उद्धव गोपी संवाद
(भ्रमर गीत)
६१ एवं ६२
उमग्यौ जो तहं सलिल,सिंधु सौ तन की धारन।
भींजे अंबुज नीर, कंचुकी, भूषण,हारन।।
ताही प्रेम प्रवाह में,ऊधौ चल्यौ बहाई।
भली ग्यान की मैंड़ि सी,ब्रज में प्रगटयौ आई।।
-कूल को तृन भयौ
भावार्थ:-
गोपियां कृष्ण को याद करते करते रोने लगीं इतना कि उनके नैंनन से अश्रुओं की धारा नदी रूप में बहने लगी। उनके नीर से अंबुज,उनके वस्त्र,भूषण और हार भी उस अंबुज रूपी नदी में बहने लगे। उसी प्रेम के प्रवाह में ऊधौ जी भी बह चले और उनके ज्ञान की मेंड भी बह गई।
प्रेम विवस्था देखि,सुद्धि अति भक्ति प्रकासी।
दुविधा ग्यानं गिलांन, मंदता सिगरी नासी।।
कहति अहो निसचै यहैं,हरि रस की निज पात्र।
हों तो कृत कृत ह्वै गयौ,इन्ह के दरसन मात्र।।
– मेंटि मल ग्यांन कौ
भावार्थ:-
गोपियों के शुद्ध प्रेम को देखकर ऊधौ जी की सब दुविधा, ज्ञान,की गिलानी मंदता सब मिट गई और अपने मुख से कहने लगे कि निश्चय ही गोपियां हरि के प्रेम रस पात्र हैं। मैं तो इन के दरसन मात्र से ही कृत कृत हो गया हूं। मेरे मन में जो ज्ञान का मैल, ज्ञान का जो घमंड भरा हुआ था वह आज मिट गया,मन से निकल गया।
शेष कल 🌹🙏🌹🙏🙏
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