श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! गोपिका गीतम् – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
ये क्या कर रही है पगली ? दूसरी सखी पूछती है ……..
ठीक ही तो कर रही है…..वे हमारे थोड़े ही हैं ………हाँ हम उनकी है ।
मैं समझी नहीं ………उसी सखी नें फिर पूछा ……तो पहली सखी बोली …………समुद्र का तंरग होता है ……..पर क्या तुमनें तंरगों का समुद्र देखा है ? अरी सखी ! श्रीकृष्ण हमारे नही हैं………वे तो समस्त के हैं ……पर हम अपनें मैं उन्हें बाँधना चाहती हैं………इसलिये हमारा अपराध यही है कि ……..हमनें उन्हे अपना समझा ……….नहीं, “हम उनकी हैं” ……ये बात ठीक है ।
तभी एक सखी उठ जाती है …………..वैकुण्ठ से भी ज्यादा शोभा होगयी है आज इस बृज की …………देख तो सखी !
उसके पास में बैठी दूसरी सखी कहती हैं ……..अरे ! वैकुण्ठ क्या ! वैकुण्ठ की अधिष्ठात्री श्रीरमा यानि लक्ष्मी तो इस बृज में लोट रही है ……..
और वैकुण्ठ क्या ? वैकुण्ठ में ऐश्वर्य है …..पर वहाँ माधुर्य कहाँ है ?
वहाँ राजा हैं भगवान नारायण ……पर यहाँ तो हमारे पाँव दवाता फिरता है ये नन्दनन्दन ! फिर कैसी तुलना वैकुण्ठ से ?
एक सखी तुरन्त बोली………वैकुण्ठ में रस नही है …..और रस भी है तो शान्त रस ! अब भला बता सखी ! शान्त होजाना भी कहीं रस कहलाता है ! वहाँ के स्वामी श्रीनारायण भगवान शान्त हैं …….वहाँ रहनें वाले लोग शान्त हैं …………..
पर लक्ष्मी शान्त नही है वो चंचल है ……….एक सखी बोली ।
अजी रहनें दो …….बाहर ही चंचल है लक्ष्मी ……बाहर ही उछलती फिरती है लक्ष्मी ……पर वैकुण्ठ में तो वो भी शान्त हो जाती है ।
पर ये वृन्दावन ? ये तो प्रेम का उमड़ता घुमड़ता सागर है ……..
प्यारे ! आपके कारण है ये सब ……….आपनें जब से जन्म लिया इस बृज में …..तब से वैकुण्ठ भी फीका हो गया है …………क्यों की यहाँ माधुर्य है ……मधुरता है ……….वो मधुरता वैकुण्ठ में नही …..तो फिर अन्य स्थान में होनें का तो प्रश्न ही नही उठता ।
हे प्यारे ! हमें दर्शन दो…….फिर बिलख उठीं गोपियाँ ।
हम कुछ नही चाहतीं तुमसे……प्यारे ! कुछ नही …..बस इन नेत्रों से तुम्हे निहारना चाहती हैं…….जी भर के देखना चाहती हैं ।
नही देखा , अभी तक जी भरके देखा नही है ………जब जब देखना चाहती थीं ……..पति आजाते , पुत्र आजाते ससुर जी आजाते , सास तो बस हर समय तनी रहतीं …………कभी इस तरह तसल्ली से देखा नही ………..आज समय मिला था देखनें का ……..पर तुम हो कि हमें छोड़कर ही चले गए ………क्या आपको ये सब शोभा देता है ?
एक अबला स्त्री को बुलाकर वो भी अर्धरात्रि में …………
आप तो पुरुष हो ना ! फिर पुरुष ऐसा क्यों करे ?
आपको हमें बुलाना नही था …..और बुलाया तो फिर इस तरह छोड़ना उचित नही था ………….क्यों ? क्यों चले गए हमें छोड़कर !
वीर हो ? पूतना को मारा ……..शकटासुर को मारा …….कालीय नाग को नथा ……………वाह ! वाह नन्दनन्दन वाह ! पर ये क्या किया तुमनें ? सारे कार्य वीरोचित होते हुये भी ये कार्य तो वीरों का हो ही नही सकता……..हमारा कोई वध कर दे तो ?
पाप लगेगा तुम्हे नन्दनन्दन ! कोई पशु ही हमें आकर खा जाए यहाँ तो ? उसके लिये तुम दोषी होगे ………………
पर श्रीराधारानी अब मूर्छित हैं…………वो “हा श्याम”…..हा प्राणेश ! यही कह रही हैं ।
तात विदुर जी ! ये अद्भुत गीत है …………….प्रेम की उच्चावस्था में जो प्रकट हो वह गीत ही हो जाता है ……..फिर ये तो प्रेम राज्य की महारानियों नें गाया है ………..गोपिका गीतम् ।
उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
*शेष चरित्र कल –


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