🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी..7️⃣5️⃣भाग 2
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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सकल मुनिन्ह सन विदा कराई….
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
कल अयोध्या से एक समाज आया था …………जिसे आज ये विदा करके आये …….वो कहनें लगे थे ……….आहा ! कितना सुन्दर स्थान है ….हम भी मन्दाकिनी के किनारे पर्णकुटी बनाकर यहीं रहेंगें …….।
मेरे श्रीराम उस समय कुछ नही बोले ……क्या बोलते …..किसी को मना तो किया नही जा सकता ……….।
उन सबको विदा करके जब लौट रहे थे ………तब लक्ष्मण से मेरे श्रीराम नें कहा था ………….
हम चित्रकूट छोड़ देंगें …………………
क्यों प्रभु ! चित्रकूट में सब अच्छा तो है …………….
ये देखो लक्ष्मण ! अयोध्या से आये उन अश्वों नें यहाँ की वन सम्पदा को रौंद दिया………और वन में रजोगुणी मानव रहेगा ……..तो वन सम्पदा को उजाड़ेगा ही………और यहाँ कोलाहल भी …….वन का अपना अधिदैव होता है लक्ष्मण ! कोलाहल से अधिदैव चले जाते हैं वन से ।
ये स्थान तो पशु पक्षीयों का है …..वृक्ष वनस्पतियों का है ……..
लक्ष्मण ! “प्रकृति मात्र मानव के लिये है” ….ये विचार ही आसुरी विचार है ……इस जगत में हर स्थान पर मानव का हस्तक्षेप उचित नही है ।
उनके लिये नगर हैं………..हाँ इन ऋषि मुनियों की बात अलग है …….ये प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ नही करते …………।
और लक्ष्मण ! तुमनें कुछ दिनों से ध्यान नही दिया ! हमारे पास ऋषियों नें आना बन्द कर दिया है ……….कारण यही है ……..हमारे लोगों नें कोलाहल जो फैला दिया है इस वन में …..इस सुन्दर वन में ।
चलते हुये श्रीराम लक्ष्मण को कह रहे थे ………….
तभी एक वृद्ध ऋषि आगे आये ……..वो मन्दाकिनी जा रहे थे …….
नही राम ! ऋषियों का आना आपके पास इसलिये कम हुआ है कि ……आपके यहाँ स्थाई आवास बनानें से ………असुरों का समूह इधर देखनें लगा है………..ऊपर से जाते हुये असुर कभी मल मूत्र ऋषियों की कुटिया में डाल देते हैं…..या कुछ पशु माँस को ………..।
ओह ! श्रीराम को बहुत कष्ट हुआ ……………
डरनें लगे हैं ये ऋषि लोग …………..वो वयोवृद्ध ऋषि बोले ।
क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “गीता वाटिका के साधक से चर्चा”
सौभरी वन में पागलबाबा – 25
अच्छे साधक हैं ….तीन चार वर्षों से मेरे सम्पर्क में हैं ….स्वामीश्रीरामसुखदास जी की “साधक संजीवनी” ( गीता पर लिखी गयी स्वामी जी की एक अद्भुत टीका ) इन्होंने बहुत पढ़ी है ….इनका कहना है कि जो भी मेरे जीवन में परिवर्तन आया उसमें “साधक संजीवनी” का ही योगदान है ।
मुझ से यदा कदा इनकी वार्ता दूरभाष से होती रहती थी । आज ये श्रीधाम आगये थे ….एकादशी का दिन था सुबह ही आगये । बड़ा सुख मिला इन्हें देखकर ….बहुत शान्त …गम्भीर …सुलझे हुए ….वो आकर मेरे सामने बैठ गए थे ….कुछ नही बोले ….बस नेत्र बन्द किए और बैठ गये …….
“प्रत्येक मनुष्य के शरीर में एक प्रकार की तन्मात्रा निकलती है ….जैसा उसका मन होता है वैसा ही वातावरण वो अपने साथ लेकर चलता है ….ये तो वैज्ञानिक बात है …..जैसे – कोई क्रोधी है …क्रोध का वातावरण उसके साथ है …वो जहां जाएगा जिन जिन लोगों के पास बैठेगा वो क्रोध के परमाणु ही फैलाएगा ….उसने हमें ऐसे सताया …मैं उसे छोड़ूँगा नही ….तुम कुछ कहो तो उसका क्रोध प्रकट हो जाएगा और तुम भी उसके आग़ोश में आजाओगे ….उसने मेरा धन लूटा …उसने मुझे मारा ….उसकी बात सुनकर तुम्हें भी क्रोध आजाएगा ।
अच्छा ! उसने ऐसा किया फिर तो तुम्हें उससे बदला लेना ही चाहिए । आया ना तुम्हारे भीतर भी क्रोध । अब ऐसे ही कोई कामी व्यक्ति है ….अब उसके पास बैठो …..वो कहेगा वो लड़की बहुत सुन्दर है यार ! तुमने देखा नही ….एक बार तुम देख लोगों पगला जाओगे । उसके मन में काम वासना है ….वो निकल रहा है…..वो तुम्हें पकड़ लेगा ….वो काम पकड़ लेगा ….तुम भी कामी हो गये …ऐसे ही लोभी …………
“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च”
गीता में कितने करुणा से भरे हमारे श्रीकृष्ण कहते हैं …..”मेरा “स्मरण” कर”।
क्यों कहते हैं ? इसलिए कहते हैं क्यों कि हमारा स्मरण ही ख़राब हो गया है ….हमारा स्मरण दूषित हो गया है …..हमारे स्मरण में भगवान नही हैं …कौन है ? शत्रु है ….स्मरण में शत्रु है तभी तो क्रोध आरहा है …..हमारे स्मरण में धन है ….पैसा है …..इसलिए तो लोभ आरहा है …हमारे स्मरण में महत्वबुद्धि स्त्री देह की है या पुरुष देह की है ….इसलिए काम भर गया है ।
आहा ! गीता में कितनी सुन्दर बात मेरे गोविंद कहते हैं …..”मेरा स्मरण कर”। इसमें एक चीज़ समझना ….”तस्मात् – इसलिए , इसका अर्थ है …..आपका जैसा स्मरण होगा आप की गति भी वैसी ही होगी …..यही अध्यात्म विज्ञान है । इसलिए ये याद रखो तुम जो भी बन रहे हो …बनोगे …इस जन्म में या अगले जन्म में …उसमें पूरी भूमिका तुम्हारे स्मरण की ही रहेगी ।
तो क्या करें ? अपने स्मरण को शुद्ध बनायें ……कैसे ? सत्संग से ।
सत्संग के बिना कोई उपाय नही है सुधरने का ….अपने स्मरण को सुधारने का । सत्संग हमें ये सिखाती है कि स्मरण तो करते हो …लेकिन किसका ? और जिसका कर रहे हो उस स्मरण से तुम्हें लाभ क्या ? हानि है ….और हानि तुम्हें ही नही …..तुम्हारे द्वारा समाज को भी हानि हो रही है …क्यों कि तुम जहां बैठोगे …जाओगे …रहोगे ….उस स्थान को भी तुम अपने दूषित सोच से गन्दा कर दोगे …..इसलिए सत्संग करो ….अपने स्मरण को शुद्ध बनाओ …..बस ।
फिर वो साधक मुझ से बोले ….”ख़ाली हाथ सन्त के पास नही जाना चाहिए …इसलिए ये शब्द सुमन आपके लिए समर्पित हैं “। मैंने भी उन्हें पूर्ण श्रद्धा से प्रणाम किया ।
Hari sharan
[] Niru Ashra: भक्तमाल (022)
पूज्यपाद श्री रामेश्वर दास रामायणी जी , श्री गणेशदास भक्तमाली जी , श्री राजेंद्रदासचार्य जी के कृपाप्रसाद और भक्तमाल टीका से प्रस्तुत भाव
सुंदर कथा १९(श्री भक्तमाल -श्री प्रेमनिधि जी)
(१) भगवान् श्री कृष्ण के एक बड़े प्रेमी भक्त हुए जिनका नाम श्री प्रेमनिधि जी महाराज था।
श्री प्रेमनिधिजी में प्रेमाभक्ति सम्बन्धी अनंत गुण प्रकट थे।उस ज्योतिषी विप्रको धन्यवाद है,जिसने गुणोंके अनुरूप ऐसा (सार्थक)नाम रखा।आप सुंदर,शीलवान् और स्वभावसे नम्र थे।आपकी वाणी मधुर,रसमयी और श्रोताओंका सर्वविध कल्याण करनेवाली थी।
हरिभक्तों को सुख देने के लिये आप कल्पवृक्षके समान थे, जिसमें प्रेमा-पराभक्तिके बहुत से फल लगे रहते थे।घरमें रहते हुए आप गृहस्थाश्रमके प्रपंचो से परम विरक्त थे। विषयोको त्यागकर सारतत्व प्रेमका आस्वादन करनेवाले,सदाचारी और परम उदार थे। नियमपूर्वक भगवद्भक्तोंके साथ सत्संग किया करते थे। (आगरा निवासी) भक्तोंपर दया करके आपने श्रीवृन्दावनसे बाहर आगरेमें निवास किया और भगवान् की कथाओ के द्वारा सबको पवित्र किया।
श्री प्रेमनिधिजी मिश्र श्रीविट्ठलनाथजीके शिष्य थे।आप महान् प्रेमी संत थे और आगरेमे रहते थे। आप बड़े सुंदर भावसे श्रीश्यामबिहारी जी की सेवा-पूजा किया करते थे।नित्य सुबह होने से कुछ पहले ही श्रीठाकुरसेवा के लिये आप श्रीयमुनाजीसे जल लाया करते थे ।एक बार वर्षाका मौसम था,अधिक वर्षाके कारण जहाँ-तहाँ सर्वत्र रास्तेमें कीचड़ हो गया। तब आपको बड़ी चिंता हुई कि यमुनाजल कैसे लायें? आपने अपने मनमें विचारा कि यदि अंधेरेमे जल लेने जाऊ तो किचड़मे फसने का भय है और यदि प्रकाश होने पर जाऊ तो आने-जाने वाले लोगो से छू जाऊंगा। यह भी ठीक न होगा।अंतमे सोच-विचारकर निश्चय किया कि अन्धेरे में ही जल लाना ठीक है। जैसे ही आप दरवाजे के बहार निकले अंधेरे के कारण रास्ता ठीक से दिखाई नहीं पड रहा था। वही आपने देखा कि एक सुकुमार किशोर बालक मशाल लिए जा रहा है। वहा उजाला अच्छा था,राह देखने में आसानी होगी अतः आप उसके पीछे- पीछे चल दिये।
श्री प्रेमनिधि जी ने अपने मन में समझा कि यह बालक किसीको पहुँचाकर वापस लौट रहा है,कुछ देर के बाद अपने घर की ओर मुड़कर चला जायेगा। पर अच्छा है कुछ देर तो प्रकाश मिलेगा। जितनी देर मिलेगा उतनी देर सही। इस प्रकार आप सोचते रहे ,परंतु वह बालक कही न मुड़कर यमुना माँ के किनारे तक आया। इनके मन में बड़ा आश्चर्य हुआ और उस मशालची लड़के में ही मन को लगाये हुए आपने यमुना जी में स्नान किया, परंतु इनकी बुद्धि को उसके रूप ने अपनी ओर खींच लिया था। स्नानके बाद जलसे भरा घड़ा जैसे ही आपने अपने सिरपर रखा,उसी क्षण पहलेकी तरह वह बालक फिर आ गया और आप उसके पीछे पीछे चले।
जैसे ही आप अपने घर के द्वार पर पहुँचे, वह मशाल धारी लड़का गायब हो गया। वह बालक कहा गया?कौन था?उसे पुनः देखने के लिए आप आतुर हो गए। उसके सुंदर रूप में इनका मन अटक गया था।जैसे तैसे मन को संभालकर श्री भगवान् की सेवा के लिए जैसे ही श्री प्रेमनिधि जी ने पट खोले तो आश्चर्य से देखते ही रह गए।क्या देखा के भगवान् के श्रीविग्रह पर हाथों से तेल टपक रहा था और भगवान् के चरणों पर कीचड़ लगा हुआ है। आप समझ गए की वह किशोर और कोई नहीं हमारे श्यामबिहारी सरकार स्वयं ही थे। प्रभु की कृपा को अनभव करके आपके नेत्रों से आँसुओ की धारा बह निकली।
(२) श्री प्रेमनिधि जी बहुत अच्छी कथा कहते थे। प्रभुके स्वरूपको दरसा देते थे,उससे श्रोताओं के मनको अपनी ओर खींचकर उसमे भगवद्-भक्तिके भावोंको भर देते थे। यह देखकर कुछ दुष्टो के मन में बड़ा दुःख हुआ।ईर्ष्यावश उन्होंने बादशाह से शिकायत करते हुए कहा कि -‘प्रेमनिधि के घरमे अच्छे -अच्छे घराने की बहुत सी औरते हर समय आती-जाती रहती है।’ यह सुनकर बादशाह को क्रोध आया। उसने सैनिको को आज्ञा दी की ‘प्रेमनिधि को फ़ौरन जिस अवस्था में हो उस अवस्था में पकड़ कर लाओ।’
श्री प्रेमनिधि जी जिस समय बड़े प्रेमसे भगवान् को जलपान कराना ही चाहते थे,उसी समय सैनिको ने आकर भक्त जी को बादशाह की कठोर आज्ञा सुनायी और कहा-‘अभी इसी समय हमारे साथ चलो।’ ऐसा कहकर वह शोर मचाने लगे और प्रेमनिधि जी को ले गए। तब श्री ठाकुरजी को जल पिलाये बिना ही भक्त जी बादशाह के समीप गए। बादशाह ने इनसे पूछा – कहो ,क्या मौज बहार है,तुम स्त्रीयों के साथ प्रसंग करते हो,हमारे राज्य में ऐसा अन्याय? यह सुनकर श्री प्रेमनिधि जी ने कहा -‘ मै संसारी विषयों की बात न कहकर भगवान् श्री कृष्णकी ही कथाओ का वर्णन करता हूँ।
जिन स्त्रीयों और पुरुषो को कथा अच्छी लगती है वे स्व इच्छा से आकर कथामे बैठते है। जो किसी कथा रुपी तीर्थमें श्रोताओं को डाटे, फटकारे या निकाले अथवा उनको बुरी निगाह से देखे तो उसे बड़ा भारी दोष लगता है।’ यह सुनकर बादशाह ने कहा- ‘ यह बात तो तुमने ठीक कही ,परंतु तुम्हारे मुहल्ले के लोगोंने ही आकर तुम्हारे सम्बन्ध में मुझसे जो कुछ कहा है,उसके अनुसार तुम्हारा चाल -चलन ,रहन- सहन कुछ और ही है।’
यह कहकर बादशाह ने सैनिको से कहा -‘ तबतक इन्हें हवालात में बंद करदो, अच्छी तरह जाँच-पड़तालके बाद मैं फैसला करूँगा।’ आज्ञा पाकर सिपाहियो ने भक्तजी को कैदखाने में दाल दीया।
भक्तवर श्री प्रेमनिधि जी को कैदखाने में बंद करवाकर बादशाह उस रात जब सोया तो श्रीबिहारी जी ने बाद्शाह के इष्ट मुहम्मद साहेब का भेष बनाकर स्वप्न में बादशाह से कहा-‘ मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है।’ बादशाह ने कहा-‘ आबखाने में जाकर पानी पी लीजिये।’ यह सुनकर प्रभु बहुत रुष्ट हुए बोले – वहाँ कोई प्रेमी भक्त है जो मुझे पानी पिलाये? जब बादशाह ने कुछ उत्तर नहीं दिया तब भगवान् जोरसे उसे डाँटते हुए बोले- ‘अरे मुर्ख! तूने मेरी बात नहीं सुनी।’ बाद्शाह डर के बोला- ‘ जिसे आप आज्ञा दे,वाही भाग्यशाली पानी पिलायेगा ।’ पुनः प्रभुने कहा – ‘ उसे तो तूने कैदखानेमे बंद कर रखा है।’ यह सुनकर बाद्शाह घबड़ाया ,उसके मन में श्री प्रेमनिधि जी के प्रति सद्भाव भर गया और वह नींद से जाग गया।
उसी समय बाद्शाह ने दास- दासियों को आज्ञा दी कि ‘शीघ्र ही श्री प्रेमनिधि जी को कैदखाने से छुड़ाकर लाओ ।’ यह सुनकर सब दास-दासियां दौड़े और श्री प्रेमनिधि जी को लेकर आये। श्री प्रेमनिधि जी को देखते ही बादशाह इनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला – ‘साहब प्यासे है,आब अभी ही जाकर उन्हें पानी पिलाइये ।
वे किसी दूसरे के हाथ से नहीं पीते है,आप पर बहुत ही प्रसन्न है,ठाकुरजी की सेवा के लिये आप मुझसे देश-गाँव तथा इच्छानुसार धन ले लीजिये। सर्वदा अपने प्यारे प्रभु की सेवामें लगे रहिये। अब आपको कभी कोई कष्ट मैं न दूंगा।’
भक्तजी ने कहा -मैं सदा अपने प्रभु में मन लगाये रहता हूँ। भक्तो का धन श्रीभगवान् ही है। धन पाकर बहुतसे लोग नष्ट-भ्रष्ट हो गए है,अतः मैं कुछ भी न लूंगा। बादशाह ने मशालचियो के साथ उसी समय श्री प्रेमनिधि जी को घर भेज दिया। श्री प्रेमनिधि जी ने घर आकर स्नान किया और श्री श्यामबिहारी जी को जल पिलाकर उन्हें प्रसन्न किया तथा स्वयं भी कृपाका अनुभव करके प्रसन्न हुए।
भक्तवत्सल भगवान् की जय।
जय जय श्री सीताराम।।
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[27/11, 21:08] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 15 : पुरुषोत्तम योग
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श्लोक 15.5
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निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ १५- ५
निः-रहित; मान-झूठी प्रतिष्ठा; मोहाः-तथा मोह; जित-जीता गया; सङ्ग-संगति की; दोषाः-त्रुटियाँ; अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में; नित्याः-शाश्र्वतता में; विनिवृत्तः-विलग; कामाः-काम से; द्वन्द्वैः-द्वैत से; विमुक्ताः-मुक्त; सुख-दुःख-सुख तथा दुख; संज्ञैः-नामक; गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं; अमूढाः-मोहरहित; पदम्-पद,स्थान को; अव्ययम्-शाश्र्वत; तत्-उस ।
भावार्थ
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जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्र्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना चाहते हैं, वे उस शाश्र्वत राज्य को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य
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यहाँ पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है । इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है, वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना । चूँकि बद्धजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है, अतएव उसके लिए भगवान् की शरण में जाना कठिन होता है । उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है, उसका स्वामी तो परमेश्र्वर है । जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है, तभी शरणागति की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है । जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है, उसके लिए भगवान् के शरणागत होना कठिन है । अहंकार तो मोह के कारण होता है, क्योंकि यद्यपि मनुष्य यहाँ आता है, कुछ काल तक रहता है और फिर चला जाता है, तो भी मूर्खतावश वह समझ बैठता है कि वही इस संसार का स्वामी है । इस तरह वह सारी परिस्थिति को जटिल बना देता है और सदैव कष्ट उठाता रहता है । सारा संसार इसी भ्रान्तधारणा के अन्तर्गत आगे बढ़ता है । लोग सोचते हैं कि यह भूमि या पृथ्वी मानव समाज की है और उन्होंने भूमि का विभाजन इस मिथ्या धारणा से कर रखा है कि वे इसके स्वामी हैं । मनुष्य को इस भ्रम से मुक्त होना चाहिए कि मानव समाज ही इस जगत् का स्वामी है । जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से मुक्त हो जाता है, तो वह पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगतियों से मुक्त हो जाता है । ये त्रुटि-पूर्ण संगतियाँ ही उसे संसार से बाँधने वाली हैं । इस अवस्था के बाद उसे आध्यात्मिक ज्ञान विकसित करना होता है । उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन करना होता है कि वास्तव में उसका क्या है और क्या नहीं है । और जब उसे वस्तुओं का सही-सही ज्ञान हो जाता है तो वह सुख-दुख, हर्ष-विषाद जैसे द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है । वह ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है और तब भगवान् का शरणागत बनना सम्भव हो पाता है ।
