Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣0️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
एक दिव्य रत्न जटित सिंहासन अंतरिक्ष से उतरा ………
आकाश से सुमन वर्षा होनें लगी थी….देवता जयजयकार कर उठे थे ।
गन्धर्व बजानें और गानें में मग्न थे ………….
श्रीराजाराम की जयजय जय ……..
श्रीराघवेंद्र सरकार की जयजय जय…..
श्रीरघुवंश मणि श्रीरामभद्र की जय जय जय …….
दशकन्धर रावनारि श्रीरघुनाथ जी की जय जयजय ……
श्रीसीतापति राजराजेंद्र श्रीरामचन्द्र जी की जय जय जय …….
इस प्रकार नभ और थल से जयघोष चलता ही रहा ………..
और ये बात तब की है जब मेरे श्रीराम सिंहासन में विराजे और वाम भाग में मैं बैठी थी ………हमारा राज्याभिषेक हुआ था ।
गुरुदेव ! ये भरत आपके चरणों में आज उपस्थित हुआ है ……..मेरी एक प्रार्थना है आप अवश्य स्वीकार करेंगें ।
भरत को प्रणिपात होते हुये जब गुरु वशिष्ठ् जी नें देखा ……तब भाव विभोर होते हुये उठा कर अपनें हृदय से लगा लिया था ।
भरत ! क्या कहनें आये हो ?
गुरुदेव ! मुहूर्त शीघ्र निकालिये ना ! मेरे श्रीराम इस अयोध्या के सिंहासन में विराजमान हो जाएँ …….वो मुहूर्त !
बहुत प्रसन्न हुए थे गुरु वशिष्ठ जी …………और दूसरे ही दिन का मुहूर्त निकाल दिया …………..शुभ कार्य में बिलम्ब क्यों ?
पर ……….कुछ सोच में पड़ गए थे गुरुदेव ।
अब क्या सोच ? अब कैसी सोच ?
भरत ! सातों समुद्र का जल कल तक ही कैसे मिल पायेगा ?
और इतना ही नही……भारतवर्ष की समस्त पवित्र सरिताओं का जल……….भरत ! तुम्हारे अश्वारोही इतनी शीघ्रता ये व्यवस्था नही कर सकते ।
तभी सुग्रीव और हनुमान उधर ही दिखाई दिए भरत को ।
गुरुदेव ! ये हैं श्री हनुमान जी !
…….प्रसन्नता से अपनें पास बुलाया हनुमान को भरत भैया नें ।
हनुमान जी ! एक काम करना है …………और ये काम सिर्फ तुम ही कर सकते हो………भरत भैया नें कहा था हनुमान से ।
आज्ञा करें भैया आप ! हनुमान नें आज्ञा सुननी चाही ।
सातों समुद्र का जल …..और समस्त पवित्र नदियों का जल ……….ये कल ही ब्रह्ममुहूर्त की वेला में – हमें चाहिये ।
भरत भैया ! क्या कल ही राज्याभिषेक है हमारे स्वामी का ?
हनुमान नें उछलते हुये पूछा ।
हाँ हनुमान जी ! कल ही मुहूर्त है इसलिये कल ही होंगें हमारी अयोध्या के राजा – श्रीराम ।
आप चिन्ता न करें भरत भैया !…..मैं अभी घड़ी भर में ही, सातों समुद्र का जल और सरिताओं का जल भी ….. लेकर उपस्थित होता हूँ ……..
आनन्दित होते हुये……हनुमान उड़ चले थे पवित्र जल लानें के लिये ।
कौन नही आया था मेरे श्रीराम के राज्याभिषेक में …………..
समस्त पृथ्वी के शासक उपहार लेकर उपस्थित थे …………
देवराज इन्द्र स्वयं अपनी महारानी शची के साथ सफेद एहरावत हाथी में बैठ कर पधारे थे ।
सरजू के किनारे आगत नरेशों के लिये नई अयोध्या पुरी ही बसा दी गयी थी ………..दूर दूर से कलाकार आये थे ………उन्होंने आकर सम्पूर्ण अयोध्या को ऐसे सजाया था कि देवराज भी चकित थे ।
ऋषि मुनि – जो किसी सांसारिक व्यवहार में उपस्थित न होनें वाले भी, इस “श्रीरामराज्याभिषेक” में उपस्थित थे ….अपनें शिष्यों के साथ ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …………!!!!
🌹🌹जय श्री रा
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३६*
*🤝 १०. व्यवहार 🤝*
_*ममता*_
अब जीव अपना संसार कैसे बनाता है, यह देखिये-
*‘जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसार: जीवकल्पितः।'*
इसका अर्थ यही है कि जीव स्थूलशरीर धारणकर माता के पेट से निकलकर मरणपर्यन्त मेरा मेरा करता हुआ प्राणी-पदार्थों का संग्रह करता है, यह जीव की कल्पना का संसार है। अब देखना है कि यह किस प्रकार होता है। ईश्वर ने पृथ्वी बनायी तो मनुष्य ने, जितनी देख-भाल कर सकता था, उतनी जमीन को घेर लिया और यह खेत मेरा है, यह बाग मेरा है—इस प्रकार का ममत्व बाँध लिया। दूसरे मनुष्य ने भी वैसा ही किया और फिर कहा कि 'यह खेती-बारी मेरी है और वह तेरी है।' फिर ईश्वर-निर्मित जमीन के नन्हे-नन्हे टुकड़ों के ऊपर मनुष्यों ने ईश्वर के उत्पन्न किये हुए साधनों के द्वारा ही घर बनाया और उसमें भी यह घर मेरा, यह घर तेरा और वह दूसरे का- इस प्रकार ममत्व का व्यवहार हो गया। आगे चलकर ईश्वर की ही सृष्टि से पदार्थों को ले-लेकर उनमें विविध रूपान्तर करके अनेक प्रकार के सुख के साधन तथा विभिन्न जाति के दुःख देनेवाले और विनाशकारी साधन बनाये और उनमें भी मेरा-तेरा का व्यवहार चालू हो गया। मनुष्य से नया एक तिनका भी पैदा नहीं हो सकता। सृष्टि में सामग्री है, उसी में रूपान्तर कर-करके वह विविधता की रचना करता है और गर्व करता है कि 'यह मैंने किया।' इस प्रकार ईश्वर के बनाये हुए तत्त्वों में रूपान्तर करके मनुष्य 'मेरे-तेरे' के संसार की रचना करता है- यह बात तो हुई जीव के *पदार्थ संग्रह के विषय की*। अब *प्राणियों का संग्रह* वह किस प्रकार करता है, यह देखना है। जीव जब मनुष्य शरीर धारण करके माता के गर्भ से बाहर निकलता है, तब वह सर्वथा अचेत दशा में रहता है, इसलिये परमात्मा उसकी सँभाल रखने के लिये उसको एक माता प्रदान करता है। बालक कुछ बड़ा होता है, तब उससे परमात्मा पूछता है—'भाई! यह कौन है ?' उत्तर मिलता है—'यह मेरी माँ है।' उसके बाद परमात्मा ने उसी माँ से दो-चार बच्चे और दे दिये और फिर उससे पूछा-'भाई! ये कौन हैं?' जवाब मिलता है—'ये तो मेरे भाई-बहन हैं।' पश्चात् परमात्मा उसका एक स्त्री से ब्याह कराता है और उसके पेट से दो-तीन बच्चे देता है और फिर पूछता है - ‘भाई ! ये कौन हैं?' जवाब मिलता है— 'मैं खुद जाकर इस स्त्री को ब्याहकर लाया था। क्या आपने नहीं देखा सो यों पूछ रहे हो? और फिर मेरी स्त्री के पेट से पैदा हुए बच्चों के विषय में तो पूछना ही क्या है?' इस प्रकार अनादिकाल से जीव प्राणियों का संग्रह करता हुआ चला आ रहा है और जबतक वह ईश्वर की वस्तु ईश्वर को नहीं सौंप देता तबतक उसका भटकना बन्द नहीं होता।
*ईश्वरकृत सृष्टि और जीवकल्पित संसार को एक नाटक की उपमा दें तो ठीक समझ में आ जायगा। सम्पूर्ण नाटक यह ईश्वरनिर्मित सृष्टि है और उसका एक-एक दृश्य जीव-विशेषका संसार है। एक नाटक में अनेक दृश्य होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक जीव का संसार पृथक्-पृथक् होता है। किसी-किसी दृश्य में पाँच आदमी अधिक भी आते हैं और किसी-किसी दृश्य में ऐसा होता है कि दो-चार आदमी उसमें से चले भी जाते हैं। किसी दृश्य में जन्म होता है तो किसी में मृत्यु भी होता है। किसी में लड़ाई होती है तो किसी में उत्सव भी मनाया जाता है। इस प्रकार दृश्यों में विविधता रहती ही है और उनमें घट-बढ़, हानि-लाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान, जन्म-मरण आदि भी होते ही रहते हैं; ऐसा न हो तो उसका नाम नाटक नहीं, परंतु सारे नाटक का विचार करें तो कहीं भी घट-बढ़ आदि द्वन्द्व देखने में नहीं आते; क्योंकि जो घट-बढ़ दृश्यों में दीखती थी, वह सच्ची नहीं थी, परंतु ममता के कारण जीव की अपने-आप कल्पना की हुई थी ।*
ईश्वरकृत सृष्टि कुछ बन्धनकारक नहीं है। वह तो शरीर के निर्वाह में तथा सच्ची समझ प्राप्त करने में सहायक होती है। बन्धनकारक तो है- *'मेरे और तेरे की कल्पना।'* जो ईश्वर का है, उसे *'मेरा'* मानकर संसार रचना करने से बन्धनकारक होता है। इसीका नाम माया है और जबतक जीव माया को नहीं छोड़ता, तबतक उसका जन्म-मरण बन्द नहीं होता।
श्रीतुलसीदासजी कहते हैं- *'मैं अरु मोर तोर तैं माया ।'* यानी 'यह मैं और यह मेरा', 'यह तू और यह तेरा'—यही माया का स्वरूप । *'मैं और मेरा'* छोड़ दे और सब कुछ ईश्वर का है- ऐसा मान ले तो माया के बन्धन से जीव मुक्त हो जाय। श्रीशंकराचार्य कहते हैं कि *'अहं ममेति चाज्ञानम्'*– यानी *'मैं और मेरा'* की कल्पना ही अज्ञान है। अज्ञान अर्थात् अविद्या या माया। ज्ञान-अज्ञान की परिभाषा करते हुए श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि *'मैं और मेरा' यही अज्ञान है* और *'तू और तेरा' यही ज्ञान है*।
श्रुति भगवती भी कहती हैं- *'ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते।'* यानी 'मैं और मेरा' यही जन्म-मरणरूपी बन्धन का कारण है और सब कुछ अपने-आप भी ईश्वर का है, यों मानने का नाम मुक्ति
है।
ममता का अर्थ है *'बन्धन'* और ममता के त्याग का अर्थ है *'भव-बन्धन से मुक्ति।'* ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-49
प्रिय ! कर मेहमानी अब मत चूके, समय न बारम्बार…
( सन्त वाणी )
मित्रों ! वह अत्यंत घना जंगल था, हवा चलती थी
तो सांय सांय की आवाज़ आती थी…नदी अपनी प्रबल धारा में बही जा रही थी…एक विशाल वट का
वृक्ष था …उसकी लटें पृथ्वी को छू रही थीं
…दूर से देखो तो ऐसा प्रतीत होता था कि
कोई सैकड़ों वर्ष पुराने महात्मा साधना में खड़े
हैं …उस वट वृक्ष में कई पक्षियों ने
अपने घोंसले भी बना रखे थे …उस वृक्ष के तने
काफी चौड़े और मजबूत थे ।
मैं गया और वहीं सुखासन में बैठ गया…और अपनी
आँखें मूँद लीं ।
- एक भयानक गर्जना ने मेरे शरीर में सिरहन पैदा
की …ओह ! सिंह ! एक भयानक शेर
….मेरा सम्पूर्ण शरीर काँप गया ।
मैं यहाँ से उठकर भागूँ …नही भागूंगा तो ये
सिंह मुझे खा जाएगा …तो अब मेरे पास उपाय
क्या है ? ….फिर शेर ने दहाड़ मारी
….क्या करूँ मैं ? …ये सिंह अब मेरे
इस शरीर को खायेगा …ये मेरा देह इस शेर
का भोजन बनेगा …।
शेर मुझ से थोड़ी ही दूरी पर था …मैं इधर
उधर जाने की या भागने की चेष्टा भी करता तो
मुझे ये शेर खा ही जाता ।
मैं जीवन और मृत्यु की मीमांसा में लग गया ।
क्यों कि मेरे पास अब बचने का कोई मार्ग नही था
…मरना निश्चित ही था ।
क्या है ये मृत्यु, जीवन का विलोम ? …जहाँ
जीवन है वहीं मृत्यु है …या मृत्यु ही नए
जीवन की शुरुआत है ?
मरना, नए होने की तैयारी है ? क्या है ?
…मरने के बाद जीवन ! फिर जीवन के बाद
मृत्यु ! या फिर जीवन में ही मृत्यु और
मृत्यु में ही जीवन छुपा हुआ है ।
मैं ये सब सोच ही रहा था …क्यों कि जीवन और
मृत्यु के संधिस्थल में , मैं अपने आप को देख
रहा था ।
क्या यही परिवर्तन ही संसार का नियम नही है ?
…जो आज है कल नही है …नव नव …नए
नए नित नूतन ।
मैं देख रहा था …इस परिवर्तन के चक्र को
…गति का एक अनादि , अपार भँवर । मैंने
देखा …उसी चक्र पर , उसी भँवर पर सब नाच रहे
हैं ….अणु, परमाणु, प्रकृति, वन, समुद्र ,
पर्वत, पृथ्वी , ज्ञात अज्ञात …सब ।
अरे नही नही ! आश्चर्य ! कि जिन देवी देवताओं
की हम लोग उपासना करते हैं …मैंने देखा
…वो लोग भी मृत्यु के ग्रास बनते हैं
…हाँ ! हमारी आयु सौ वर्ष है तो उनकी
लाख है …पर लाख वर्ष के बाद में भी तो
उन्हें मरना ही है …है ना ? …ब्रह्मा तक मरते
हैं …जो सम्पूर्ण सृष्टी का निर्माण करने
वाले हैं …वह भी मरते हैं …। मैं ये
क्या देख रहा हूँ …परिवर्तन ।
सब कुछ प्रति पल बदल रहा हैं , सबकुछ डूब और उबर रहा हैं …डूबना मृत्यु और उबरना जीवन …ये कब से है ? ..अनादि और अनन्त युगों से ।
पर जन्म हो और मृत्यु न हो ये कहाँ सम्भव है !
…जहाँ जन्म है मृत्यु भी तो वहीं है
…और जहाँ मृत्यु है …फिर नए जन्म की
शुरुआत … । मेरे मन ने कहा …तो फिर मैं
क्या समझूँ ? कि जीवन और मृत्यु एक ही
सिक्के के दो पहलूँ हैं ? …हाँ …ये
हमारी अज्ञानता ही तो है …कि जीवन को
स्वीकार और मृत्यु को अस्वीकार …।
फिर मेरे मन ने मुझ से ही पूछा …फिर अच्छा
कौन है इनमें से और बुरा कौन है ?…मैंने
अपने ही मन को समझाते हुये कहा …एक को
बुरा कहना और एक को अच्छा कहना ये अज्ञानता
ही तो है …किसे बुरा कहें ?…मृत्यु को ?
…अरे ! मैंने अपने इस छोटे से जीवनकाल में
ऐसे ऐसे लोगों को देखा है जो मेरे सामने रोते
थे …और कहते थे …हमें मृत्यु
आजाये…आप बतायें कि हम कैसे मरें ?
…गौ दान भी किया… पर । …शरीर के
विशेष अंगों ने काम करना बन्द कर दिया था
…बिस्तर में ही शौचादि …जिन्हें वह
अपना मानते थे …वह लोग उन्हें अब पेट भर
के भी नही खिलाते थे …क्यों कि उनका शौच साफ
उन्हें ही करना पड़ता था ।
फिर क्या करें ? …जीवन और मृत्यु को, किसे
त्यागें और किसे स्वीकार करें ? …फिर
मैंने ही स्वयं समाधान किया कि हरि तू कौन
होता है त्याग और स्वीकार करने वाला । तू
कौन होता है …किसी को अच्छा और बुरा बताने
वाला ।
वह शेर अब मेरे और निकट आगया था …और निकट …मेरा शरीर काँप उठा ….अब मैं क्या करूँ ?
…हाँ ! उस गिरधर की दीवानी मीरा को याद
करूँ …हाँ उसके पास भी तो जहरीला काला
नाग छोड़ा गया था …पर उस पगली प्रेम साधिका
मीरा ने क्या किया ? …डरी ? …अरे !
प्रेम के पन्थ में चलने वाला डर कैसे सकता है
…और जो डर गया …वो इस प्रेम के पन्थ में
आएगा ही क्यों ? …इस मार्ग में तो पल पल
मरना है …अपने अहंकार को मरते हुये स्वयं
देखना है ….रोज मरना है …अपने गले
में स्वयं ही छुरा चला कर उस गर्दन को
प्रियतम के चरणों में चढ़ा देना है ….है
हिम्मत ? …नही है ! तो भई रहने दो
…मत ही आओ इस पन्थ में ।
..अपने पास काले नाग को मीरा ने देखा था
…काला …ओह ! काला तो मेरा गिरधर है
…तो क्या ये मेरा गिरधर ही है …दौड़
पड़ी मीरा …और उस काले सर्प को जाकर अपने
गले से लिपटा ली थी ।
अब वह सिंह मेरे पास आरहा था …धीरे धीरे
…उसकी पग चांप मुझे सुनाई दे रही थी …वो
आया …और पास आया … ।
मैंने घबराकर अपनी आँखें जैसे ही खोलीं …
ओह ! मेरे आँखों से अश्रु छलक पड़े
…सामने मुस्कुराते हुये मेरे पागलबाबा
खड़े थे…और मेरे पीछे मेरी प्यारी मित्र
गौरांगी । मैंने देखा … ओह ! मैं कुञ्ज में ही था ।
बाबा ! ये क्या लीला है ? …जीवन में ही
मृत्यु छुपी है …और मृत्यु में ही जीवन के
बीज । साधक हो तो निडर बनो ।
मौत तो हर क्षण आरही है …हर क्षण मर ही
रहे हो …पर एक तत्व है जो एक रस है
…जो न मरता है …न जन्म लेता है …
बाबा ने कहा ।
गौरांगी ! आगे आई मुस्कुराती हुयी …हरि जी !
वह तत्व है …प्रेम तत्व …जो सदैव एक
रस है …वह प्रेम तत्व है …उसी में
स्थित हो जाना है …उसी प्रेम तत्व में मिट
जाना है ।
गौरांगी मेरे पास आई …और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे उठाया …और बोली …चलो ! देखो ! इन खिले
हुये फूलों को …शाम तक मुरझा जायेंगे
…पर शाम तक ये जीएंगे …हरि जी !
ये शाम तक मुस्कुराएंगे …खिलखिलायेंगे
…हरि जी ! इन्हें परवाह नही है
…कोई देखे या न देखे । ये है प्रेम !
…ये है प्यार ।
हरि जी ! ये फूल शाम तक मरेंगे …पर इन्हें
शाम की चिन्ता नही है …मरेंगे तो मरेंगे
यही है प्रेम !…इसी को कहते हैं प्रेम ।
प्रेम निडर बना देता है …प्रेम में एक
निर्भयता का जन्म होता है …प्रेमी मौत को भी
अपने प्यारे के मिलन की सूचना कह कर चूम लेता है ।
बाबा दूर खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे …
“शून्य मरे, अजपा मरे अनहद हूँ मरी जाए
पर राम सनेही ना मरे, कहे कबीर समुझाय”
Harisharan
