उद्धव गोपी संवाद
( भ्रमर गीत)
५९ एवं ६०
कोहू कहै रे मधुप,कहत अनुरागी तुम्ह कों।
कोंनें गुनधों जानि? परम अचरज है हमको।।
कारौ तन अति पातकी,मुख पियरौ जग निंद।
गुन औगुन सब आपने,आपु हिं जांन मलिंद।।
– देखि,लै आरसी –
भावार्थ:
गोपियां भवंरे के बहाने ऊधौ जी को सुना रही है कि अरे भंवरे, कोई तो तुम्हें अनुरागी कहता है लेकिन हमें तो यह अचरज होता है कि ऐसे कौन से गुण को तुम जानते हो ।तन काला है और मुख पीला और गुण, अवगुण सब तुम्हें अपने आप ही मालूम हैं भवंरे , यदि नहीं मालूम तो शीशा देख लो।
या विधि सुमरि गुविंद,कहति ऊधौ प्रति गोपी।
भृंग संग्या करि बदत सकल,कुल लज्जा लोपी।।
ता पाछे इक बार ही,रोइ उठीं ब्रज -नारि।
हा करुणा मय नाथ हो,कैसौ कृष्ण मुरारि।।
– फाटि हियरौ चल्यौ-
भावार्थ:-
इस विधि से गोविंद को याद करके, गोपियों ने नियम भृंग करकें अपनी सकल लाज को छोड़ दिया और अपने प्रियतम कृष्ण को याद करते करते सभी ब्रज गोपियां रोनें लगीं और कहने लगी कि हा करुणानिधि,हा नाथ,हा कृष्ण मुरारी आप कैसे हैं और उनको याद में गोपियों का हृदय मानों फटने लगा।
शेष कल 🌹🙏🙏🙏🙏
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