Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
मैं कुछ दिन रही लंका में ……….रावण का वध होना ही चाहिये था ……..उसनें मेरे पति की हत्या जो की …….मैं यही चाहती थी ।
सूर्पनखा बोलती गयी …………………….
पर उफ़ ! एक गलती हो गयी ………मुझे राम से प्रेम हो गया ।
मैं सोती भी थी तो मेरे सपनें यही राजिव नयन ……..दिखाई देते थे ।
भैया विभीषण ! आपको पता ही है ……मैं बचपन से ही जिद्दी थी ……..जिद्द के कारण ही तो मैने विद्युत्जिव्हा से विवाह किया था …..मेरा भाई रावण तो मुझे मना करता रहा ……..पर मेरी भी जिद्द थी ।
फिर तुम कहाँ गयीं ? बहन ! तुमनें क्या किया फिर ? तुम तो लंका से चली गयीं थीं ? विभीषण जी नें कई प्रश्न किये थे ।
भैया ! मैं फिर राम को पानें के लिये मचल उठी ………मुझे राम ही चाहिये ……….पर राम को पाना इतना सरल कहाँ है !
मुझे महर्षि परसुराम नें समझाया ………….वो भगवान विष्णु के अवतार हैं …………..तो क्या मैं राम को नही पा सकती ?
क्यों नही पा सकतीं …….तप बहुत बड़ी चीज है …….तप करो …….और अगर जिद्द ही है तो अनंतकाल तक करती रहो …..तप का फल भगवान देते ही हैं ………….मुझे महर्षि नें समझाया ।
भैया ! मैं चली गयी तप करनें ………….पर कुछ ही समय बाद मुझे ऐसा आभास होनें लगा …….कि रावण मारा गया है ……..और राम सपत्नीक अयोध्या लौट रहे हैं ……मेरा हृदय कहाँ माननें वाला था …….मैं राम को देखना चाहती थी……बस मैने देख लिया ….आहा ! उसनें आह भरी ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……..!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-109”
*( नाग सुन्दरियों द्वारा कन्हैया कौ स्तवन )*
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……..
मोकूँ पतौं नही हो कि नाग सुंदरियाँ इतनी सुन्दर होमें !
( साधकों ! नाग एक जाति है ….इस जाति के लोग आज से छ सौ वर्ष पहले तक अफ़्रीका के जंगलों में पाए गए थे …लेकिन उसके बाद ये कहीं दिखाई नही दिए । लगता है कि ये जाति भी विलुप्त हो गयी । महाभारत काल में इनका स्पष्ट उल्लेख है और इस जाति के लोगों ने महाभारत युद्ध में भाग भी लिया था । ये नाग सुन्दर होते हैं , सर्प का रूप तौ इनका है ही लेकिन मनुष्य के रूप में भी ये आजाते हैं …यानि इच्छाधारी । इनकी पत्नियाँ अनेक होती हैं और वो भी इच्छाधारी । ये बहुत सुंदर होती हैं । शत्रुबोध इनका बड़ा ही प्रवल होता है । अस्तु ।)
मैंने हृद के बाहर तै ही देख लियौ हो कि नाग सुंदरियाँ मेरे कन्हैया के आगे हाथ जोड़ के ठाढी हैं । उनकी बोली हूँ बहुत मधुर ही ….अपने पति कूँ मरते देख अपने अपने बालकन कूँ आगै करके हाथ जोड़के कहवे लगीं ….डर रहीं हैं …क्यों कि उनकौ महाबली पति आज निरीह सौ है गयौ है ….कालिय …जानें पक्षी राज गरुण तै टक्कर लियौ हो …जे कोई साधारण बात तौ है नही …गरुण तै भिड़नौं ….कोई सामान्य बात है ? ऐसौ महाबलि कालीय आज रक्त तै भींग गयौ है ……बाके मुख तै रुधिर बह रह्यो है …कन्हैया अभी भी बाके ऊपर चोट कर रहे हैं अपने चरण के प्रहार तै । रक्त की बूँदे उछल के कन्हैया के चरणन में पड़ रहीं हैं ….ऐसौ लग रह्यो है काहूँ ने रक्तवरण के पुष्प मेरे कन्हैया के चरण में चढ़ाये दिए हैं ।
नाग सुंदरियन के नेत्रन में अश्रु है …..अंगन के वस्त्र-भूषण स्खलित है गए हैं । वेणी खुल गयी है ….आकुलता में देह सुध छूटती जाय रही है …बालक साथ में हैं नाग सुन्दरियन के ।
अब तौ आगे आय के , अंजलि बाँध के , कन्हैया के अरुण चरणारविन्द में दृष्टि गढ़ाय के नाग वधूएं बोलीं – हे नन्दनन्दन ! मेरे पति नैं पाप कियौ है ….इनते महत अपराध बन गयौ है ……आपकूँ मारवे कौ प्रयास ? नाग सुंदरियाँ यहाँ रुक जामें , अपने पति कूँ देखें ….फिर बोलें ……आपते तौ काल हूँ डरे है …..आप कालन के काल नन्द लाल हो ……हे नन्द सुवन ! हमारे पति कूँ जीवन दान देओ । क्यों कि अब आप ही हो ….आप ही जीवन दान देय सकौ हो ….या लिए हम सब आपते प्रार्थना कर रही हैं ….कि हमारे पति कूँ छोड़ देओ । कन्हैया तब हूँ कछु नही बोले …तौ सब नाग सुन्दरियाँ आगे कहवे लगीं ।
हे श्याम सुन्दर ! एक बात तौ माननी पड़ेगी …..कि आपके दर्शन की बात तौ बहुत दूर की है …आपकौ स्मरण हूँ ….पूर्व जन्म में कोई अच्छों आचरण कीयौ होय, तब स्मरण आवै है । अब नाथ ! स्मरण के ताईं हूँ आचरण शुद्ध चहिए ….तौ विचार करौ ….आपके दर्शन हमारे पति कूँ है रहे हैं …..नही नही , दर्शन ही नही है रहे हैं ….स्पर्श हूँ मिल रह्यो है ………….
जे कहते भए नाग सुंदरियन के नेत्रन तै अविरल अश्रु प्रवाह चल पड़े हे । कछु देर तक मौन रहीं सब नाग सुंदरियाँ …..फिर बोलीं ….हे कृष्ण ! हम तौ नाग जाति के लोग हैं ….हम नहीं जानें हैं आपकौ प्रताप ……आपकी महिमा तौ वेद जानें …ब्रह्मा जाने …भगवान शंकर जानें …सनकादि ऋषि जानें …..नाग सुंदरियाँ कहें हैं …..नाथ ! जे सब जानें आपके चरणन की महिमा …आपके चरणन कूँ चाहवे के ताईं तौ जे सब आपकी तप-साधना में सदैव लीन रहे हैं …..लेकिन इनकूँ आपके चरण नही मिलें हैं …….आपके चरणन के दर्शन नही मिले हैं …..लेकिन श्याम सुन्दर ! अपने अश्रुन कूँ पोंछ के बोलीं ……हमारे पति ने ऐसौ कौन सौ आचरण कीयौ कि आपके चरण मिल गए ! और चरण मिले ही नही हैं ….चरणन कौं छाप हूँ लगाय के आपने हमारे पतिन कूँ अपनौं बनाय लियौ ! नाग सुंदरियाँ कहें ….आपकी सदाहीं जय हो ।
कछु देर के ताईं मौन है गयीं नाग सुंदरियाँ ……वो बस कन्हैया के रूप कूँ देखके सब भूल गयीं हैं…..फिर जब अपने पति कालिय कौ कराहनौं सुन्यो ….तब फिर बोलवे लगीं ……हमारे पति के सारे पाप धो दिए आपने ……हमारे पति तौ महातमोमय जीवन में पड़े हे……तमोमय जीवन वारे जीव कूँ आप मिलो हो का ? नही …..आपकूँ मिलवे के ताईं तौ सत्व गुण सम्पन्न होनौं आवश्यक है ….रज और तम वाले जीव तौ तुमते बहुत दूर हैं …..फिर घोर रज और तम कौ मिश्रण हमारे पति ……इनकूँ तौ नरक ही मिलतौ …..लेकिन आपने कब आचरण देखें हैं , आपने कब शुद्ध और अशुद्ध के गुण अपने जनन में देखें हैं ……हे प्रिय ! आपतौ बस कृपा करनौं जानौं हो …आपने अब तक बस कृपा ही करी है …..आप साधना तै नही मिलौ हो …आप तौ केवल कृपा तै ही मिलौ हो ……और कृपा कौन पे होवैगी …जे हूँ पतौ नही है ……या लिए ऐसे करुणा के अवतार श्रीकृष्णचन्द्र जु …..आपकी जय हो …जय हो ….जय …….
जे कहते भए नाग सुंदरियाँ साष्टांग लेट गयीं ……………
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - १९*
*🤝 ६. व्यवहार 🤝*
_*शोक-मोह की निवृत्ति*_
यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान् ।
तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः ॥
मनुष्य सम्बन्ध बढ़ाता जाता है अपने सुख के लिये, परंतु उसका परिणाम उलटा ही होता है। कामना की तृप्ति के लिये, 'यह मेरा है, वह मेरा है'–कहते हुए वह प्राणी-पदार्थों का संग्रह करता रहता है; परंतु कौन जानता है कि उनसे लेशमात्र भी सुख मिलता होगा? अवश्य ही संयोग-वियोगजन्य शोक-मोह के प्रसंग तो बढ़ते ही जाते हैं। जब प्राणी-पदार्थों का संयोग होता है, तब क्षणिक सुख की अनुभूति होती है; परंतु वियोग होनेपर दुःख दसगुना होता है। वह मोहवश भूल जाता है कि जिसके साथ संयोग हुआ है, उसके साथ वियोग हुए बिना नहीं रहेगा; फिर या तो प्राणी-पदार्थ उसे छोड़कर चले जायँ या उसे उन सबको छोड़कर चले जाना पड़े। इस प्रकार संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को आवश्यकता के अनुसार ही सम्बन्ध जोड़ना चाहिये, उसे बढ़ाते नहीं जाना चाहिये।
आज हमें शोक-मोह के कारणों के विषय में समझने के लिये प्रयत्न करना है, जिससे इनकी निवृत्ति की जा सके। मोहका मूल अर्थ है- अज्ञान। गीता का उपदेश पूरा हो जानेपर अर्जुन ने भगवान् से कहा था- *'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ।'* हे प्रभु! मेरा अज्ञान दूर हो गया है और ज्ञान का उदय हो आया है। प्राणी-पदार्थों में जो आसक्ति होती है, उसको भी मोह कहते हैं; क्योंकि आसक्ति अज्ञान के कारण होती है। मनुष्य अपना स्वरूप नहीं जानता तथा प्राणी-पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भी नहीं जानता। इसीलिये उनमें सुख की आशा से आसक्त हो जाता है और ममत्व का सम्बन्ध जोड़ लेता है। यदि वह अपने स्वरूप को जानता होता कि ‘मैं तो सुखस्वरूप हूँ, इसलिये मुझे सुख के लिये बाहर के पदार्थों की आवश्यकता नहीं है तो वह किसी के साथ ममत्व का सम्बन्ध नहीं जोड़ता तथा यदि उसको यह भी ज्ञात होता कि किसी भी प्राणी-पदार्थ में सुख प्रदान करनेकी शक्ति नहीं है तो भी वह उनको प्राप्त करने का यत्न नहीं करता। इस प्रकार मनुष्य दोनों ओर से अज्ञान है, इस कारण वह प्राणी-पदार्थों में आसक्त हो जाता है और सुख के बदले दुःख भोगता है। 'मुह' धातु से मोह शब्द बनता है। इसलिये इन दोनों अर्थों की अभिव्यक्ति करते हुए उसके दो भूतकृदन्त होते हैं। एक तो मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी या मूर्ख; और दूसरा मुग्ध यानी आसक्त।
*इस प्रकार अज्ञान के कारण आसक्ति होती है और इससे मनुष्य प्राणी-पदार्थों को प्राप्त करने का यत्न करता है। न मिलने पर या मिलने के बाद उनका वियोग हो जानेपर वह शोक करता है और मिलनेपर अधिक प्राप्त करने का लोभ जाग्रत् होता है। लोभ का तो शमन होता नहीं, अतएव ज्यों-ज्यों अधिक प्राप्त होता जाता है, त्यों-ही-त्यों लोभ की मात्रा भी बढ़ती जाती है। इस प्रकार मनुष्य आशा-तृष्णा के दलदल में फँस जाता है और उसका सारा ही जीवन 'और अधिक और अधिक' की हाय-तौबा में ही बीत जाता है।*
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - १९*
*🤝 ६. व्यवहार 🤝*
_*शोक-मोह की निवृत्ति*_
यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान् ।
तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः ॥
मनुष्य सम्बन्ध बढ़ाता जाता है अपने सुख के लिये, परंतु उसका परिणाम उलटा ही होता है। कामना की तृप्ति के लिये, 'यह मेरा है, वह मेरा है'–कहते हुए वह प्राणी-पदार्थों का संग्रह करता रहता है; परंतु कौन जानता है कि उनसे लेशमात्र भी सुख मिलता होगा? अवश्य ही संयोग-वियोगजन्य शोक-मोह के प्रसंग तो बढ़ते ही जाते हैं। जब प्राणी-पदार्थों का संयोग होता है, तब क्षणिक सुख की अनुभूति होती है; परंतु वियोग होनेपर दुःख दसगुना होता है। वह मोहवश भूल जाता है कि जिसके साथ संयोग हुआ है, उसके साथ वियोग हुए बिना नहीं रहेगा; फिर या तो प्राणी-पदार्थ उसे छोड़कर चले जायँ या उसे उन सबको छोड़कर चले जाना पड़े। इस प्रकार संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को आवश्यकता के अनुसार ही सम्बन्ध जोड़ना चाहिये, उसे बढ़ाते नहीं जाना चाहिये।
आज हमें शोक-मोह के कारणों के विषय में समझने के लिये प्रयत्न करना है, जिससे इनकी निवृत्ति की जा सके। मोहका मूल अर्थ है- अज्ञान। गीता का उपदेश पूरा हो जानेपर अर्जुन ने भगवान् से कहा था- *'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ।'* हे प्रभु! मेरा अज्ञान दूर हो गया है और ज्ञान का उदय हो आया है। प्राणी-पदार्थों में जो आसक्ति होती है, उसको भी मोह कहते हैं; क्योंकि आसक्ति अज्ञान के कारण होती है। मनुष्य अपना स्वरूप नहीं जानता तथा प्राणी-पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भी नहीं जानता। इसीलिये उनमें सुख की आशा से आसक्त हो जाता है और ममत्व का सम्बन्ध जोड़ लेता है। यदि वह अपने स्वरूप को जानता होता कि ‘मैं तो सुखस्वरूप हूँ, इसलिये मुझे सुख के लिये बाहर के पदार्थों की आवश्यकता नहीं है तो वह किसी के साथ ममत्व का सम्बन्ध नहीं जोड़ता तथा यदि उसको यह भी ज्ञात होता कि किसी भी प्राणी-पदार्थ में सुख प्रदान करनेकी शक्ति नहीं है तो भी वह उनको प्राप्त करने का यत्न नहीं करता। इस प्रकार मनुष्य दोनों ओर से अज्ञान है, इस कारण वह प्राणी-पदार्थों में आसक्त हो जाता है और सुख के बदले दुःख भोगता है। 'मुह' धातु से मोह शब्द बनता है। इसलिये इन दोनों अर्थों की अभिव्यक्ति करते हुए उसके दो भूतकृदन्त होते हैं। एक तो मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी या मूर्ख; और दूसरा मुग्ध यानी आसक्त।
*इस प्रकार अज्ञान के कारण आसक्ति होती है और इससे मनुष्य प्राणी-पदार्थों को प्राप्त करने का यत्न करता है। न मिलने पर या मिलने के बाद उनका वियोग हो जानेपर वह शोक करता है और मिलनेपर अधिक प्राप्त करने का लोभ जाग्रत् होता है। लोभ का तो शमन होता नहीं, अतएव ज्यों-ज्यों अधिक प्राप्त होता जाता है, त्यों-ही-त्यों लोभ की मात्रा भी बढ़ती जाती है। इस प्रकार मनुष्य आशा-तृष्णा के दलदल में फँस जाता है और उसका सारा ही जीवन 'और अधिक और अधिक' की हाय-तौबा में ही बीत जाता है।*
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-32
प्रिय ! मो सम दीन न दीनहित तुम समान रघुवीर …
(श्री तुलसी दास जी)
मित्रों ! परसों की एक घटना जो मैं लिख नही
पाया …पर आज लिख रहा हूँ …।
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा …मैंने अपने
पागल बाबा से कहा …बाबा चलिये ना …रथारूढ़ भगवान श्री जगन्नाथ प्रभु के दर्शन करलेंगे …बाबा
आनंद आएगा …बाबा ने तुरन्त एक चादर ओढ़
लिया और मुझ से बोले …चलो । मैं और
बाबा होकर निकल पड़े …तो बाबा स्वयं ही
बोले …गौरांगी को भी ले लो …नही तो
बेचारी दुःखी हो जायेगी । मैंने गौरांगी को
फोन करके कहा …जल्दी आजा…श्री जगन्नाथ
प्रभु के रथ यात्रा में जा रहे हैं …गौरांगी
जो पहनी हुई थी …वही पहनकर आगई…।
हम लोग शाम के 5 बजे पहुँचें…भीड़ बहुत
थी…रथ के आने में अभी विलम्ब था…तो
बाबा बोले …चलो यमुना जी के किनारे बैठते
हैं.. । तभी …हल्की हल्की बुँदे पड़ने लगीं…हवा
शीतल हो गयी ..।
बाबा बैठे और बोले – देखो ! क्रोध हमारे
भजन को नष्ट कर देता है …क्रोध करने से हमारा
हृदय कठोर हो जाता है …और हृदय के कठोर होते
ही …भजन का तत्व हमारे पास से चला जाता है
…हाँ …इसमें तर्क देने की जरूरत
नही है …क्रोध से हृदय कठोर होता ही है
…क्रोध से कभी भी …किसी का भी हित नही
हुआ । हृदय को कोमल बनाओ …सब कुछ
छोड़ो और इस पर ध्यान दो कि हमें अपने हृदय को
कोमल बनाना है ।
बाबा बोले …अरे ! भगवान को अपने हृदय
में बैठाना चाहते हो …भगवान को हृदय में
बैठाकर उनका ध्यान करना चाहते हो …पर ऐसे
कैसे बैठेंगे भगवान । तुम्हारा हृदय तो कठोर
है …तुम्हारा हृदय तो पाषाण है…न सरलता
है …न सहजता है …न प्रेम है …न करुणा है
…न दया न मैत्री …। है तो बस
कामना की आँधी …और वही कामना की आँधी जब
चलती है तो क्रोध का जन्म होता है
…और क्रोध के उत्पन्न होते ही …हमारे
हृदय की सरलता …तरलता सब जलने लग जाती है
…। बाबा बोले तुम्हें पता है …कितनी
मुश्किल से तो इस हृदय को सजाया था …कि
“आएंगे मेरे घर राम आज मेरा मन गा रहा है”
पर जिस सरलता , कोमलता को देख कर भगवान आने वाले थे …उस हृदय की सरलता को हमने क्रोध से कठोर बना दिया ।
बाबा कैसे क्रोध पर काबू पाएं ?…बाबा बोले
…जब भी क्रोध आये तो भगवान को मन ही मन
पुकारों…हे नाथ ! इस क्रोध से बचा
लो…पर इसके लिए जागरूकता चाहिए …मन
के प्रति जागरूकता । और ये धीरे धीरे
होगा , जल्दबाज़ी में नही होता । साधना में धैर्यता की परम आवश्यकता होती है ।
बाबा ये हरि जी ! अब व्रत ले रहे हैं …कह
रहे हैं कि एक समय ही भोजन करूँगा , बाबा !
आप समझाइये ना ! गौरांगी बोली ।…बाबा बोले
…देखो ! ये व्रत , ये उपवास , ये
तीर्थयात्रा , ये अनुष्ठान …सब अच्छे
हैं…करने चाहिए…पर ये साधन प्रेम के
साधकों के लिए नही है …हम साधकों के लिए नही
है ..। बाबा बोले …देखो ! हर मार्ग के अपने
नियम होते हैं अपने कानून होते हैं …।
“प्रेम साधना” का एक ही नियम है …चित्त को
एक मात्र अपने प्यारे में लगाना …मन को
“प्रेम मार्ग” में प्यार से लगाते चलना
…। हमारा सम्पूर्ण अन्तःकरण एक मात्र
भगवत् चिंतन के अलावा और कुछ न करे । कार्य
करो …करना पड़ेगा …कर्म करो …करना पड़ेगा
…गाड़ी में बैठे हो …तो तेल डालना
ही पड़ेगा …ऐसे ही जब इस शरीर रूपी गाड़ी
में हम लोग बैठे हैं …तो भोजन रूपी डीजल या
पेट्रोल डालना ही होगा …बाबा बोले फिर
कभी कभी ऑयल भी डालना पड़ता है …ऐसे ही इस शरीर रूपी गाड़ी में दूध दही …घी डालिये
…पर इस शरीर को “मैं” मत समझ लेना …इस
गाड़ी का ख्याल हमें इसलिए रखना है कि ये गाड़ी
हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचाएगी । गाड़ी हम
नही हैं …गाड़ी में बैठे हम जरूर हैं । बाबा बोले – हरि ! ये एक समय भोजन करूँगा , ये संकल्प तुम क्यों ले रहे हो ? …अरे ! संकल्प लेना है तो ये संकल्प लो , कि मैं हर क्षण उसको याद करता रहूँगा … कोई क्षण उसकी याद के बिना नही गुजरेगी …
यह व्रत लो …अरे ! भोजन नहि करूँगा …क्यों नही करोगे ?
इससे क्या सम्बन्ध है साधना का ? …उसका प्रसाद छोड़ दोगे ? …उस की जूठन त्याग दोगे ? …नही हरि ! ऐसे करने से तनाव आएगा …और सहज साधना छूट जायेगी …ऐसा मत करो …।
वैराग्य कैसे होगा संसार से ? …मैंने बाबा से पूछा –
बाबा कुछ सोच कर बोले –
साधक को ये बात अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि यहाँ कोई किसी का नही है…कोई किसी का नही होता ।
बाबा बोले …मेरी दोनों किडनी जब फ़ेल हो गयीं थीं
…और मैं एक बड़े से हॉस्पिटल में अपना इलाज करा रहा था…उस समय मेरे मन आया कि मेरे परिवार के लोग तो मुझे देखने जरूर आएंगे …और मैं पूछता भी था …डॉ. से …कोई मेरे परिवार का आया ? …पर जब कोई नही आया तो मैं अपने मन के प्रति जागरूक हो गया …क्यों आएगा कोई ?
…हाँ मैं 1 लाख रूपये महीने के कमाता तो
लोग आते …पर अब क्यों आएंगे ? …मैं तो
बाबा जी हूँ …मेरे पास तो पैसे हैं हीं नहीं
…क्यों आएंगे मेरे पास… मेरे परिवार
वाले । बस तभी से मुझे संसार से वैराग्य
हो गया । समझ चाहिए…विवेक चाहिए तब वैराग्य होता है ।
*तभी बाजे गाजे बजने शुरू हो गये …जय जयकार की ध्वनि होने लगी…बाबा और हम लोग उठे और चल पड़े उस दिव्य रथ की ओर …बाबा का सबने आदर किया…बाबा आगे जाकर रथ के सामने खड़े हो गये …और अपलक नेत्रों से श्री जगन्नाथ
भगवान के दर्शन करने लगे…उच्च स्वर
में प्रार्थना करने लगे …”पतितोहं” हे नाथ !
मैं पतित हूँ …”पापकर्माहम” मैं पापी हूँ
…मैं अधम हूँ…हे नाथ ! मुझे सम्भालों ।
बाबा की स्थिति श्री चैतन्य महाप्रभु की तरह हो गयी
थी …नेत्रों से जल प्रवाहित हो रहे थे ।
एक विद्वान थे …जो बाबा से अकारण ईर्ष्या
करते थे …वो बाबा के लिए सबके सामने
बोले …ये जो कह रहे हैं वो ठीक ही कह रहे
हैं …ये सच में पापी, अधम , और पतित हैं ।
बाबा ये सुनते ही आनंदित हो गये …और
रथारूढ़ श्री जगन्नाथ भगवान से बोले …देखा !
प्रभु ! मेरी बात का आपको भरोसा नही था ना
…अब ये मेरी गवाही देने वाले भी आगये
…अब तो मान लो …कि मैं पापी ही हूँ ।
बाबा इतना बोलकर “जगन्नाथ स्वामी नयन पथगामी
भवतुमे”।
बाबा आवेश में आकर वहीं पर गिर पड़े ।
सब लोगों ने उच्च स्वर से…भगवन् नाम का
गान किया तब जाकर मूर्च्छा कुछ हटी …।
बाबा को मैं गाड़ी में बैठाकर कुञ्ज में ले आया ।
शरीर कुछ गरम लग रहा था बाबा का
…गौरांगी और मैं बैठकर बाबा को काफी
देर तक पंखा झलते रहे …बाबा को जब देह
सुध हुई तो हम दोनों को ये कह कर भेज दिया
कि रात बहुत हो गयी है …अब जाओ ।…बाबा को
प्रणाम करके हम लोग निकल गये …बाहर आकर
हम दोनों बहुत रोये …बाबा का सान्निध्य
हम लोगों का सौभाग्य है…उनकी कृपा है ।
“इस करम का करूँ शुक़्र कैसे अदा”
Harisharan

Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877