!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( भाव उपासना – “नवल नागरि नवल नागर” )
!! भाव उपासना के नवम सोपान !!
प्रथम, भागवत सुनें । भक्त के मुख से सुनें । स्वयं जो भागवत हों उसके मुख से “भागवत” सुनें ।
द्वितीय , भक्ति करें । नवधा भक्ति के आधार पर भक्ति करें । श्रवण से लेकर आत्मनिवेदन तक
भक्ति को पूर्ण करें ।
तृतीय , जो इस “रसमार्ग” का मर्मज्ञ हो , उसमें गुरु भावना करके साधना को आगे बढ़ायें ।
चतुर्थ , श्रीधाम वृन्दावन का वास करना चाहिए , या जहां हैं वहीं श्रीधाम की भावना करते हुए प्रेम से रहना चाहिए ।
पंचम , सांसारिक पदार्थ से संतोष कर लेना है …किसी से राग नही किसी से द्वेष नही ।
षष्ठम , भाव देह का निर्माण करने के लिए , अपने निकुँज रस चिन्तन को बढ़ाना चाहिए । प्रयास हो कि सतत चिन्तन हमारा बना रहे इसका प्रयास करते रहना चाहिए ।
सप्तम , रास का चिन्तन बढ़ायें । भावना में अपने आपको निकुँज की सेवा में ही देखे ।
अष्टम , सखी नाम प्राप्त करे , अष्ट सखी में से एक को अपना बनाये , भावना में उन्हें ही अपनी बात बतायें, उनसे आज्ञा लें , उनके पीछे पीछे चलें , और निकुँज की सेवा प्राप्त करें ।
नवम , फिर अपने आपको सौंप दे , युगल के चरणों में । वो जो करायें ।
****साधकों ! ये रसिकों ने “भाव सेवा” की गुप्त साधना बताई है । इसके ये नवम सोपान हैं , इसके आधार पर हम चलें तो अवश्य ….”अवलोकत रहैं केलि” । उस दिव्य त्रिगुण रहित भाव देह को हम पा लेंगे , और निकुँज की लीला में हमारी स्थिति सुदृढ़ हो जाएगी ।
हाँ , इसके बाद उपासक अंतर्मुखी होजाता है , और जो भाव जगत में देखता है , उस “रस” को वो गाता है ।
ये साधारण प्रेम में भी होता है , तो जो उस दिव्य प्रेम का दर्शन करता है , या उसी में जीता है तो वो गायेगा नही ? वो गाता है । वो जो देखता है वो गाता है ।
श्रीहित हरिवंश गुसाई जी ने गाया , श्रीस्वामी हरिदास जी ने गाया , श्रीहरिव्यास देव जू ने गाया , श्रीश्री भट्ट जू ने गाया , हरिराम व्यास जी ने गाया । सबने गाया है । रसिक समाज जब अपने भाव देह से उस प्रेम की अनुभूति कर लेता है , तब गाता है ।
प्रेम की ऊँचाई पर गीत प्रकट होते हैं ।
पागलबाबा भाव जगत में ही रहते हैं इन दिनों । आज पूरे दो दिन हो गये वो इस बाग से बाहर गये ही नही हैं , वो श्रीजी मंदिर भी नही गये । वो निकुँज रस में ही पूरी तरह से डूबे रहते हैं । उन्हें कभी कभी देह सुध भी नही रहती। कोई खिलाये तो खा लेते हैं …..नही तो वो उन्मत्त से रज में पड़े रहते हैं । उनकी आँखें चढ़ी रहती हैं । वो कुछ बोलते भी नही हैं , हाँ , कभी हंसते हैं तो कभी नयनों से अश्रु बहाने लगते हैं …उनको देख कर ही समझ आजाता है कि ये उस अपार रस सिंधु में डूब गए हैं , निकलना ये चाहते नही हैं । और कौन निकलना चाहेगा !
हाँ , समय हुआ तो बाबा को थोड़ा संकेत किया गया था ।
बाबा ! श्रीहित चौरासी जी का पाठ !
बाबा उठकर बैठ गये , पर उनकी आँखें बन्द ही हैं । रसिक समाज ने श्रीजी की प्रसादी माला उनको धारण कराई , इत्र प्रसादी दी , नीली चूनर ओढ़ा दी । बस , बाबा मुस्कुरा रहे हैं ।
गौरांगी ने पचासवाँ पद गाया , श्रीहित चौरासी जी का आज पचासवाँ पद था ।
नवल नागरि नवल नागर किशोर मिलि ,
कुंज कोमल कमल दलनि शैया रची ।
गौर श्यामल अंग रुचिर तापर मिले ,
सरस मणि नील मानौं मृदुल कंचन खची ।।
सुरत नीवी निबंध हेत पिय मानिनी ,
प्रिया की भुजनि में कलह मोहन मची ।
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत रोष ,
हुंकार गर्व दृग भंग भामिनी लची ।।
कोक कोटिक रभस रहसि श्रीहरिवंस हित ,
विविध कल माधुरी किमपि नाहिंन बची ।
प्रणयमय रसिक ललितादि लोचन चषक,
पिवत मकरंद सुख रासि अंतर सची । 50 ।
नवल नागरि नवल नागर किशोर मिलि………..
बाबा पद गायन पश्चात् सीधे ध्यान में हम सब को ले गये ….उन्होंने नेत्रों को खोला ही नही है ।
!! ध्यान !!
श्रीवृन्दावन की शोभा निरखते , सांकरी खोर से निकलते युगल सरकार रस मत्त हैं । सन्ध्या की वेला भी अब चली गयी है , उदित हो गए हैं चन्द्रमा , चन्द्रमा की चाँदनी में श्रीवन की शोभा और और दिव्य लग रही है । झूमते हुए युगलवर कुँज में पधारे । यहाँ सखियों ने भोग लगाया है ….सुन्दर सुन्दर सुस्वादु भोग लगाकर सखियाँ इनको शयन कुँज में ले गयीं हैं । शयन कुँज अति सुन्दर है , इस कुँज का छज्जा अनेक मणियों समूह से बना है । इससे छन कर चन्द्रमा का प्रकाश इस कुँज में आता रहता है । इसकी विशेषता ये भी है कि ये मणियां रंग बदलती रहती हैं …जिसके कारण कुँज कभी हरित हो जाता है …मणियाँ हरी हो जाती हैं …कभी पीत मणि , तो शयन कुँज हल्का पीला हो जाता है …इस तरह रंग बदलता है ये । शैया कमल दलों से सुशोभित है ….उसमें युगल सरकार को सखियाँ शयन करने के लिए कहती हैं …तभी सुदेवी पान लेकर आती है …उससे पहले रंगदेवि जल पिलाती है । जल पीकर पान सखियाँ युगल को देती हैं …पहले प्रिया जी के मुख में पान देकर फिर उस चर्बित पान को श्याम सुन्दर पाते हैं ।
अधर वैसे ही अरुण थे पर पान के कारण और हो गये ….सखियाँ अब सुला देती हैं दोनों को …और चरण चाँपने लगती हैं …धीरे धीरे चरण दबाते दबाते ये दोनों अपने नयनों को मूँद लेते हैं …सखियाँ धीरे से बाहर चली जाती हैं ..और बाहर कुंज रंध्र से निहार रही है भीतर ।
भीतर सोते हुये दोनों युगल किशोर कितने सुन्दर लग रहे हैं ….एक दूसरे की ओर मुख करके सोये हुए हैं ये । हित सखी इनके इन मधुर झाँकी का दर्शन कर रही है ….और आगे आगे क्या होता है …वो सब अपनी सखियों को बता रही है । कुंज रंध्र से भीतर देखते हुये हित सखी कहती है –
आज कुँज को विशेष सजाया गया है …देख तो सखी !
कोमल कमल दलों से शयन की सेज सजाई है ।
किसने सजाया इतना सुंदर कुंज ?
हित सखी धीरे से बोली – इस कुँज की जो अधिष्ठात्री सखी है ना “वृंदा सखी”, उसी ने सजाया है …और अपनी मर्जी से नही सजाया , यहाँ हम सखियों की अपनी मर्जी तो कुछ है ही नही , उन्हीं की मर्जी से सब कुछ होता है , युगल की राजी में ही हम सब राजी हैं ।
कुँज रंध्र से हित सखी देख रही है ….फिर कुछ देर के लिए वो खो जाती है ….
अन्य सखियाँ उससे कहती हैं ….बताओ ना ! तब हित सखी कहती है – अद्भुत लग रहे हैं …क्या रूप है इनका ….देखो तो ! सोते हुए दोनों ऐसे लग रहे हैं जैसे आमने सामने कच्चा सुवर्ण और सुकोमल नीलमणि को रख दिया हो , आहा ! क्या रूप , क्या लावण्य है !
तभी एकाएक श्रीराधा जू के कोमल कर नींद में श्याम सुन्दर के ऊपर पड़ते हैं ….स्पर्श पाते ही श्याम सुन्दर उठ गए हैं …वो अब सोते सोते ही अपनी सोती हुयी प्रिया को देख रहे हैं ।
नयनों का भी तो ताप होता है …जब इकटक कोई देखता रहे तो सामने वाले को ताप लगता ही है …साधारण में तो होता है फिर ये तो परम प्रेमी हैं और प्रिया जू परम कोमल ! ताप लगा तो उनकी भी नींद खुल गयी …वो भी अपने प्यारे को देखती रहीं ….फिर सोये सोये ही प्रिया जू ने नयनों से संकेत किया ..क्या है ? श्यामसुन्दर ने मुस्कुराते हुए प्रिया जी के कपोल में चूम लिया…और अति प्रसन्न हो गये । प्रिया जी ने फिर संकेत किया …हो गया ? अब प्रसन्न ?
ना ,
फिर श्याम सुन्दर प्रिया जी के आँचल को छूने लगे …तो प्रिया जी ने हाथ को हटा दिया ।
फिर नीवी बंधन खोलने लगे ….तो प्रिया जी ने आँखें दिखाईं ….वो जो आँखें दिखाने की झाँकी थी वो लालन के मन में बस गयी फिर तो मुग्ध होकर तुरन्त आलिंगन कर लिया । पर प्रिया जी हटा रही हैं , श्याम सुन्दर आलिंगन के समय वक्ष को छू लेते हैं ….फिर तो प्यारी जी नेत्रों और भौं को टेढ़ा करके , ना , ना करती हैं , उनके ना ना में ही हाँ हाँ है । वो रसीली रस भरी आनंदित हैं …पर निषेध से रस क्रीड़ा में रस की वृद्धि ही होती है इसलिए ये ना ना कर रही हैं ।
दोनों पोढ़े ही हुये हैं ….ऊपर से चाँदनी झन कर आरही है ….जिससे कुँज में हल्का प्रकाश फैल रहा है ….मणियों के छज्जे होने से ….रंग बदल रहा है ….कभी हरा , तो कभी पीला , कभी लाल …और ऐसे में युगल के जो रति केलि के दर्शन हो रहे हैं ….वो अद्भुत है ।
हित सखी भाव में डूबी हुई है ……वो रंध्र से देख रही है …..
अब युगल में सुरत क्रीड़ा के प्रति आसक्ति हो चली है ….अनेक प्रकार की “माधुरी” हैं …वो सब यहाँ प्रकट होने लगी हैं ……दोनों एक दूसरे में खोने लगे हैं । दोनों एक होने लगे हैं ।
इस रतिक्रीड़ा का दर्शन करके सखियाँ भाव सिंधु में डूब गयी हैं …हित सखी तो अब आगे कुछ कह ही नही पाती …वो वही बैठ जाती है …और सुख की राशि को इकट्टा करने में लग जाती है ।
पागल बाबा इतना ही बोलते हैं …फिर मौन , पूर्ण मौन । नेत्र भी बन्द ही हैं अभी तक इनके । “भाव देह” में स्थित हैं इस समय पागल बाबा ।
गौरांगी फिर इसी पद का गायन करती है ।
“नवल नागरि नवल नागर किशोर मिली”
आगे की चर्चा अब कल –

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