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November 21, 2024 1:12 pm

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!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-( रस विभोर युगल – “वन की कुंज निकुंजनि डोलनि” ) : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-( रस विभोर युगल – “वन की कुंज निकुंजनि डोलनि” ) : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!

( रस विभोर युगल – “वन की कुंज निकुंजनि डोलनि” )

गतांक से आगे –

रस ही तो जीवन का सार है …और जो इस सार को जान लेता है ….वही रसिक है ।

हे सखी ! मुझे मिला दो मेरी प्यारी से !

ये प्रार्थना करते हैं श्याम सुन्दर । और किससे कर रहे हैं ? एक सखी से । कौन हैं श्याम सुन्दर ? अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनायक जगदनियन्ता परात्पर ब्रह्म हैं ये श्याम सुन्दर । ये स्वयं रस हैं …फिर भी रस पान करने कराने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं ।

ये रस की एक रीत है …आप को रस चाहिये , आपको पीना है …तो आप ‘अहं’ में रस का पान नही कर सकते ..भले ही आप स्वयं “रस”हैं …पीने के लिए तो आपको “ओप” लगाना ही पड़ेगा …थोड़ा झुकना ही पड़ेगा । ये नियम ही है ।

अजी ! ब्रह्म दिन रात मनुहार करता है …परात्पर ब्रह्म चरण चाँपता रहता है लाड़ली के तब जाकर उसे रस की प्राप्ति होती है ..आपको अहंकार में भरे भरे ही रस मिल जायेगा ? ना , झुको , अपने भीतर नम्रता-विनम्रता लाओ । कल पागलबाबा बोल रहे थे …बेसर वालों का प्रवेश है निकुंज में …कई लोग समझे नही ..बाबा ने एकान्त में मुझे कहा ..’सर’ इस खोपड़ी को कहते हैं ..यही खोपड़ी सब झंझट पैदा करती है ..यही अहंकार है ..निकुंज में अहंकार का प्रवेश नही है ।


उन्मद प्रेम विलास में सारी रात बीत गयी थी युगल सरकार की …..प्रभात वेला में उठे और शैया से उतर कर वन विहार करने के लिए चल दिये । ये नियम है कि जब तक युगल न जागें तक तक निकुंज में कमल भी नही खिलते …..हाँ , दो दिन पहले की ही तो बात थी ….कि ललिता सखी कमल पुष्पों को डाँट कर कह रही थी ….अभी मत खिलो , रसिक दम्पति जागे नही हैं …उन्हें
जग जाने दो ….उनके सामने खिलना तब उन्हें भी प्रसन्नता होगी ।

किन्तु आज तो ये जाग गये थे ….सखियां सेवा कार्य में मग्न थीं …उन्हें लग रहा था नित्य की तरह आज भी विलम्ब में ही जागेंगे ….पर नही । ये तो उठ कर वन विहार करने लगे थे । हवा शीतल थी ….कमल खिल गए थे …श्रीवन ने जल्दी जल्दी अपना वैभव प्रस्तुत कर दिया था ।

पागलबाबा राधा बाग में आज प्रेम के उन्माद से ग्रस्त लग रहे हैं …वो आज खड़े ही खड़े हैं ..एक लता है ..उसके आधार पर खड़े हैं ..और बोल रहे हैं ..बीच बीच में लता को सहलाते भी जा रहे हैं ।

वो देहातीत हैं …उनके गले में एक वेला की प्रसादी माला झूल रही है …प्रसादी गुलाब के इत्र से उनका अंग महक रहा है …उनकी आँखों से प्रेम रस टपक रहा है ।

वो एकाएक गौरांगी की ओर देखते हैं और कहते हैं ….चलो आज का पद गाओ ….गौरांगी कुछ नही कहती …क्यों की अभी समय नही हुआ …क़रीब एक घण्टे पूर्व ही बाबा गायन के लिए कह रहे हैं । पर बाबा आज अपने में ही नहीं हैं …..वो किसी की प्रतीक्षा आज करेंगे भी नही …इसलिये बाबा फिर कहते हैं ….गायन के लिये ….इस बार आदेश था बाबा का ।

बाबा को बैठने के लिए कहती है गौरांगी …..और आसन बिछा देता है शाश्वत …पर बाबा आज बैठना भी नही चाहते …..वो कहते हैं आज के पद में मेरे युगल सरकार कुंज और निकुंजों में डोल रहे हैं ….चलो , हम भी लताओं की प्रदक्षिणा करते हुए पद गायेंगे । अद्भुत था ये तो ।

हाँ , ये सब भीड़ में सम्भव भी न होगा …….गौरांगी समझ गयी ….वो तुरन्त मंजीरा लेकर आयी …और बाबा आगे चले दस रसिक लोग और आगये थे ….चौंतीसवाँ पद था आज का ।
पद भी ऐसा ही था ….जिसमें युगल सरकार कुँज निकुंज में डोल रहे हैं …..आहा !

एक एक लता को पकड़ रहे हैं बाबा ….भाव में डूब रहे हैं ….आगे आगे मोर चल रहे हैं …..दिव्य दृष्य प्रकट था ये ……गौरांगी और हम सब पीछे गाते हुये चल रहे हैं …..आप भी गाइये ।


                       वन की कुंज  निकुंजन डोलनि ।
       निकसत निपट सांकरी वीथिनु ,   परसत नाहिं निचोलनि ।।

       प्रातकाल रजनी सब जागे ,   सूचक सुख दृग लोलनि ।
      आलसवंत अरुन अति व्याकुल , कछु उपजत गति गोलनि ।।

     निर्तनि भृकुटि वदन अम्बुज मृदु , सरस हास मधु बोलनि ।
     अति आसक्त लाल अलि लंपट , बस कीने बिनु मोलनि ।।

     विलुलित शिथिल श्याम छूटी लट , राजत रुचिर कपोलनि ।
      रति विपरित चुंबन परिरम्भन , चिबुक चारु टकटोलनि ।।

       कबहुँ श्रमित किशलय शैया पर , मुख अंचल झकझोलनि ।
       दिन हरिवंश दासि हिय सींचत , वारिधि केलि कलोलनि । 34 ।

वन की कुंज निकुंजनि डोलनि………..

पागलबाबा लताओं को गले से लगा रहे हैं….वो लताओं के मध्य मध्य से निकलते हुए चल रहे हैं….पद का गायन हो रहा है ….ये क़रीब एक घण्टे तक चला । अद्भुत रस वर्षण था ये ।

अब लोग आरहे थे …पद का गायन हो गया ये देखकर दुखी भी हुये …..आज लता वृक्षों की परिक्रमा करते हुये पदों का गायन हुआ था ओह !

अब बाबा बैठ गये हैं…..दो रसिक जन खड़े होकर पंखा करने लगे बाबा को ….कुछ देर सब शान्त रहे …..फिर बाबा ने ध्यान कराया । इसी का पद – ध्यान । आप लोग भी करिये ।


                                      !! ध्यान !! 

प्रभात की सुन्दर मनोरम वेला है ….लताओं में पुष्प खिल गए हैं …..मोर चारों ओर पंख फैलाकर खड़े हैं ….कोई कोई तो सामने आगये हैं ….पक्षियों का कलरव गूंज रहा था । तोता कोयल बोल रहें हैं….मध्य मध्य में छोटे छोटे जल के बावड़ी बने हैं जिनका आकार चौकोर है …जिनमें मणियों की अद्भुत पच्चिकारी है ….उनमें कमल हैं…..जो खिले नही थे पर पर युगल की दृष्टि पड़ते ही खिल रहे हैं …और कमल के खिलते ही उनमें भ्रमरों का दल टूट पड़ा है ….हवा के कारण कमल का पराग उड़ रहा है …सुगन्ध फैल रही है …पूरे श्रीवन में ।

सखियाँ देख रही हैं …और देह सुध भूल रही हैं ….युगलवर चलते चलते रुक जाते हैं …वो श्रीवन की शोभा के साथ साथ जब अपनी प्रिया की ओर देखते हैं तो श्रीवन को देखना छोड़कर अपनी प्रिया को ही देखने लगते हैं ….उन्हें अपनी प्रिया नवीन नूतन लग रही हैं । वो मुग्ध से देख रहे हैं …उन्हें और कुछ भान नही हैं ..वो बेसुध हो रहे हैं …तभी प्रिया अपने प्रीतम को सम्भालती हैं और आगे वन विहार करने के लिए कहती हैं …वो संकेत में कहती हैं …देखो ना प्यारे ! प्रभात के समय ये वन कितना सुन्दर लग रहा है …अपनी प्यारी की बात मानकर वो आगे के लिए चल देते हैं …आगे का मार्ग अत्यन्त संकीर्ण है …दोनों ओर लताएँ हैं ..मध्य में मार्ग है …लताएँ पुष्पों के भार से मार्ग की ओर ही झुकी हुयी हैं …ऐसे मार्ग से अब युगल चल रहे हैं ..इनका वर्णन कर रही हैं हित सखी ….हित सखी के मुख से अन्य सखियाँ वर्णन सुन रही हैं …और नयनों से देख भी रही हैं….


हित सखी कहती है …..देखो ! वन की कुँज निकुंजों में युगल सरकार कैसे भ्रमण कर रहे हैं ।

अपने कपोल में हाथ रख कर हित सखी बैठ जाती है …वो निहार रही है …युगल सँकरी गली से होकर जा रहे हैं ….अरे ! प्रिया जू की चूनरी गिर रही है …कहीं लताओं में उलझ न जाये ….हित सखी कहती है …नही उलझेगी …और सच में लताओं ने चुनरी को छूआ भी नही ….ये सब लताएँ जड़ थोड़े ही हैं …निकुंज की लताएँ हैं …सब चिद् हैं …बस युगल को सुख देना यही उद्देश्य है इनका । हित सखी कहती है । तभी लताएँ युगल के ऊपर फूल बरसाने लगती हैं …अनगिनत फूल ..अनन्त फूल ….बस युगल चलते जा रहे हैं और उनके ऊपर फूल बरसते जा रहे हैं । ये झाँकी दिव्य थी …अनुपम थी …अब तो वो गैल वैसे ही सँकरी उस पर फूल और बरस पड़े । फूलों से पट गयी वो गैल ।

ये देखकर आनंद विभोर हित सखी बैठ ही गयी ….अति आनन्द के कारण उसके नेत्र बंद हो गये ……मानों वो ध्यानस्थ हो गयी । हित सखी अब रात्रि के सुरत केलि की लीला में चली गयी ….उसके नेत्र बन्द हैं …वो मन्द मन्द मुस्कुरा रही है ….हित सखी की ही ये दशा नही ..अन्य सखियों की भी यही दशा हो गयी थी …….

आहा ! मुस्कुराकर , अपने भौंहों को मटका कर , अरुन अधर को कम्पित कर इन रस लोभी श्याम को प्रिया ने अपने वश कर ही लिया …और बिना मोल किया । ये तो बिकने के लिए तैयार ही रहते हैं …क्यों की रसिक हैं ना , रस लोलुप भ्रमर सच में यही तो हैं ।

बस फिर क्या था प्रिया मुख कमल पर ये श्याम भ्रमर मँडराने लगे …वो मना कर रही हैं …पर अब ये कहाँ मानने वाले थे ….वो कहती हैं …नहीं नहीं …पर ये तो बार बार प्रिया के कपोल को चूम रहे हैं …ये अधर रस पी रहे हैं ….जब लम्बी लम्बी साँस भरने लगती हैं प्रिया तब ये अपनी पीताम्बर से हवा करते हैं ….और उस समय प्रिया के मुख चन्द्र को निहारते हैं बस । हित सखी ध्यान कर रही हैं …तभी आकाश में बिजली चमकी …..श्याम मेघ छा गए …बिजली की गर्जना से ध्यान टूटा हित सखी का और अन्य सब का भी….. सामने देखा तो युगल की एक झाँकी दिव्य प्रकट हो गयी थी ….प्रिया डरकर श्याम सुन्दर के हृदय लग गयी थीं । आहा ! हित सखी कहती है …अच्छा ! तो अब वर्षा में भीजनें की इच्छा है युगल की ! सखियाँ आनंदित हो उठीं थीं ।

तोता , कोयल पपीहा आदि सब “जय हो जय” करने लगे थे ।

मोर तो उन्मत्त होकर बस नाच ही उठे थे …….
अनगिनत मोर एक साथ पंख फैलाए नाचते हुये का दृष्य – बहुत ही मोहक लग रहा था ।


रसो वै सः रसराज , रसिक वर राधा माधव हृदय रमन ।
रस सागर , रसमय रस रसिया , रस भूषण रस केलि सदन ।।
रसिक शिरोमणि रसिक बिहारी , रासेश्वर रस सिन्धु भरन ।
सतत विपुल रस पियें पिलाएँ , रस ही रस में रहे मगन ।।

पागल बाबा मत्तोन्मत्त हैं आज ।

गौरांगी ने अब गायन किया ….इस बार के गायन में वीणा वादन हुआ था सारंगी और बाँसुरी खुल गयी थी …सब रसिकों ने आनन्द लिया अंतिम में …

“वन की कुंज निकुंजनि डोलनि”

जय जय श्रीराधे …..सब लोग बोले …जय जय श्रीराधे ….जय जय श्रीराधे …श्याम ।

आगे की चर्चा अब कल –

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