!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( सखी प्रेम की हवा है – “चलि सुंदरी बोली वृन्दावन” )
गतांक से आगे –
सखी प्रेम लीला की प्रेरक हैं ….सखी मध्य में ….सखी दोनों की संधिनी है ।
क्या कहूँ ! श्याम सुन्दर मेघ हैं तो उस मेघ में चमकने वाली बिजली श्रीराधा रानी हैं …पर इन दोनों की प्रेम लीला तभी हो सकती है …जब पवन की उपस्थित हो ….हवा आकाश में मेघ को उपस्थित करे …..तब बिजली और मेघ का मिलन आकाश में सम्भव हो पाता है ।
सखी की भूमिका मुख्य है ….और सखी ही श्रीवृन्दावन में सब कुछ है । मैंने कहा ना , सखी प्रेम की शीतल हवा है …जब श्याम सुन्दर बेसुध हो जाते हैं तब ये हवा चलती है …और बेसुध श्याम को सुध में ले आती है……फिर मिलने मिलाने का उपक्रम शुरू हो जाता है ।
सखी दोनों की ही अपनी है …श्याम सुन्दर भी सखी को अपना मानते हैं और प्रिया जी भी सखी को अपना मानती हैं …और सखी दोनों को अपना मानती है …इसका सम्पूर्ण प्रयास यही रहता है कि …ये दोनों लीला विलास में रत रहें । प्रेम लीला की विधायिका है ये सखियाँ ।
इसलिये निकुँज लीला कभी भी सखी के बिना पूरी हो ही नही सकती । इस प्रेम मार्ग में सखी भाव ही सर्वोच्च भाव है । निकुँज लीला को समझने के लिए “सखी भाव” को समझते रहना अतिआवश्यक है । क्यों की इसी “सखी भाव” से ही ये सब लीलायें समझ में आती रहती हैं ।
सखियों को आनन्द मिलता है जब युगल सरकार लीला में प्रवृत्त हों ।
ये दोनों मिलें । ये दोनों खेलें ।
सखी भाव पर राधा बाग में आज फिर पागलबाबा बोले । उनसे प्रश्न किया था किसी रसिक ने तो वो उसका उत्तर दे रहे थे।
ये प्रेम है परात्पर प्रेम है , नित्य तत्व है । इसलिए प्रेम के जितने स्वरूप हैं वो सब भी नित्य हैं …जैसे युगल सरकार नित्य हैं तो उनकी ये सखियाँ भी नित्य ही हैं । जैसे युगल सरकार अनादि अनन्त हैं तो ये सखियाँ भी अनादि-अनन्त ही हैं । सब नित्य हैं यहाँ ….यहाँ का आनन्द भी नित्य है …यहाँ का प्रेम उत्सव-उत्साह सब कुछ नित्य है ।
इन दोनों में नित्य रस केलि कराने वाली ये सखियाँ ही हैं ….और एक बात और समझना …केलि में उपयोगी जो उपकरण आदि हैं वो सब भी जड़ नही हैं अपितु सखियाँ ही बन जाती हैं । जैसे – प्रिया जी की नथ , प्रिया जी का हार , नथ बेसर , मुदरी , पायल , करधनी ….आदि आदि सब सखियाँ हैं ….पूर्व में बहुत बार कहा जा चुका है कि – जड़ तत्व का प्रवेश ही नही है निकुँज में ..यहाँ सब चैतन्य हैं , सब चिद् घन है , सब सच्चिदानन्द है । ये निकुँज है ।
अब बाबा गौरांगी से पद गायन के लिए कहते हैं ….आज श्रीहित चौरासी का चौंवालिसवाँ 44, पद है । गौरांगी मधुर स्वर में गायन करती है इस पद का । सब रसिक जन झूम उठते हैं ।
चलि सुंदरि बोली वृन्दावन ।
कामिनी कण्ठ लागि किन राजहि , तू दामिनी मोहन नौतन घन ।।
कंचुकि सुरँग विविधि रँग सारी , नख जुग ऊन बने तेरे तन ।
ये सब उचित नवल मोहन कौं, श्रीफल कुच जोवन आगम धन ।।
अतिशय प्रीति हुती अंतरगत , श्रीहित हरिवंश चली मुकुलित मन ।
निविड निकुँज मिले रस सागर , जीते सत रतिराज सुरत रन ।।
चलि सुंदरि बोली वृन्दावन …………
बाबा कहते हैं – अब ध्यान में चलो , ध्यान में निकुँज की यात्रा करो …पर अहंकार रूपी पुरुषभाव का चोला उतार कर …सखी भाव से भावित होकर । चलो , निकुँज ।
!! ध्यान !!
ये हित सखी दोनों को मिलाने चली है ….श्याम सुन्दर अधीर हैं ….श्यामा उनके निकट से उठकर दूर जा कमल पुष्पों को निहार रही हैं …उन मतवारे भँवरों को देखकर श्याम सुन्दर को याद कर रही है …और यादों में इतनी डूब गयी हैं की सब भूल गयी हैं । श्याम सुन्दर ने सखी को भेजा है …कि जा , और मेरी प्यारी को मना दे । आज्ञा नही , ना , विनती की है सखी से …कि मेरी प्यारी रूठ गयी हैं …उनको प्रसन्न कर दो ..और मुझ से मिला दो ।
हित सखी श्याम सुन्दर के पास से चल दी है ….श्याम सुन्दर देख रहे हैं …हित सखी जा रही है ….एक एक पल श्याम सुन्दर को युगों के समान लग रहे हैं ।
सखी पहुँच गयी ….वो श्यामा जू को देखती है …कमल अनगिनत खिले हैं ….उनके पराग को पीने के लिए भँवरें टूट पड़े हैं …और कई भँवर तो अपने आपको पराग में मिटा भी चुके हैं ….प्रिया जी को इनमें प्रेमलीला दीख रही है ….भँवरों में अपने प्यारे दीख रहे हैं …वो इसी में खो गयी हैं ।
हित सखी अब समझी है ….कोई रिस नही है प्रिया जी के मन में श्याम सुन्दर के प्रति ।
ये जानकर हित सखी को बहुत प्रसन्नता होती है ….वो वहीं से कहना चाहती है श्याम सुन्दर को संकेत में कि ….ये रूठी नहीं है । पर श्याम सुन्दर समझते नही हैं ….वो सखी को फिर अपने पास बुलाते हैं …पूछने के लिए कि – क्या बात है !
हित सखी वापस फिर आती है श्याम सुन्दर के पास ….वो श्याम सुन्दर को कहती है …वो आपसे रिसाई नही हैं …ये सुनते ही श्याम सुन्दर खुशी से उछल पड़ते हैं और सखी को साधुवाद देते हैं …फिर कहते हैं …अब तो प्रिया जी को ले आओ । हित सखी मुस्कुराके कहती है ….ठीक है …आप विराजिये मैं अभी लाई । हित सखी फिर चल देती है …वो प्रिया जी के पास जाती है …और जाकर विनती करती है …पर प्रिया जी का ध्यान नही है सखी की बातों में ..इसलिए हित सखी एक नील कमल पुष्प लेकर प्रिया जी की गोद में रख देती है …ताकि उनका ध्यान भंग हो ।
सफल हुयी सखी ….प्रिया जी ने हित सखी की ओर देखा ….तो वो बड़े प्रेम से बोली –
हे सुंदरी ! तुम चलो वृन्दावन । हे ! तुम जिस शोभा को निहारते निहारते सुध बुध खो गयी हो वो शोभा तो उस तरफ़ है देखो तो । हित सखी श्याम सुन्दर की ओर दिखाती है ।
पर प्रिया जी फिर गुनगुन करते भँवरों को ही देखने लग जाती हैं ।
हित सखी कहती है- जिन भँवरों को देखकर आप मुग्ध हैं ….उधर देखो आपके मधुकर तो वहाँ बैठे हैं ….उन्होंने आपको बुलाया है ….निकुँज में आज कमल सदृश आपके अंगों के पराग को पीने के लिए वो व्याकुल हैं ….चलो सुंदरी श्रीराधा ! चलो । प्रिया जी फिर भी कुछ नही बोलीं …तो सखी फिर कहती है – उनके कण्ठ से लग जाओ ना , तुम दामिनी हो वो मेघ हैं ….कितनी सुन्दर जोरी है ….मिलकर इस जोरी को सार्थक करो ना । हित सखी अब हाथ जोड़ने लगी ।
आहा ! गौर श्रीअंग में ये लाल कंचुकी , और अनेक रंगों वाली ये साड़ी आप पर कितनी फंव रही है ….सोलह शृंगार में सजी धजी आप रूप राशि की धनी लग रही हो । और इतना ही प्रेम रस से भी भरी हुयी हो ।
तो ? प्रिया जी प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछती है ।
प्रिया जी ! इन रूप गुण गण सौन्दर्य की सार्थकता इसी में है कि इन सबका आप दान करो , दान करो प्यारी ! नवल मोहन लाल को ! रसिकवर को अपनी ये माधुर्य रस सम्पदा प्रदान करो । सखी आनंदित होकर बोलती है ।
प्रिया जी के हृदय में आनन्द सिंधु उमड़ पड़ा था ….वो और और सुनना चाहती थीं अपने प्रीतम के विषय में …इसलिए अपने हृदय के प्रेम सागर को उन्होंने रोक रखा था …पर अब सम्भव नही है रोकना …इसलिए प्रिया जी ने मुड़कर देखा अपने श्याम सुन्दर को …वो उठीं ….और दौड़ पड़ीं अपने प्रिय के पास , उधर श्याम सुन्दर दौड़ पड़े अपनी प्यारी के पास ….इन दोनों को देखकर सखी आनंदित हो गयी …ये दोनों मिल गये थे …ऐसे लग रहे थे मानों श्यामघन और बिजली दोनों का मिलन हो रहा हो ….और इन दोनों को मिलाने वाली ये प्रेम की हवा थी हित सखी ।
इसी ने निकुँज का निर्माण भी कर दिया था और दोनों एकान्त में मिल रहे थे …इनके मिलन से कामदेव और रति मूर्छित हो गये थे । ये अद्भुत रति केलि थी । युगल सरकार की ।
जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
बाबा बोल उठे …..बाबा भाव में डूब गये थे । वो बारम्बार जयकारा ही लगा रहे थे ।
गौरांगी ने फिर इसी पद का गायन किया ……..
“चलि सुंदरि बोली वृन्दावन”
आगे की चर्चा अब कल –

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