पद संख्या – ३५
श्री यमुने तुमसी एक हौ जु तुमही
करो कृपा दरस निशि वासर दीजिये,
तिहारे गुण गान कौ रहे उद्यम ही ।
तिहारे पाये ते सकल निधि पावही,
चरण कमल चित्त भ्रमर भ्रम ही ।
‘कृष्णदासनि’ कहें कौन यह तप कियो,
तिहारे ढिंग रहत हैं लता द्रुमही ।।
अर्थ :-
अष्टछाप के श्री कृष्णदास जी के शब्दों में श्रीयमुनाजी का स्वरूप अद्वितीय हैं। श्री कृष्णदासजी इस पद में यही विज्ञप्ति कर
रहे हैं कि श्री यमुना जी हम तुच्छ निःसाधन जीवों पर सदैव ऐसी कृपा करें जो सदैव श्री यमुना जी के दर्शन होते रहें। जिस प्रकार बिना श्री यमुना जी की कृपा से श्री यमुना जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सकता है ठीक उसी प्रकार श्री यमुना जी के गुणों का गान भी श्री यमुना जी की कृपा के बिना नहीं हो सकता। अतः श्रीयमुना जी से यही प्रार्थना हैं कि वे ऐसी प्रेरणा दें कि पुष्टि मार्गीय वैष्णव सदा श्री यमुना जी के गुणों के गान का प्रयास करें, अर्थात् श्रीयमुना जी के गुण-गान में तत्पर रहे। श्रीयमुना जी के गुण-गान द्वारा जब वैष्णव के चित्त का निरोध श्री यमुना जी के स्वरूप में हो जावेगा तो उनको श्री यमुनाजी के आधिदैविक स्वरूप का साक्षात्कार हो जावेगा। इस प्रकार यदि श्री यमुना जी की प्राप्ति इस मानव जीवन में भगवदीय जन प्राप्त कर लेते है तो फिर कुछ शेष रहता नहीं है। श्री यमुना जी की प्राप्ति से समस्त निधियों की प्राप्ति स्वतः ही सहज में हो जाती है। आनन्द कन्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र जी की प्राप्ति हो जाती है। अतः श्री यमुना जी के चरण रूपी कमलों पर वैष्णव का चित्त रूपी भ्रमर सदैव मंडराना चाहिए। वैष्णव को सदैव श्री यमुना जी के चरण कमलों का चिन्तवन करते रहना चाहिए। क्योंकि श्री यमुना जी का चित्त भी तो सदैव भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र जी के चरण कमलों में ही लगा रहता है, अतः श्री यमुना जी की कृपा से भगवान् के चरणारबिन्दों की प्राप्ति भी सहज में ही हो जावेगी । अतः श्री कृष्णदासजी अपने हृदय के उद्गार प्रगट करते हुए लिखते हैं कि श्री यमुना तट पर निवास उन्हीं को मिलता है जिन्होंने पूर्व जन्म में बड़ा तप किया हो । श्रीयमुना जी के तट पर जो वृक्ष हैं, जो लता पता हैं उन्होंने अवश्य ही कोई तप किया होगा जिसके फल स्वरूप उन्हें अष्ट प्रहर का सान्निध्य श्री यमुना जी का प्राप्त हुआ है। अर्थात् धन्य भाग्य इन द्रुम, लता आदि के हैं जो श्री यमुना तट पर स्थित है।
पद संख्या – ३६
ऐसी कृपा कीजै, लीजिए नाम ।
श्री यमुने जग वन्दनी, गुण न जात काहूं गिनी,
जिनके ऐसे धनी सुन्दर श्याम ।।
देत संयोग रस, एसे पिया हैं जु वश,
सुनत तिहारौं सुयश पूरे सब काम ।
‘कृष्ण दासनि’ कहें भक्त हित कारनें,
श्री यमुने एक छिन नाहिं करें विश्राम ।
अर्थ :-
इस पद में अष्टछापी श्री कृष्णदास जी अधिकारी जी श्रीयमुना जी से कृपा करने की विनति करते हैं, श्री यमुना जी की कृपा हो, तभी इस लौकिक जिव्हा से अलौकिक श्री यमुना जी का नाम लिया जा सकता है। सम्पूर्ण जगत श्री यमुना जी के स्वरूप को, महात्तम को जानता है अतः श्री यमुना जी की वन्दना करता है, इस प्रकार श्री यमुना जी समस्त जगत् द्वारा वन्दनीय है। जिनके धनी पर ब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम आनन्द कन्द भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र जी हो, भला ऐसी श्री यमुना जी के गुणों की गणना कौन
कर सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं कर सकता। जिस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के अनन्त गुण हैं उसी प्रकार श्री यमुना जी के भी अनन्त गुण हैं । श्री यमुना जी के श्री ठाकुर जी इतने वश में हैं, कि जिसकी श्रीयमुना जी विनती करें, उसी सौभाग्यशाली दैवी जीव को भगवान् श्री कृष्ण संयोग रस का दान करते हैं। श्री यमुना जी को तो संयोग रस देते है परन्तु श्री यमुना जी की प्रार्थना पर अन्य श्री यमुना जी के भक्तों को भी उसी संयोग रस का, अलौकिक दान करते हैं। श्रीयमुना जी के सुन्दर यश को श्रवण करने मात्र से ही समस्त कामनायें पूरी हो जाती हैं। इस पद के अन्त में श्री कृष्णदास जी आज्ञा करते हैं कि श्रीयमुना जी अपने भक्तों का सदैव हित ही चाहती हैं। सदैव भक्तों को सुख पहुँचाने की चिन्ता श्री यमुना जी को लगी रहती है, अतः भक्तों के हित के लिए श्री यमुना जी एक क्षण भी विश्राम नहीं करती है। ऐसी श्री यमुना जी का नाम वैष्णव को सतत लेते रहने का अभ्यास करना चाहिये।
जय श्री कृष्ण जी।
🙏🌹🙏🇸🇳
जय श्री कृष्ण जी।
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श्रील हरिदास ठाकुर जी अब बहुत वृद्ध हो गए हैं, तो भी नित्य तीन लाख नाम जाप करते है।
एक दिन गोबिंद हरिदास जी को श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद देने गए, तो देखा कि वे लेटे- लेटे धीरे-धीरे हरिनाम कर रहे है।
गोबिंद ने कहा- “हरिदास, उठो, प्रसाद लो।”
हरिदास जी उठे, उठकर बोले- “मेरी नाम संख्या अभी तक पूरी नहीं हुई है।”
इतना कहकर उन्होंने प्रसाद की उपेक्षा न हो, इसलिए एक चावल प्रसाद का दाना मुख में डाला और लेट गये।
हरिदास जी की ऐसी अवस्था सुन दूसरे दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने आकर पूछा- “हरिदास, स्वस्थ तो हो?”
हरिदास जी बोले – प्रभु, शरीर तो स्वस्थ है, पर मन स्वस्थ नहीं, क्योकि वृद्ध अवस्था के कारण नाम जप संख्या पूरी नहीं कर पाता हूँ।
यह सुनकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो गया, पर मन का भाव छिपाते हुए उन्होंने कहा -“हरिदास तुम तो सिद्ध हो, लोक कल्याण के लिए तुम्हारा अवतार हुआ है।
अब वृद्ध हो गए हो तो जप की संख्या कुछ कम कर दो।”
अपनी प्रशंसा सुनकर हरिदास जी प्रभु के चरणों में गिर पड़े और बोले- “प्रभु मै अति नीच हूँ, आपकी प्रशंसा पाने के योग्य नहीं हूँ।”
चैतन्य महाप्रभु हरिदास जी की दीन वाणी सुनकर हरिदास के विषादपूर्ण मुख की ओर छल-छलाते नेत्रो से देर तक देखते रहे।
हरिदास जी ने चैतन्य महाप्रभु जी से कहा- “प्रभु मेरा एक निवेदन है, यदि आप मुझसे प्रसन्न है, तो आप मुझसे पहले नही, मै आपसे पहले देह त्याग कर जाना चाहता हूँ, प्रभु मैं आपका विरह सहन नहीं कर पाऊंगा।”
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु का हृदय दुखी हो गया अश्रुपूर्ण नेत्रों से रुधे कंठ से बोले-“हरिदास, तुम चले जाओगे तो मै कैसे रहूंगा?
क्यों अपने संग सुख से मुझे वंचित करना चाहते हो, तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा कौन है?”
हरिदास जी ने कहा – “प्रभु, कोटि-कोटि महापुरुष तुम्हारी लीला के सहायक है।
मेरे जैसे शुद्र जीव के मर जाने से तुम्हारी क्या हानि होगी?”
इतना कह रोते-रोते हरिदास जी ने महाप्रभु के श्री चरण पकड़ लिए।
श्री चरणों में सिर देकर कम्पित स्वर से हरिदास जी बोले- “मैं जाना चाहता हूँ आपके चरण कमल अपने वक्ष स्थल पर धारणकर ओर आपका श्रीमुख देखते-देखते, मधुर नाम लेते लेते, बोलो प्रभु, यह वर दे रहे हो न?”
महाप्रभु ने एक गहरी साँस ली और धीरे से बोले- “हरिदास, तुम जो भी इच्छा करोंगे, श्री कृष्ण उसे पूर्ण किये बिना न रह सकेंगे, पर मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा।”
इतना कह चैतन्य महाप्रभु जी चुप हो गए…
थोड़ी देर में उच्च स्वर से ‘हरिदास, हरिदास, कह उनसे लिपट कर रोने लगे, चैतन्य महाप्रभु जी के नयन जल से हरिदास जी का वक्ष स्थल भीग गया ओर स्पर्श से सर्वांग पुलकित हो उठा।
हरिदास जी आश्वस्त होकर महाप्रभु से बोले- “कल प्रात: जगन्नाथ जी के दर्शन कर इस अधम को दर्शन देने की कृपा करे।”
महाप्रभु समझ गए कि हरिदास चाहते हैं कल ही उनकी इच्छा पूर्ण हो।
दूसरे दिन प्रात:काल चैतन्य महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी के दर्शन कर स्वरुप दामोदर, राय रामानंद ,सार्वभोम भट्टाचार्य, वक्रेश्वर पंडित आदि प्रमुख भक्तों को साथ ले हरिदास जी की कुटिया में आये।
भक्तों ने सोचा आज महाप्रभु हरिदास जी के पास जा रहे हें, अवश्य कोई विशेष लीला होनी है।
कुटिया में पहुँचते ही महाप्रभु ने कहा -“हरिदास, क्या समाचार है?”
हरिदास जी ने उत्तर दिया- “दास प्रस्तुत है।”
कहते-कहते हरिदास जी ने महाप्रभु और भक्तों को प्रणाम किया।
हरिदास जी दुर्बलता के कारण खड़े नहीं रह सकते थे, चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें बैठाकर भक्तों सहित उनके चारों और नृत्य और हरिनाम संकीर्तन किया।
नृत्य कर रहे है स्वरुप, व्रकेश्वर और स्वयम महाप्रभु, रामानंद और सार्वभोम गान करने लगे।
हरिदास जी उनकी चरणधूलि लेकर अपने सर्वांग में मल रहे है।
हरिदास जी वहाँ धीरे-धीरे लेट गए और धीरे-धीरे महाप्रभु के चरण कमल अपने हृदय पर धारण किये।
महाप्रभु के चरणकमल हाथ से पकड़े हुए हरिदास जी ने अपने दोनों नेत्र प्रभु के मुख चन्द्र पर अर्पित किये और नेत्रों से प्रेमाश्रु विसर्जन करते-करते ‘हा गौरांग, ” कहकर प्राण त्यागे…भक्तगण हरिदास जी का इस प्रकार निर्वाण देखकर अवाक रह गए।
पहले किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि हरिदास जी ने स्वेच्छा से शरीर त्याग किया है।
मृत्यु पर भक्त की विजय और उसकी महिमा में वृद्धि देख महाप्रभु के हृदय में आनंद नहीं समां रहा और साथ ही जिस भक्त पर वे इतना गर्व करते थे, जिसके दर्शन कर वे तृप्ती अनुभव करते थे उनके संग से सहसा वंचित हो जाने के कारण अत्यंत दुखी भी थे।
आनंद एंवम विषाद के बीच महाप्रभु ने हरिदास जी के मृत शरीर को गोद में लेकर नृत्य आरम्भ किया उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे।
भक्त ही उनके सब कुछ है, प्रत्येक भक्त के लिए उनका प्रेम अनंत है।
नृत्य समाप्त कर महाप्रभु ने हरिदास जी का गुणगान कर अपने हृदय की व्यथा को शांत किया।
थोड़ी देर बाद हरिदास जी के शरीर को समुद्र की ओर ले चले।
चैतन्य महाप्रभु आगे नृत्य करते जा रहे है, पीछे-पीछे भक्तवृन्द जा रहे है।
प्रभु ने समुद्र तट पर जाकर हरिदास की देह को स्नान कराया ओर महाप्रभु बोले- “आज से यह समुद्र महातीर्थ हुआ।”
तब समुद्र तीर पर बालुका में हरिदास जी को समाधि दी।
हरिदास जी को माला ओर चंदन अर्पण कर उनका चरणोदक पीकर भक्तों ने उनके शरीर को समाधि में शयन कराया।
महाप्रभु ने अपने हाथ से समाधि में बालुका दी।
भक्तों सहित ‘हरि बोल, हरि बोल” की ध्वनि के साथ समाधि की परिक्रमा करते हुए नृत्य कीर्तन किया तथा उसके पश्चात सबने समुद्र स्नान किया ओर पुन: समाधि की परिक्रमा कर कीर्तन करते हुए श्री जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पर पंसारियो की जो दुकानें है उनसे महाप्रभु ने भिक्षा देने को कहा।
पंसारी डलिया भर-भर कर भिक्षा देने लगे।
महाप्रभु को स्वयं भिक्षा करते देख भक्त बहुत दुखी हुए, उन्होंने महाप्रभु से हाथ जोड़कर निवेदन किया “प्रभु आप अपने स्थान पर चले हम भिक्षा लेकर आते है।”
महाप्रभु स्वरुप गोस्वामी के मुख की ओर देखकर उच्च स्वर से रो पड़े मानो कह रहे हो अपने प्रिय हरिदास के उत्सव के लिए भिक्षा करने को मना कर तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो।
प्रभु को दुखी मन से अपने स्थान जाना पड़ा।
विराट महोत्सव हुआ, महाप्रभु ने अपने हाथ से
महाप्रसाद परोसना आरम्भ किया।
फिर भक्तों के साथ महाप्रभु प्रसाद पा रहे है ओर उच्च स्वर में हरिदास जी के गुणों का कीर्तन कर रहे है।
महोत्सव समाप्त होने पर महाप्रभु ने सबको वरदान देते हुए कहा- “हरिदास के निर्वाण का जिन्होंने दर्शन किया, नृत्य कीर्तन किया, उनकी समाधी में बालू दी और जिन्होंने उनके महोत्सव में महाप्रसाद पाया उन सबको जल्दी ही श्री कृष्ण की प्राप्ति होगी।
जय श्री राधे राधे जी।
🙏🌹🙏🌹🙏❤️

Author: admin
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