श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! राधे ! तेनें कौन तपस्या कीन – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
चन्द्रावली ये कहते हुए रो पड़ी …………भाग्यवती तो इस जगत में एक मात्र ‘भानु किशोरी” ही है …………मैं प्रसन्न हूँ कि मेरे प्यारे अकेले नही गए वन में …….अपनी प्रिया किशोरी को लेकर गए हैं ।
आहा ! चन्द्रावली प्रेमोन्माद से भर गयी है ………….
तात !
उद्धव नें विदुर जी को सम्बोधित करते हुए कहा ।
कुञ्ज बड़ा ही सुन्दर था ………कदम्ब के घनें वृक्ष थे ….तमाल के कोमल पल्लवों को श्याम नें उस कुञ्ज में बिछा दिया था…….सामनें ही एक सरोवर था…….उसमें कमल खिले थे…….नाना जातियों के पुष्पों की भरमार थी…….वह स्थान अद्भुत था…….इसलिये वहीं बैठ गए थे श्यामसुन्दर ………और अद्भुत ये था कि …श्यामसुन्दर स्वयं तो अवनी में ही बैठे थे ……पर तमाल के कोमल पत्तों को बिछा दिया था अपनी प्यारी के लिये ………….
आप थक गयीं होंगीं ……..ये कहते हुये श्रीराधारानी के युगल चरणों को श्याम नें अपनी और खिंचा ……..लजा गयीं थीं श्रीराधिका ।
चरण चाँपनें लगे…….डर रहे हैं ……..डर इसलिये रहे हैं कि …कौमलांगी श्रीराधारानी के चरणों में कष्ट न हो …….श्यामसुन्दर प्रेम सिन्धु में डूब गए हैं…….उन्हें इस समय अपनी भगवत्ता , ईश्वरता की भी विस्मृति हो गयी है………उन्हें बस अपनी प्रिया श्रीराधा ही दिखाई दे रही हैं ………………
उठ गए एकाएक श्यामसुन्दर ……..गुलाब , केतकी, जूही, मल्लिका, इन सबको तोड़कर अपनी पीताम्बरी में रखकर ले आये थे ।
आनन्द में डूबी हुयीं हैं श्रीराधारानी …………..अपनें प्यारे को इस प्रेमवैचित्रावस्था में देख देख कर आनन्दित हो रही हैं ।
प्यारी ! मैं आपकी वेणी गुंथुंगा ………….मुस्कुराते हुये श्याम बोले ।
और बैठ गए अपनी प्यारी के पास ……सटकर ।
ये प्रेम की उच्चतम लीला है तात ! उद्धव बोले थे ।
वेणी गुंथनें लगे …………उन सुन्दर लटों को पहले बिखेर दिया …………आहा ! एक सुगन्ध का झौंका आया था उन श्रीजी के केशों से ………कुछ देर के लिये तो देह भान भूल गए थे श्यामसुन्दर …………समाधि ही लगा दी श्याम की उन श्रीजी के केश के सुगन्ध नें ।
अपनें आपको सम्भाला ………….श्याम सुन्दर अब श्रीजी के केश को बनानें लगे थे …………कंघी तो थी नही ……अपनी ही उँगलियों से …..केश को बनानें लगे , वेणी गूँथ दिया ……..पर उस वेणी गुंथनें में ……….बीच बीच पुष्प को लगा रहे हैं …………सफेद , फिर लाल, फिर पीत …………और कानों में कहते भी जा रहे हैं ……….प्यारी ! मेरे समान कोई वेणी गूँथना जानता नही है ……….सच ! हे भानु दुलारी ! इस जगत में मेरे समान कौन वेणी गूँथ सकता है ।
हँस पड़ती हैं अपनें प्रियतम के मुख से ऐसी “प्रेम सनी” बातें सुनकर श्रीजी ।
हँस रही हैं आप ? पर मैं सच कहता हूँ ………और मेरी गुँथी गयीं वेणी को आप देखिये तो …………आप की सौगन्ध मेरी प्यारी ! मेरी जैसी वेणी कौन गूँथ सकता है ।
भाव में डूब गए हैं श्यामसुन्दर ………….उन्हें कुछ भान नही है ………वो बस अपनी प्रिया को ही सजानें लगे हैं …………..उधर गोपियों को अद्वैत सिद्ध हुआ था …….इधर श्यामसुन्दर को हो रहा है
अपनें आपको भूल रहे हैं श्याम …………..अब तो उन्हे लगनें लगा है कि “मैं हूँ राधा और ये मेरे हैं श्याम” ।
“यहाँ कोई नही है प्यारी …….बस तुम और हम हैं”……..श्याम सुन्दर बोल पड़े ।
पर मेरी वो गोपियाँ ? श्रीराधारानी का ध्यान गोपियों की ओर गया ।
करुणामयी हैं ये ……….आहा ! अपना सुख श्रीराधा कैसे देख सकतीं हैं …………वो रो रही होंगीं ! वो बिलख रही होंगी …….कहीं उन्होंने अपनें प्राण तो नही छोड़ दिए ? श्रीराधारानी का हृदय चीत्कार कर उठा था ………..मन ही विचार करनें लगीं ………क्यों न मैं अपनी सखियों के पास जाऊँ ….और उन्हें सांत्वना दूँ ……..उन्हें सम्भालूँ ………..वो सब रो रही हैं और मैं यहाँ ?
तात ! उद्धव नें अपनें अश्रु पोंछे …………ऐसी हैं ये श्रीराधारानी ।
*शेष चरित्र कल –


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