उद्धव गोपी संवाद
( भ्रमर गीत)
५७ एवं ५८
कोहू कहै रे मधुप,ग्यान उलटौ लै आयौ।
मुक्ति परै जे लोग,तिन्हीं फिरि करम बतायौ।।
वेद उपनिषद सार जो,मोहन गुन गहि लेत।
तिन्ह को आतम सुद्धि करि, फिर फिरि संथा देत।।
जोग चटसार में –
भावार्थ:-
कोई गोपी कह रही रे मधुप तू ज्ञान को उलटो यहां लायो ( यह सब भवंरे के मिस ऊधौ जी को सुना रही हैं) जो लोग अथवा जो रसिक जन मुक्त हो चुके हैं, उन्हें तू फिर क्यों करम मार्ग की शिक्षा दे रहे हो। सब वेद और उपनिषद का सार मोहन का गुणगान करना ही है अर्थात उनकी भक्ति करना ही है, जिनकी आत्मा शुद्ध हो चुकी है, अर्थात जो तन मन से कृष्ण की भक्ति में रम चुके हैं, तुम उन्हें फिर फिर करम की शिक्षा देना चाहते हो।
कोहू कहै सखि,बिस्व माहिं जेतक हैं कारे।
कोटि कपट की खान, कुटिल मानस विषहारे।।
एक स्याम तन परसि कें,जरत आज लों अंग।
ता पाछे यै मधुप फिरि,लायौ जोग भू अंग।।
कहा इन्हं को दया।
भावार्थ:-
कोई गोपी कह रही हैं कि सखि,ये संसार में जितने भी काले हैं, ये सब करोड़ों कपट की खान हैं, कुटिल और विष से भरे ये मनुष्य हैं।
हम तो एक श्याम का तन स्पर्श करके ही आज तक जल रही हैं, उस पर ये मधुप (उद्धव जी)हमे अपने शरीर पर जोग रूपी दवा को लगाने के लिए कह रहे हैं
हे सखी क्या इन्हें दया नहीं आती
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शेष कल 🌹
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