[2] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣5️⃣3️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
पर तुम्हारे जनकपुर जैसा नही है ……..इतना कहकर मेरी आँखों में देखा था ……….मेरे हाथ को चूमा ।……वहाँ बैठें ? मुझे इशारे में कहा । सामनें सरोवर था उसमें हंस खेल रहे थे ।
पास में ही एक कुञ्ज था ……….उस कुञ्ज की दीवारों पर चित्रकारी की गयी थी……फूलों के रँग से………….
उस कुञ्ज में मुझे लेकर गए मेरे प्रीतम ……………..
फूलों का ढ़ेर रखा था वहाँ……..हँसते हुये उन फूलों को मेरे ऊपर डालनें लगे थे……..एक गुलाब की पंखुड़ी मेरे होठों से लग गयी ……..”इस पंखुड़ी से कोमल तो तुम्हारे अधर हैं वैदेही”
मैं अपनें “प्राण” के हृदय से लग गयी थी……वो मेरे केश से खेलनें लगे थे…..मेरे केश को उलझा देते फिर सुलझानें बैठ जाते …..
उर्मिला दुष्ट है ……..उसनें अबीर भी रख दिया था……उसनें गुलाब जल से भरी पिचकारी भी रख दी थी ।
मेरे कपोल में अबीर लगा दिया – मेरे प्रीतम नें ।
छुईमुई की तरह सिकुड़ गयी थी ………मुझे अपनें हृदय से लगा लिया …………..हँसे मेरे नाथ ………पिचकारी से मुझे ……..मैं मना करती रही ……..पर मेरे ऊपर पिचकारी का सारा रँग डाल दिया ।
मैं तो लाज के मारे उन्हीं के हृदय से लग गयी …….उन्हीं की भीगी पीताम्बरी में अपनें मुँह को छुपा लिया ।
मोर नाचनें लगे थे ………कोयल बोल उठी थी …………हंस और हंसिनी का जोड़ा उन्मुक्त विहार करनें लगा था ।
तोता – मैना चीख चीख कर हमारे इस “सुरत केलि” को बता रहे थे ।
मेरे अधरों पर उनके अधर जब पड़े …………वीणा झंकृत हो उठी ।
मेरी करधनी बज उठी ………..मेरे पाँव के पायल बोल उठे ।
हम एक हो गए …….द्वैत समाप्त हो गया था……..कौन वैदेही और कौन राम ? राम वैदेही थे और वैदेही राम ।
आर्य ! मैं बहुत देर के बाद बोली थी ……………
हाँ वैदेही ! मेरे अरुण कपोल को छूते हुये बोले ।
मैं अपनें पुत्रों को वन में जन्म दूंगी ………..आर्य ! उस सात्विक वातावरण में ! जहाँ ऋषि मुनि रहते हैं ……..जहाँ की ऊर्जा पूर्ण आध्यात्मिक है ……..वहाँ !
कितनें दिव्य होंगें आपके पुत्र ……..आर्य !
इस बात का कोई उत्तर नही दिया था मेरे श्रीराम नें …….हाँ शून्य में तांकनें लग गए थे………नेत्र सजल हो उठे थे मेरी बातें सुनकर ।
फिर मुझे अपनें प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया था ।
शेष चरित्र कल ……
🌹जय श्री राम 🌹
[20/07, 21:15] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ४७*
*🤝 २. संसार 🤝*
_*संसार में सार क्या है*_
हमने जिस बात को इतना विस्तारपूर्वक कहा है, उसी को श्रीगौडपादाचार्य जी ने एक ही श्लोक में समझाया है-
*आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।*
*वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः॥*
भाव यह है कि नाम और रूप जैसे वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व नहीं होते, वैसे ही वस्तु का नाश होनेपर भी नहीं रहते। वे मध्यकाल में दीखते हैं, तो भी उनको मिथ्या ही जानो। *'अँगूठी'* नाम और उसका रूप सुनार के द्वारा गढ़े जाने के पूर्व नहीं थे, बीच में दिखायी दिये हैं और अँगूठी को गला देने के बाद वे अदृश्य हो गये। इसलिये बीच में जो अँगूठी नाम और उसकी आकृति दीख पड़ते हैं, उनको मिथ्या समझना चाहिये; क्योंकि उनमें स्वर्ण ही सत्य है और भी स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि वस्तु मध्य में सत्य-सी दीख पड़ती है, क्योंकि हम उसका उपयोग करते हैं; परंतु तात्त्विक दृष्टि से वह सत्य नहीं बल्कि कल्पित होने के कारण मिथ्या है, अर्थात केवल व्यवहार कालव प्रतीत होती है, इसीलिये उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है। दुष्यन्त देकर और भी समझाते हुए वे कहते हैं-
*स्वप्नपाये यथा दृष्टे गन्धर्वनगर यथा।*
*तथा विश्वमिदं दृष्टं वेदान्तेषु विचक्षणैः ॥*
अर्थात् स्वप्न के पदार्थ, इन्द्रजाल का खेल, बादलों में दीखनेवाला गन्धर्वनगर तथा दूसरी अनेकों आकृतियों-जैसे दीखती हैं, तथापि मिथ्या ही होती हैं, केवल देखने मात्र को होती हैं; उसी प्रकार यह नाम-रूपात्मक विश्व-प्रपंच जो दीख पड़ता है, मिथ्या ही है-ऐसा तत्त्वज्ञानी समझते हैं।
इसी प्रकार सृष्टि के उत्पन्न होने के पहले एक परमात्मा ही था। उसको एक से अनेक रूप होकर रमण करने की इच्छा हुई और इसलिये उसने अपने ही भीतर से इस संसार की रचना की। *'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्'* - अर्थात् अपने में से जगत् को रचकर उसमें स्वयं जीवरूप से प्रवेश किया। अतएव यह निश्चित हो गया कि परमात्मा इस सृष्टि का उपादान कारण है; क्योंकि हम पहले देख चुके हैं कि जिसमें से जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह उसका उपादान कारण होती है। अब यहाँ यह विचारने की बात है कि अंगूठी बनाने में सोना और सुनार इन दोनों की जरूरत पड़ती है, घड़ा बनाने के लिये मिट्टी और कुम्भकार दोनों चाहिये तथा वस्त्र के लिये सूत और जुलाहा दोनों चाहिये। अतः जिससे जो वस्तु बनती है, वह उसका उपादान-कारण तथा जो बनाता है, वह निमित्त-कारण कहलाता है। यहाँ इस सृष्टि की रचना में यदि ईश्वर को उपादान कारण मानें तो फिर निमित्त कारण क्या है ? उसका भी पता लगाना चाहिये। इसका स्पष्टीकरण यह है कि ईश्वर स्वयं ही उपादान-कारण और निमित्त-कारण दोनों है। जैसे मकड़ी अपने शरीर में से लार निकालकर जाला बनाती है, अतएव उसका निमित्त और उपादान दोनों कारण मकड़ी ही होती है, उसी प्रकार ईश्वर भी जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। अर्थात् उपादान भी स्वयं ही है और उपादान में से सृष्टि रचनेवाला भी वह स्वयं ही है।
*हम पहले सिद्ध कर चुके हैं कि किसी भी वस्तु में साररूप तो उसका उपादान-कारण ही होता है, उपादान-कारण से कार्य की भिन्न सत्ता नहीं होती। जैसे अँगूठी में सोना, घड़े में मिट्टी तथा वस्त्र में सूत ही सार है, वैसे ही इस संसार में साररूप इसका उपादानकारण ही होना चाहिये और वह है ईश्वर या परमात्मा। जैसे वस्तु में से उपादान निकाल लेनेपर कुछ भी शेष नहीं रहता, उसी प्रकार संसार में से यदि ईश्वर को हटा दिया जाय तो संसार नहीं रह सकता।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
