा था ।
समझाने के शब्द मुँह से क्या निकलते पण्डित जी के …और ऐसे वियोग की सिद्ध साधिका को ये समझाते भी क्या ? स्वयं स्थिति देखकर रोते हुए बाहर आगये । दो तीन महिलाओं ने भी भीतर जाने की चेष्टा की …पर जाकर देखने के बाद उनसे रुका नही जाता था …विष्णुप्रिया की स्थिति ऐसी थी जैसे कोई जल बिन मछली तड़फ रही हो । उसे क्या समझाया जाये …क्या कहा जाये …कि पानी को भूल जाओ …अरे पानी इसके प्राण हैं ….ऐसे ही ये है ..निमाई इसके प्राण हैं ..बिना प्राण के अभी तक ये जीवित है आश्चर्य यही है । ये बात श्रीवासपण्डित जी ने कही थी ।
इस तरह से विरह सागर में विष्णुप्रिया डूबी हैं…….
मैं मर जाऊँ ? वो एकाएक हंसते हुये अपनी सखी कान्चना से पूछती है ….फिर नेत्रों से अश्रुधार बह चलते हैं …सखी ! मैं मर भी नही सकती …क्यों की ये अधिकार भी मुझे नही मिला है मेरे नाथ से ….ये प्राण मेरे कहाँ …ये उन्हीं के हैं । कान्चना भगवान के सामने अपना सिर पटकती है कि इतना दुःख इस बेचारी के भाग्य में क्यों लिखा ? ये न जी सकती है न मर ….ओह !
तीन दिन पूरे हो गये हैं ….आज चौथा दिन है ….अब तो सबको प्रतीक्षा है नित्यानंद आयें या चन्द्रशेखर आचार्य आयें …और उनके द्वारा “आगमन” की शुभ सूचना मिले ।
तभी ….नित्यानंद तो नही …किन्तु चन्द्रशेखर आचार्य आगये ….उनको देखते ही शचिदेवि द्वार पर दौड़ीं….सब लोग द्वार पर दौड़े ….और पूछने लगे ….निमाई कहाँ हैं ? पर चन्द्रशेखर आचार्य अश्रु बहाते रहे …उनके मुख से एक शब्द न निकला । घर के भीतर आये ….शचि देवि में अब कोई शक्ति नही रही ….उनको महिलायें सम्भाल रही हैं ….जल आदि चन्द्रशेखर जी को पिलाया गया ।
प्रिया ! चन्द्रशेखर मौसा जी आये हैं …..वो कुछ तो सन्देश लाये होंगे …..
जैसे ही प्रिया ने सुना उसमें अपूर्व शक्ति का संचार हुआ , वो उठी …और कक्ष के द्वार पर आकर खड़ी हो गयी ..कुछ नही बोल रही …बस सुन रही है …सुनना चाहती है …कि उसके प्राणबल्लभ आ रहे हैं ।
कहाँ है मेरा निमाई ! हे आचार्य ! कुछ तो कहो ….मेरा निमाई कैसा है ? वो क्यों गया यहाँ से ! कुछ कहो । शचि माँ बारम्बार पूछ रही हैं । सब लोगों की दृष्टि टिकी है अब चन्द्रशेखर जी पर ।
सिसकियाँ भरने लगे थे ….क्या कहूँ शचि देवि ! मुझ से कुछ कहा नही जा रहा …..बस इतना सुन लो ….”निमाई ने सन्यास ले लिया” । ओह ! वज्र की तरह छाती में लगे विष्णुप्रिया के ये शब्द …..वो गिर पड़ी …कान्चना ने उसे सम्भाला । शचि देवि – हाय निष्ठुर तुझे ये बूढ़ी माँ याद नही आई ….तुझे तेरी नव वधू याद नही आई ….तू भी अपने भाई की तरह निष्ठुर निकला रे , चीख रही हैं शचि देवि ….चिल्ला रही है ।
पर विष्णुप्रिया क्या करे ! उसका तो सर्वस्व लुट गया ……..
किस कठोर हृदय के प्राणी ने मेरे पुत्र को सन्यास दिया ? मेरे निमाई के घुंघराले केशों को किस नाई ने काटा ? गैरिक वस्त्र देते हुये लाज नही आई ? शचि देवि आक्रामक हो गयी हैं ….पर विष्णुप्रिया …..अब – हा गौरांग , हा गौर ! हा गौर हरि …..नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं ….हृदय में गौरांग की छवि है ….वो परम वियोगिनी बन उठीं ….यही इनकी साधना है …अब इनको ऐसे ही रहना है । विरह में ही जीवन बताना है । ओह !
कहाँ जायें ? हाँ , वृन्दावन चलूँ …..निमाई वृन्दावन के लिए चल देते हैं ….अब कौन रोकने वाला है ……कौन रोकेगा ? सन्यास ले लिया है ….समस्त सांसारिक सम्बन्धों की होली जला दी है …तभी तो अग्नि के रंग का वस्त्र भी धारण किया है …..अब कोई रोक टोक नही है …..चलो वृन्दावन ….वृन्दावन ! हा कृष्ण …हा गोविन्द ..हा माधव …..इनका नाम अब निमाई नही है …”श्रीकृष्ण चैतन्य भारती” । ये उन्मत्त हैं ….ये भाव में डूबे हैं । ये जा रहे हैं वृन्दावन के लिए ….दौड़ रहे हैं ….मार्ग में कोई कदम्ब वृक्ष मिलता है तो उसमें चढ़ जाते हैं और बाँसुरी बजाने का स्वाँग करते हैं ….और इसी स्वाँग में वो घण्टों समाधिस्थ हो जाते हैं । फिर जब उन्हें देह भान होता है तब फिर वृन्दावन की ओर दौड़ पड़ते हैं ……..
मेरी बात मानोगे ?
विष्णुप्रिया आज अपने कक्ष से बाहर आई है …उसको सम्भालती हुई उसकी सखी साथ में है ।
सब चकित थे ….ये कभी समाज के सामने इस तरह बोली नही थी …मर्यादा के कारण । पर अब काहे की मर्यादा …जब बड़े ही मर्यादा को तोड़ने लगें तो छोटों से क्यों अपेक्षा रखी जाये …ये विष्णुप्रिया ने ही कहा था । उनके नेत्रों से अश्रु अभी भी बह रहे थे ….उसके वस्त्र आँसुओं से भींग गये थे ….पर अब वो बोल रही थी ।
बोलो प्रिया ! बोलो ! शचि देवि ने भर्राये स्वर में कहा ।
विष्णुप्रिया ने कहा ….वो आयेंगे …मैं कह रही हूँ उन्हें आना ही पड़ेगा ….बस मेरी बात मानों ….उन्हें पुकारो ….पुकारने पर उन्हें आना ही पड़ेगा ….हमारी पुकार उन्हें हमारी ओर खींचेगी ….उनके चरण रुक जायेंगे ….मैं कह रही हूँ …..हे नवद्वीप वासियों ! ये रहस्य उन्हीं ने मुझे एक बार बताया था …भगवान का नाम पुकारने से भगवान आते हैं ….हमारी हृदय की पुकार उन्हें खींचती है ….पर पुकार हृदय से उठे …….हम जिस तरह रो रहे हैं विलाप कर रहे हैं …इसका उपयोग हम क्यों न करें …ये रुदन , ये विलाप बहुत ऊँची वस्तु है ……….
ओह ! ये क्या हो रहा है ….विष्णुप्रिया के मुखमण्डल में दिव्य तेज छा गया ….वृद्ध, बालक, विद्वान मूर्ख सब चकित भाव से विष्णुप्रिया के एक एक शब्द को सुन रहे हैं ….और इनके शब्द सबके हृदय में सीधे जा रहे हैं ।
करुण नेत्रों से सबको देखती है विष्णुप्रिया …..फिर कहती है – एक दिन समय जानकर मुझे मेरे स्वामी ने कहा था – “नामी” को अगर बांधना है तो उसके “नाम” को पकड़ लो…..इसलिये मैं कृष्ण को नही कृष्ण के नाम को पकड़ कर चलता हूँ …यही शिक्षा मैं सबको दे रहा हूँ ….और इसी शिक्षा का प्रसार मुझे करना है ….इस बात को तुम भी समझ लो ।
विष्णुप्रिया गदगद भाव से कहती है ….मैंने समझ लिया नाथ ! मैंने समझ लिया ।
अब आप देखो ….आपने कृष्ण को नही कृष्ण नाम को पकड़ कर उन्हें अपने वश में किया है ….अब हम भी आपको नही ..आपके नाम को पकड़ेंगे …और आपको यहाँ आना पड़ेगा ….
फिर बड़े प्रेम से विष्णुप्रिया अपनी सखी कान्चना को देखती है …..सखी ! मेरे स्वामी का नाम लो ….माँ ! अपने पुत्र का नाम लो …आप सब मेरे साथ बोलो …गौर हरि …विष्णुप्रिया चिल्लाती है ….गौर हरि …..बोलो ….सब लोग अश्रु बहाते हुए कहते हैं – गौर हरि ….कान्चना कहती है – गौर हरि ….शचि माँ कहती हैं ….गौर हरि …..गौर हरि …श्रीवास पण्डित जी मृदंग ले आते हैं …कुछ भक्त झाँझ ले आते हैं …..गौर हरि , गौर हरि , गौर हरि ….सब रो रहे हैं और पुकार रहे हैं । अद्भुत दृष्य प्रकट हो गया है …….सब “गौर हरि” में खो गये हैं ।
ये क्या , गौरांग के पद रुक गये ! वो आगे बढ़ नही पाये ….वो पद बढ़ाना चाहते हैं पर बढ़ नही रहे …..गौरांग को समझ नही आरहा कि ये हुआ क्या ! गौरांग की ये स्थिति हो गयी मानों किसी ने सिंह को पाश में बाँध दिया हो । नही चला जा रहा गौरांग से अब आगे । नित्यानंद साथ में हैं …वो समझा समझा कर हार गये …पर गौरांग नही माने ।
अब बढ़िये आगे ! नित्यानंद ने गम्भीरता के साथ कहा ।
गौरांग के नेत्रों के आगे नवद्वीप का भावुक दृष्य घूम गया ……सब पुकार रहे हैं ….सब रो रोकर गौरहरि , गौरहरि पुकार रहे हैं । नेत्रों से गौरांग के भी अश्रु बहने लगे ……नित्यानंद ने कहा …हे गौरांग ! वो आपकी धर्मपत्नी विष्णुप्रिया …..आगे नित्यानंद कुछ कहने जा रहे थे किन्तु गम्भीर बन गए एकाएक गौरांग ….नेत्रों के अश्रु उनके सूख गये ….आगे कुछ भी कहने से नित्यानंद को गौरांग ने मना कर दिया था ।
शेष कल –
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