!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( भाव देह – “देखि सखी राधा पिय केलि” )
गतांक से आगे –
“भाव देह” जब तक नही मिलता तब तक निकुंज की अनुभूति सम्भव नही है ।
सखी – एक भाव देह है ना कि इस पंचभौतिक देह को साड़ी आदि पहनाना ।
“भाव देह” प्राप्त करना अति आवश्यक है ।
कैसे मिलेगा वो भाव देह ?
देह अनेक प्रकार के हैं …स्थूल देह , सूक्ष्म देह , कारण देह लिंग देह आदि ।
भाव देह तब साधक का बनता है जब निरन्तर अपने उपास्य के स्वरूप की भावना वह उपासक करता रहे । उससे जो भीतर एक अलग सिद्ध देह बनना आरम्भ हो जाता है
उसे ही कहते हैं “भाव देह” । ये भाव देह तक प्राप्त होता है …जब इष्ट का लीला चिन्तन सहज प्रकट होने लगे …और उपासक में आनंदांश का आविर्भाव हो जाये …यानि साधना करनी न पड़े साधक को …सहज होने लगे यानि लीला चिन्तन होने लगे …उसके लिए कोई प्रयास नही ।
किन्तु इस भाव देह तक पहुँचने के लिए क्या करें ?
प्रथम “भाव सेवा” करें ।
भाव सेवा ये है कि – सुनें अपने इष्ट के विषय में , गायें उन्हीं के लिए , सोचें उन्हीं के बारे में , छोटी छोटी क्रियाएँ भी उन्हीं के लिए हों , बाज़ार आदि भी जायें तो उसका उद्देश्य भी इष्ट ही हों ।
एक समय निर्धारित करें , और उसी समय ध्यान में बैठें …ध्यान में बैठने से पहले स्वयं को सखी भाव से भावित करें , फिर निकुँज में प्रवेश करें । निकुँज में अष्ट सखियों में एक सखी को अपनी गुरु बनावें , उनका ध्यान करें , उनसे आज्ञा लें …फिर उन सखी जू के पीछे पीछे युगल सरकार के दर्शन करें । लीला चिन्तन करें । पर इसको मात्र ध्यान तक या एक समय तक सीमित नही रखना है ….ये आपका चिन्तन चलते फिरते , बन्द आँखें या खुली आँखें हर स्थिति में होती रहे ।
इसके लिए बाहरी कुछ आचरणों की भी आवश्यकता है ….देखो ! उस दिव्य नित्य विहार में पूर्णतया रमाने के लिए और उस प्रेम को जगाने के लिए तो प्रारम्भ में प्रयत्न करना ही पड़ेगा ।
सर्वप्रथम हृदय को कोमल बनाने की साधना इसमें करनी पड़ती है …कठोर हृदय जन्मों जन्मों के पाप के चिपकने से होता है ….ये बात रसिक जन कहते हैं …इसलिये हृदय को कोमल बनाओ । कैसे ? तो रसिक जन कहते हैं ….नाम जपो , राधा , राधा राधा , राधा , इन नामों का उच्चारण करो ….और क्रोध से बचो । मुझे स्मरण है ….पाँच वर्ष पहले मैं पागल बाबा के साथ जमुना स्नान को गया था …नौका वाले से बात हुयी सौ रुपये में…..हम पल्ली पार स्नान करके नाव से वापस आगये ….अब नाव वाला बोला …डेढ़ सौ दो । मैंने कहा , बात तो हुयी थी सौ में….मैंने उसके हाथ में सौ रुपए दे दिये और चल दिया । वो नाव वाला लड़ने लगा …तो मैं भी अपनी जिद्द में था क्यों की सौ में बात ही हुई थी । बाबा ने नाव वाले को किसी से माँग कर पचास रुपए दिए और मुझ से कहा – अब चलो । मैंने कहा – बाबा ये गलत है । बाबा बोले – पचास रुपए के लिए अपने हृदय को कठोर क्यों बना रहे हो । हमारी साधना तो हृदय को कोमल बनाने की है ना ? फिर बाबा ने मुझे समझाया बात उसके गलत या तुम्हारे सही होने की नही है …बात है इससे तुम्हें कितनी हानि है , क्रोध झगड़े से हृदय कठोर होता है । सखी का हृदय तो कोमल होता है ना !
तो साधकों ! क्रोध से बचो । क्रोध से हृदय कठोर होता है ।
फिर लें युगल सरकार के लीला दर्शन का आनन्द ! भाव से । प्रियाप्रियतम को गर्मी है तो जल विहार करायें …..सावन है तो झूला झुलायें …..होली है तो होली खिलायें । दोपहर को जगायें …तो कुछ भोग लगायें …ये भाव में करें । भाव में डुबे रहें । यही चिन्तन आपका गाढ़ होता गया तो भाव देह आपको मिल ही जायेगा । क्यों की फिर तो आपका आसन भी लग जायेगा ना निकुँज में ! किस सखी के साथ हो ये भी निश्चय हो जायेगा ! सेवा मिली है ? चलो मिल जाएगी …पहले तो ये उपासना स्पष्ट हो …इसका मार्ग स्पष्ट हो , चिन्तन सतत हो ….इस स्थूल देह का भान कम होने लगे ….तब भाव देह प्राप्त होता है । और जब “भाव देह” मिलता है …फिर तो आप आनन्द में ही रहोगे । यही सिद्ध देह है ।
पागलबाबा को भाव देह प्राप्त है , भाव देह मरने के बाद मिलता है ऐसा नही है …ये जीते जी प्राप्त होता है ….और मरने के बाद निकुँज में इसी भाव देह से ही साधक वहाँ जाता है ।
इसलिये रसिक जनों की मृत्यु पर रोया नही जाता …उत्सव मनाया जाता है । रोना क्यों ! भाव देह से वो अपने निकुँज में गयी है ।
पागल बाबा से आज इसी सम्बन्ध में चर्चा हुई तो बाबा बोले – श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार जी को भाव देह प्राप्त था । पोद्दार जी का ये स्थूल देह जब गोरखपुर में शान्त हुआ उसी समय गिरिराज जी में पण्डित गयाप्रसाद जी ने आकाश में हाथ जोड़कर प्रणाम किया था ….उनके पास बृज के सन्त थे उन्होंने पूछा …आपने किसे प्रणाम किया है ? तब पण्डित जी ने उत्तर दिया था …पोद्दार जी सखी रूप से निकुँज में जा रहे थे । और उसी समय जब पता किया गया तो समाचार मिला कि अभी अभी ही पोद्दार जी का देह शान्त हुआ है । क्या कहोगे ? बाबा कहते हैं ।
भाव देह को कोई दूसरा भी देख सकता है ?
पागलबाबा ने इसका उत्तर दिया …हाँ , क्यों नहीं । पर सामने वाले की भी वैसी ही स्थिति होनी चाहिए ।
कैसी स्थिति ?
बाबा बोले – उसको भी भाव देह प्राप्त हुआ होना चाहिए …तभी तो वो दूसरे देह को पहचानेगा ।
इसके बाद समय हो गया था इसलिए इस चर्चा को यही रोक देना पड़ा …….बाबा ने गौरांगी को आज्ञा दी …कि अब पद का गायन करो । रसिक समाज आगया था ।
वीणा लेकर श्रीहित चौरासी जी का उनचासवाँ पद गौरांगी ने मधुर कण्ठ से गायन किया ।
देखि सखी राधा पिय केलि ।
ये दोउ खोरि खिरक गिरि गहवर , बिहरत कुँवर कंठ भुज मेलि ।।
ये दोउ नवल किशोर रूप निधि , विटप तमाल कनक मनौं बेलि ।
अधर अदन चुंबन परिरंभन , तन पुलकित आनन्द रस झेलि।।
पट बंधन कंचुकि कुच परसत , कोप कपट निरखत कर पेलि ।
श्रीहित हरिवंश लाल रस लंपट , धाइ धरत उर बीच सकेली । 49 ।
देखि सखी राधा पिय केलि …………
अद्भुत पद था और गायन भी गौरांगी का अद्भुत । पागल बाबा अब ध्यान करायेंगे ।
!! ध्यान !!
सन्ध्या की वेला है …..युगल सरकार फल मिष्ठान्न आदि लेकर वन विहार के लिए निकल गए हैं ….इस समय श्रीवन की शोभा दिव्य हो रही है ….शीतल सुरभित पवन चल रहे हैं ….मोरों का झुंड मानौं स्वागत के लिए सामने ही खड़ा है …पक्षी आदि कलरव करने लगे हैं । हंसों का जोड़ा सरोवर में खेल रहा था …हिरण के बालक आनन्द से उछल उछल कर श्रीवन की शोभा और बढ़ा रहे थे …..युगल सरकार चले जा रहे हैं ….सामने एक गिरी पर्वत दिखाई दे रहा है ….हरियाली से भरा हुआ है वो पर्वत है ….सघन वन है ….पर्वत में से झरने भी बह रहे हैं …मोर पक्षी आदि उस पर्वत पर बहुत संख्या में हैं …वो देख रहे हैं युगल सरकार को और सब कुछ भूल गए हैं , दो पर्वत के मध्य में मार्ग है …तलहटी । सांकरी है वो यानि बहुत छोटी है । “खोर” कहते हैं उस मार्ग को जो दो पर्वत के मध्य से होकर निकलती है । उसी सांकरी खोर से होकर श्रीजी जा रही हैं ….उनके साथ श्याम सुन्दर हैं ….वो खोर बहुत छोटी है ….दोनों एक साथ नही जा सकते ..इसलिए पहले श्याम सुन्दर चलते हैं ….कुछ कंटक मिलें तो उन्हें हटाने के लिए ये सावधान हैं …अपनी श्रीराधा के पाँव में कंटक न गढ़ें । पर नही , श्रीवन की अवनी ने अपने को कोमल बना लिया है ….कंटक फूल बन चुके हैं ……फिर भी श्याम सुन्दर सावधान हैं ….जब श्याम सुन्दर ने देखा कि अवनी स्वयं कोमल है …और फिर ये खोर भी एकान्त है ….हम दोनों मात्र ही हैं ….फिर दोनों ओर पर्वत होने के कारण थोड़ा अंधकार सा भी हो रहा है ….तो अवसर देखकर …..मन में रस का उद्दीपन होने लगा श्याम सुन्दर को …..और –
हित सखी पर्वत में है ….वो अपनी सखियों के साथ चढ़ गयी है और वहाँ से इन रसिक रसिकनी की लीला देख रही है …और अपनी प्रिय सखियों को बता भी रही है ……
आहा ! अरी सखी ! देख , देख …प्रिया प्रियतम की इस सुन्दर क्रीड़ा का आज दर्शन तो कर ।
हित सखी की बात पर सब सखियाँ तलहटी में देखने लगीं थीं …..उन सखियों के साथ पक्षी मोर शुक कोकिल हिरण आदि भी देखने लगे थे ।
आज का विहार तो अद्भुत है…..क्यों की आज श्रीवृन्दावन के पहाड़ों की तलहटी में स्थित अति सघन वन में दोनों गलवैयाँ दिए …कैसे विहार कर रहे हैं , देखो तो !
इस समय दोनों का यौवन खिला हुआ है ….
दोनों के हृदय में नयी नयी प्रेम की तरंगे प्रकट हो रही हैं ।
हित सखी कहती है – अरे देखो ! ये दोनों ऐसे लग रहे …जैसे – तमाल वृक्ष में कनक बेलि लिपट गयी हो । फिर हंसती है ….अपने साड़ी की पल्लू से मुँह को छुपाकर हंसती है ….एकांत प्रेमियों के लिए बड़ा ही सुखद होता है …देखो तो …इस खोर में ….दोनों अब एक दूसरे के अधर रस का पान कर रहे हैं ….पान करते हुए आलिंगन भी करते जाते हैं । दोनों के श्रीअंगों में रोमांच हो रहा है …। हित सखी उन्मत्त हो गयी है …वो कहती है ….अब तो दोनों उस शिला में बैठ गये हैं …लालन ने बैठा दिया है …और स्वयं नीचे बैठे हैं …देखो ! श्याम सुन्दर भोरी किशोरी जी की पट बंधनों को खोलने का प्रयास कर रहे हैं ..पर वो नाराज़ हो रही हैं ..नही नही …कह रही हैं ।
पर ये भी रसराज हैं …..कभी कंचुकी को छू रहे हैं …तो कभी कपोल को । प्रिया जी उनके हाथ को हटा रही हैं ….वो कपटपूर्ण रोष दिखा रही हैं …..ये समझते हैं रसराज , इसलिए अब तो उन्होंने अपनी प्रिया को हृदय से लगा लिया है …दोनों मिल गये हैं …अब सखियों ! लालन का भी क्या दोष रस ने उन्हें वश में जो कर लिया है । हित सखी आनंदित होते हुए कहती है …दोनों अब एक होते जा रहे हैं ….देख , देख , अब तो दोनों एक हो ही गये । ये कहते हुये हित सखी की वाणी रसोन्माद के कारण अवरुद्ध हो गयी थी ।
पागलबाबा भी भाव सिन्धु में डूब गये हैं ………
गौरांगी ने इसी पद का फिर से गायन किया ।
“देखि सखी राधा पिय केलि”
आगे की चर्चा अब कल –

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