Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत – 57
‘वे’ तो ‘वे’ ही हैं….
तत्कैशोरं तच्च वक्तारविन्दं, तत्कारुण्यं ते च लीलाकटाक्षाः ।
तत्सोन्दर्यं सा च सान्द्रस्मित श्रीः सत्य सत्यं दुर्लभं दैवतेपि ।55 ।
हे साधकों ! पूर्व श्लोक में मधुर मूर्ति श्यामसुन्दर का दर्शन करके भाव समाधि में बिल्वमंगल जब पहुँच जाते हैं …उस समय उनके तन मन प्राण में बस वह माधुर्य रस मूर्ति ही छा जाती है …..बिल्वमंगल पुनः उसी झाँकी को निहारने के लिए तड़फ उठते हैं…कि तभी उस रस राज्य में कोई श्रीरंगनाथ से तो कोई बद्रीनाथ से तो कोई द्वारिका से लोग पहुँच जाते हैं….वहाँ बिल्वमंगल को ये लोग देखते हैं….वो अर्धमूर्छित हैं ….उन्हें अपना भान है भी और नही भी । ये लोग उनके निकट गये हैं और बिल्वमंगल को इन सबने सम्भाला है….जल आदि पिलाया ….फिर बिल्वमंगल से उनके विषय में जानना चाहा तो – “मैं अपने विषय में क्या कहूँ ! मुझे तो उस नवल किशोर की मधुर मूर्ति ने मोह रखा है …हे मेरे हित चिन्तकों ! वो मधुर मूर्ति बहुत सरस है …और सौन्दर्य की तो अगाध राशि है …वो किशोर सबके हृदय को चुराता है ….मेरा भी उसी ने चुराया है …अब मैं क्या करूँ ? वो मुझे छल रहा है …बिल्वमंगल इतना कहकर सुबुकने लगते हैं । तब वो लोग आपस में मुस्कुराते हैं और अपने अपने आराध्य के चित्र बिल्वमंगल को दिखाते हैं ।
पहले व्यक्ति ने भगवान श्रीरंगनाथ का चित्र दिखाया ….और कहा …भैया ! तुम्हारे वो नव किशोर ये होंगे , हैं ना ? बिल्वमंगल ने उस चित्र को देखा ….कुछ देर तक देखते ही रहे …फिर माथे से उस चित्र को लगाकर कहा ….इनमें वो माधुर्य कहाँ ! हाँ , महालक्ष्मी इनके चरण दबा रही हैं …इसलिए महाऐश्वर्य का दर्शन तो इनमें हो रहा है किन्तु माधुर्य नही है । बिल्वमंगल ने उस चित्र को प्रणाम करके हटा दिया …उन व्यक्ति ने पूछा – इनमें कैसे माधुर्य नही है ? तो बिल्वमंगल प्रतिप्रश्न करते हैं ….क्या ये नाचते हैं ? उन्होंने कहा …ये क्यों नाचने लगे भला ! बिल्वमंगल कहते हैं – किन्तु वो नव किशोर तो नाचता है ..और अपने ही आनन्द में नाचता है । तभी दूसरे व्यक्ति ने बद्रीनाथ भगवान का चित्र दिखाया जिसमें नर नारायण तप कर रहे हैं ….तुम्हारे आराध्य ये होंगे , है ना ?
बिल्वमंगल ने देखा , फिर उस चित्र को अपने माथे से लगाते हुए वापस कर दिया और पूछा …क्या ये गाते हैं ? नहीं । बिल्वमंगल ने कहा …मेरा नव किशोर तो गाता है ….और गाते गाते स्वयं ही मुग्ध हो जाता है । वो चित्र भी वापस कर दिया था बिल्वमंगल ने । अब तीसरे व्यक्ति ने आकर द्वारिकाधीश का चित्र दिखाया और पूछा – यही हैं ना तुम्हारे आराध्य ? बिल्वमंगल उस चित्र को भी देखते हैं …हाँ ये चित्र उस किशोर के कुछ निकट है ….किन्तु ….किन्तु क्या ? बिल्वमंगल से पूछते हैं …..बिल्वमंगल वापस उनसे पूछते हैं ….ये बाँसुरी नही बजाते ना ? ये रीझते नही और रिझाते भी नही ….है ना ? बिल्वमंगल कहते हैं …..किन्तु वो …मेरा वो नव किशोर तो इन सबसे अलग है ….कैसा है ? कुछ तो बताओ …वो लोग भी वहीं बैठ गए । बिल्वमंगल भाव जगत में चले गये और उन लोगों को बताने लगते हैं …..
“उसका किशोर वेश है ….उसका मुखारविंद मानों पूर्ण चन्द्र है ….उसके नेत्रों में अपार करुणा भरी है …..उसकी ललित लीलाएं बड़े बड़े मुनियों के भी मन को हर लेने वाली होती हैं ….उनमें अपार सौन्दर्य है ….और जितना सौन्दर्य है उतना ही माधुर्य भी है । वो रस का परम वैभव इन्हीं के पास तो है ….इनके प्रत्येक अंगों से माधुर्य झरता है ….इनको जो देख ले वो बस देखता रह जाये …सब कुछ उसका छूट जाये …..हे मेरे मित्रों ! अब बताओ ऐसा सौन्दर्य माधुर्य है आपके किसी परम देवों में ? ऐसी अद्भुत रूप माधुरी किन देवताओं में पाई जाती है ? किनमें है ?
तभी एक रसिक साधु उधर से आया ….ये भी उस नव किशोर मधुर मूर्ति की झलक पाकर पगला गया था ….ये बिल्वमंगल के पास आया और हँसता हुआ एक चित्र दे गया ….उस चित्र को बिल्वमंगल ने देखा …..चित्र श्याम सुन्दर का था …..मुरली मनोहर का था ….उस चित्र को बिल्वमंगल ने अपने हृदय से लगाकर चूम लिया था और कहा …यही है ..वो मधुर मूर्ति यही है । इतना कहकर बिल्वमंगल भाव समाधि में फिर चले गये थे ।
“मन जाने कै दोउ नैंना , कहिवे को नाहिंन हैं वैंना “
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 5️⃣1️⃣भाग 3
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा ….
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
इनका बड़ा सुन्दर आश्रम है ………….वैदिक ज्ञान के पिपासु और अध्यात्म के पिपासुओं के लिये ये आश्रम दिव्य था ।
फूल, तुलसी, पीपल, विल्व, वट पाकर आम इत्यादि के अनेक वृक्ष लगे थे ……हरियाली घनी थी …….दूसरी और गौशाला थी ……..उनमें जो गौ थीं ……वो सुन्दर थीं …….स्वस्थ थीं ………….
दूसरी ओर ……..यज्ञ वेदिका थी ……….उसमें ब्रह्मचारी बालक वैदिक ऋचाओं से आहुति दे रहे थे ……..उस यज्ञ वेदिका से उड़नें वाली धुँआ वातावरण को सुगन्धित बना रही थी ।
दूसरी ओर मैने देखा …………जटा धारी , शान्त मनस्थिति के साधक …युवा अत्यंत तेजवान ये सब ध्यान करके बैठे हुए ……..
और इन्हीं के मध्य में महर्षि भरद्वाज …..दिव्य तेजयुक्त महर्षि ………
एक ऋषि युवक नें जाकर धीरे से सूचना दी थी ………..
महर्षि नें जैसे ही सुना ……………..वो उठे ……
कहाँ हैं मेरे राम !
यही वाक्य उनके मुख से निकल रहा था ……..वो बेचैन हो उठे थे …….वो चारों और देख रहे थे………..
जैसे ही श्रीराम उन्हें दिखाई दिए ………..वो दौड़ पड़े …….
इधर श्रीराम दौड़े मै और लक्ष्मण पीछे थे ………………..
धनुष को एक तरफ रख दिया और श्रीराम साष्टांग धरती में लेट गए …..
ये दाशरथी राम ! ये महर्षि आपको प्रणाम करता है ………..
मैने भी घुटनों के बल बैठकर महर्षि को प्रणाम किया था ।
पर महर्षि से ये देखा नही गया …….उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ……उन्होंने तो मेरे श्रीराम को जबरदस्ती अपनें चरणों से उठाकर हृदय से लगा लिया था …………।
उस समय महर्षि का रोम रोम पुलकित हो उठा था ……………
अर्घ्य तो नेत्रों के जल से ही चढाया था महर्षि नें श्रीराम को ।
नही नही ….इस उच्च आसन में मै कैसे बैठ सकता हूँ महर्षि ?
जब भरद्वाज ऋषि नें मेरे श्रीराम को उच्च आसन में बिठाना चाहा ….तब बड़े संकोच से मेरे प्रभु नें कहा था ।
आप हमारे अतिथि भी तो हैं राघव ! अतिथि का सत्कार तो ऋषियों और ब्राह्मणों को भी करना ही चाहिये ……………
आप संकोच न करें …….मेरे सुख के लिये इस आसन को आप स्वीकार करें हे राघव !
आहा ! कितनें प्रेमपूर्ण थे ये महर्षि ………….मुझे देखकर भावुक हो उठे थे ……..मैथिली भी आगयीं वन में ?
ऐसा कहते हुये मुझे भी प्रणाम निवेदित किया , और प्रभु के वाम भाग में मुझे बैठनें का आग्रह किया था ।
आहा ! मेरे ये नेत्र आज सफल हो गए !
लम्बी साँस लेते हुये महर्षि नें कहा था ।
हे राम ! आपके दर्शन से ही तो इन नेत्रों की सफलता है ………
पर मुझे शिकायत है ……..मै रुष्ट हूँ …………….
महर्षि के ऐसे शब्द सुनकर मेरे श्रीराम काँप गए ……..
आप किससे रुष्ट हैं महर्षि ?
मै कैकेई से ………………इतना ही बोले थे महर्षि कि मेरे श्रीराम उच्च आसन को त्याग कर महर्षि के चरणों तक झुक गए ………..
नही ……ऐसा मत कीजिये महर्षि !
आप जैसे महात्मा अगर उस बेचारी माँ से रुष्ट होनें लग गए …..तो उसका तो कभी कल्याण ही नही होगा ।
वो निर्दोष है भगवन् ! कैकेई माँ निर्दोष है ।
फिर आपको वनवास क्यों दिया ?
मेरी इच्छा से ही सब हुआ है ……..हाँ महर्षि !
मेरे श्रीराम बिलख कर बोल रहे थे ।
पर क्यों ? क्यों आपको वनवास चाहिये था ?
इस प्रश्न के उत्तर में ……श्रीराम गम्भीर होकर बोले ।
आप जैसे महात्माओं के दर्शन का लाभ मुझे अयोध्या में कहाँ मिलता ?
मुझे आप जैसे अकिंचन साधुओं के दर्शन करनें थे महर्षि !
ये कहते हुये अपना मस्तक महर्षि के चरणों में श्रीराम नें रख दिया था ।
इस दृश्य को देखकर समस्त ब्रह्मचारी , साधक , महात्मा ……….सब प्रेम के सिन्धु में डूब गए थे …………मैने देखा…………मनुष्य ही नही …..पक्षी भी……कपि और हिरण भी …….ये भी प्रेमाश्रु बहा रहे थे ।
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शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 12 : भक्तियोग
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श्लोक 12.1
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अर्जुन उवाच |
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते |
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः || १ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; एवम् – इस प्रकार; सतत – निरन्तर; युक्ताः – तत्पर; ये – जो; भक्ताः – भक्तगण; त्वाम् – आपको; पर्युपासते – ठीक से पूजते हैं; ये – जो; च – भी; अपि – पुनः; अक्षरम् – इन्द्रियों से परे; अव्यक्तम् – अप्रकट को; तेषाम् – उनमें से; के – कौन; योगवित्-तमाः – योगविद्या में अत्यन्त निपुण |
भावार्थ
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अर्जुन ने पूछा – जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसे अधिक पूर्ण (सिद्ध) माना जाय?
तात्पर्य
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अब तक कृष्ण साकार, निराकार एवं सर्वव्यापकत्व को समझा चुके हैं और सभी प्रकार के भक्तों और योगियों का भी वर्णन कर चुके हैं | सामान्यतः अध्यात्मवादियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है – निर्विशेषवादी तथा सगुणवादी | सगुणवादी भक्त अपनी साड़ी शक्ति से परमेश्र्वर की सेवा करता है | निर्विशेषवादी भी कृष्ण की सेवा करता है, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से न करके वह अप्रत्यक्ष ब्रह्म का ध्यान करता है |इस अध्याय में हम देखेंगे कि परम सत्य की अनुभूति की विभिन्न विधियों में भक्तियोग सर्वोत्कृष्ट है | यदि कोई भगवान् का सान्निध्य चाहता है, तो उसे भक्ति करनी चाहिए |जो लोग भक्ति के द्वारा परमेश्र्वर की प्रत्यक्ष सेवा करते हैं, वे सगुणवादी कहलाते हैं | जो लोग निर्विशेष ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे निर्विशेषवादी कहलाते हैं | यहाँ पर अर्जुन पूछता है कि इन दोनों में से कौन श्रेष्ठ है | यद्यपि परम सत्य के साक्षात्कार के अनेक साधन है, किन्तु इस अध्याय में कृष्ण भक्तियोग को सबों में श्रेष्ठ बताते हैं | यह सर्वाधिक प्रत्यक्ष है और ईश्र्वर का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए सबसे सुगम साधन है |भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान् ने बताया है कि जीव भौतिक शरीर नहीं है, वह आध्यात्मिक स्फुलिंग है और परम सत्य परम पूर्ण है | सातवें अध्याय में उन्होंने जीव को परम पूर्ण का अंश बताते हुए पूर्ण पर ही ध्यान लगाने की सलाह दी है | पुनः आंठवें अध्याय में कहा है कि जो मनुष्य भौतिक शरीर त्याग करते समय कृष्ण का ध्यान करता है, वह कृष्ण के धाम को तुरन्त चला जाता है | यही नहीं, छठे अध्याय के अन्त में भगवान् स्पष्ट कहते हैं, कि योगियों में से, जो भी अपने अन्तः-कारन में निरन्तर कृष्ण का चिंतन करता है, वही परम सिद्ध माना जाता है | इस प्रकार प्रायः प्रत्येक अध्याय का यही निष्कर्ष है कि मनुष्य को कृष्ण के सगुण रूप के प्रति अनुरक्त होना चाहिए, क्योंकि वही चरम आत्म-साक्षात्कार है |इतने पर भी ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के साकार रूप के प्रति अनुरक्त नहीं होते | वे दृढ़तापूर्वक विलग रहते है यहाँ तक कि भगवद्गीता की टीका करते हुए भी वे अन्य लोगों को कृष्ण से हटाना चाहते हैं, और उनकी सारी भक्ति निर्विशेष ब्रह्मज्योति की और मोड़ते हैं | वे परम सत्य के उस निराकार रूप का ही ध्यान करना श्रेष्ठ मानते हैं, जो इन्द्रियों की पहुँच के परे है और अप्रकट है |इस तरह सचमुच में अध्यात्मवादियों की दो श्रेणियाँ हैं | अब अर्जुन यह निश्चित कर लेना चाहता है कि कौन-सी विधि सुगम है, और इन दोनों में से कौन सर्वाधिक पूर्ण है | दूसरे शब्दों में, वह अपनी स्थिति स्पष्ट कर लेना चाहता है, क्योंकि वह कृष्ण के सगुण रूप के प्रति अनुरक्त है | वह निराकार ब्रह्म के प्रति आसक्त नहीं है | वह जान लेना चाहता है कि उसकी स्थिति सुरक्षित तो है | निराकार स्वरूप, चाहे इस लोक में हो चाहे भगवान् के परम लोक में हो, ध्यान के लिए समस्या बना रहता है | वास्तव में कोई भी परम सत्य के निराकार रूप का ठीक से चिंतन नहीं कर सकता | अतः अर्जुन कहना चाहता है कि इस तरह से समय गँवाने से क्या लाभ? अर्जुन को ग्याहरवें अध्याय में अनुभव हो चूका है कि कृष्ण के साकार रूप के प्रति आसक्त होना श्रेष्ठ है, क्योंकि इस तरह वह एक ही समय अन्य सारे रूपों को समझ सकता है और कृष्ण के प्रति उसके प्रेम में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ता | अतः अर्जुन द्वारा कृष्ण से इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न के पूछे जाने से परमसत्य के निराकार तथा साकार स्वरूपों का अन्तर स्पष्ट हो जाएगा।
