!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( गूढ़ प्रेम – “अति नागरि वृषभानु किशोरी” )
गतांक से आगे –
धन्य हो प्रेम देव ! आप धन्य हो !
सचमुच आपका मार्ग कौन रोक सकता है । क्या मर्यादा ! क्या वेद ! क्या शास्त्र ! क्या आर्यजन ! कौन रोक पायें हैं आपका मार्ग ? अजी साधारण जन की बात तो छोड़ो …अखिल लोक चूड़ामणि निपुण नायक , श्रीकृष्ण चन्द्र जू को भी अपने आपको चढ़ाने को बाध्य करने वाले आप ही हो ….इसलिये आप की जय हो । आप ईश्वर हो , ऐसा कई लोग मानते हैं …पर हे प्रेम देव ! हमतो ये मानते हैं कि आप ईश्वर से भी बड़े हो ……क्यों की ईश्वर को भी नचाने का सामर्थ्य आपमें देखा गया है …ईश्वर भी अपनी ईश्वरता का चोला उतार कर आपके आगे नाचने लगते हैं…इसलिये आप सबसे बड़े हो ….सबसे बड़ा तत्व आप ही हो …इसलिये प्रेमदेव ! आपकी जय हो , जय हो , सदाहिं जय हो !
ईश्वरीय प्रेम ही होना चाहिए , मानवीय प्रेम नही ?
गौरांगी ने बाबा से राधा बाग में प्रश्न किया था ।
बाबा ने उत्तर दिया –
ये भेद व्यर्थ है …प्रेम ईश्वरीय ही होता है …ये भेद तुम्हारी बुद्धि द्वारा उत्पन्न है ।
प्रेम मनुष्य से होता ही नही हैं ….अगर हम प्रेम ही करें तो । हाँ , मोह मनुष्य से होता है ….पर प्रेम तो ईश्वर से ही होता है ….अभी अगर तुम्हें लगे की ये मनुष्य से है …लड़के से या लड़की से … अगर प्रेम होगा ….यानि उसको सुख देने की ही मात्र कामना होगी …उससे सुख पाने की नही , उससे सुख लेने की नही ….तो वो प्रेम ईश्वर से ही जुड़ जाएगा …ये पक्का है ।
बाबा कहते हैं – “मारग अपमारग विथकित मन , को अनुसरत निवारै” ये सही मार्ग है , ये गलत मार्ग है …ये सोच ही छोड़ो , प्रेम अगर होगा तो ईश्वरीय ही होगा । जहां मिटने के लिए प्रेमी निरन्तर तैयार रहता है …..सुख माँगना , सुख चाहना , ये मोह है …और सुख देना , सुख देने की मात्र भावना , ये प्रेम है । प्रेमी तो इस द्वैत संसार को तोड़कर अद्वैत पद तक पहुँचना चाहता है …तभी तो वो तड़ातड़ बेड़ियों को तोड़ता जाता है ….और बेड़ियाँ किसकी ? लोक लाज की ….वेद-शास्त्र की….आर्य जनों की ।
पूछो परवाने से कि जलने में इतना मज़ा क्या है ?
बस यही तो प्रेम की खूबसूरती है ….यही बलिदान प्रेमियों का जीवन है । मिटने का मज़ा सिर्फ प्रेम ही समझता है , इसलिये प्रेम ईश्वरीय ही होता है । बाबा स्पष्ट अन्तिम में बोले ।
फिर उन्होंने पद गायन के लिए कहा – आज तैंतालीसवाँ 43, पद है ….बाबा ने इसे सारंग राग में गाने के लिए कहा था । गौरांगी ने अन्य वाद्ययन्त्रों के साथ इस पद का सुमधुर कण्ठ से गायन किया । अन्य समस्त रसिक जन पीछे से इस पद का गायन कर रहे थे ।
अति नागरि वृषभानु किशोरी ।
सुनि दूतिका चपल मृगनैंनी, आकरषत चितवत चित गोरी ।।
श्रीफल उरज कंचन सी देही , कटि केहरि गुन सिंधु झकोरी ।
बैंनी भुजंग चन्द्र सत वदनी , कदलि जंघ जलचर गति चोरी ।।
सुनि हरिवंश आजु रजनी मुख , बन मिलाइ मेरी निज जोरी ।
जद्यपि मान समेत भामिनी , सुनि कत रहत भली जिय भोरी ।43 ।
अति नागरि वृषभानु किशोरी ……………
बाबा ने पद के बाद आज एक शेर भी सुना दिया …..
“इश्क़ पर ज़ोर नही ये वो आतिश ग़ालिब ।
जो लगाये न लगे , और बुझाए न बुझे ।।”
बाबा रसमग्न होकर कहते हैं …वाह ! क्या सुन्दर कहा है ।
“जो लगाये न लगे , बुझाये न बुझे “
इसका मतलब है ..ये प्रेम, साधना से नही प्राप्त होता ..ये प्रेम प्रियतम की कृपा से ही मिलता है ।
कोई कहे , हम प्रेम करें और मिट जायें ….बाबा बोले …जब तक उसकी कृपा नही होगी तब तक तुम प्रेम कर ही नही सकते । कहाँ से प्रेम करोगे …महत्वाकांक्षी बुद्धि तुम्हें प्रेम करने देगी ? वो तो धन के पीछे भगायेगी ….नाम कमाओ , यश कमाओ …समाज के लिए कुछ करो …बस इसी में उलझा देगी …..प्रेम करना भी बिना कृपा के नही होगा । देवर्षि नारद जी कहते हैं भक्ति सूत्र में …”प्रकाशित क्वापि पात्रे”……ये प्रेम विरले पात्र में ही प्रकट होता है ।
बाबा अब ध्यान कराते हैं ……अद्भुत ध्यान था आज का तो ।
!! ध्यान !!
शीतल हवा चल रही है ….सहस्रों सखियाँ प्रिया जी के सामने खड़ी हैं ….प्रिया जी ने अभी अभी “प्रेम” पर हित सखी के मुख से व्याख्या सुनी ….इससे प्रिया जी को बहुत सुख मिला है …उन्होंने हित सखी को अपने हृदय से लगा लिया है । तभी उधर से रसिक शेखर श्याम सुन्दर भी जाग गये थे और वहीं आगये । वो पीछे खड़े हो कर मुस्कुरा रहे हैं । सखियों ने देखा श्याम सुन्दर आगये हैं …तो सभी सखियाँ चली गयीं …क्यों कि अब भोग की भी तो तैयारी करनी है ….सब चली गयीं हैं अब यहाँ दोनों युगल सरकार ही हैं । सामने यमुना बह रही हैं ….दोनों यमुना के तट में जाकर बैठ गये हैं …अपने चरण यमुना में रख दिए हैं और यमुना की शोभा देख रहे हैं । पर श्रीराधा रानी को अभी भी हित सखी की प्रेम भरी बातें ही स्मरण में आरही हैं ….”प्रेमी है पतंगा ..दीपक में जाकर जल जाता है ….प्रेमी है हिरण , पारधी वाणों से मार देता है उसे पर वो नाद से प्रेम करना नही छोड़ता ….मर जाता है पर प्रेम करता है “। श्रीकिशोरी जी का ध्यान आज हित सखी के प्रेम की बातों में है ….श्याम सुन्दर कुछ सुनाना चाहते हैं …कुछ सुनना चाहते हैं अपनी प्रिया से …पर वो प्रेम में ही खोई हैं । तभी कुछ दूरी पर कमल ही कमल खिले हैं ….प्रिया जी ने देखा …उन पर हजारों भँवरें टूट पड़े हैं …उन भँवरों में भी प्रिया जी को प्रेम दिखाई देता है …आहा ! प्रेमी तो ये मधुप भी हैं ….जो कमल से इतना प्रेम करते हैं कि रात में कमल में ही बन्द हो जाते हैं …कोई मद मत्त हाथी उन्हें कमल के साथ खा भी सकता है इन्हें परवाह नहीं ….आहा ! ये प्रेमधर्म की प्रकाशिका श्रीराधा रानी वहाँ से उठकर कमल वृंदों में चली जाती हैं….और वहाँ जाकर बैठ जाती हैं ….वो बड़े ध्यान से कमल पराग पी रहे मतवाले भँवरों को देखती हैं …उन्हें अपने प्रियतम स्मरण आते हैं …उफ़ ! वो सब कुछ भूल जाती हैं ।
इधर श्याम सुन्दर ने देखा मेरे पास विराजीं थीं प्रिया जी पर पता नही क्यों मुझे छोड़कर दूर जा बैठी हैं ….ओह ! क्या कारण है ! क्या मुझ से मान कर गयी हैं ? पर क्यों ? ऐसा तो मैंने कुछ किया नही हैं ! श्याम सुन्दर इधर दुखी हो गये हैं ।
तभी हित सखी श्याम सुन्दर के पास आई ….और बैठ गयी …हित सखी को अपने पास देखकर श्याम सुन्दर उससे बोले …सखी ! तू मेरा एक काम कर दे ! हित सखी बोली – क्या ?
थोड़ा पास में खिसके हित सखी के …..फिर बोले – तू तो प्रिया जी की अंतरंगा सखी है ना ! प्रिया जी तुझ से बहुत प्रसन्न थीं आज ….इसलिये तू मेरा एक काम कर दे । श्याम सुन्दर हित सखी से फिर बोले ….हित मुस्कुरा के बोली क्या ? देख तू जानती है …मेरी प्रिया जी परम चतुर हैं ….रस वैभव से पूर्ण हैं …प्रेम धर्म की साक्षात् प्रकाशिका हैं और प्रीति की प्रतिमा हैं । और तू हम दोनों की हित को समझने वाली है ….इसलिये देख ! मैं ही तुझे अपनी व्यथा सुना रहा हूँ ….हित सखी फिर श्याम सुन्दर की ओर देखकर कहती है – हाँ , कहो ना लालन ! श्याम सुन्दर अधीर हैं …वो और अधीर होते जा रहे हैं ….उन्हें किशोरी जी की पृष्ठ दिखाई दे रही हैं ….नागिन जैसी वेणी दिखाई दे रही है …क्षीण कटि दिखाई दे रही है ….पर मुखारविंद नही । प्यारे ! क्या बात है आप कहो मुझ से …..धैर्य बँधाती हित सखी फिर कहती है । तुझे तो पता है ना , मृग जैसे नयनों वाली …रस चांचल्य से पूर्ण सर्वांग सुन्दरी श्रीराधा मेरे चित्त को अपनी और आकर्षित करती रहती हैं ….ओह ! उनका सुवर्ण जैसा अंग , श्रीफल जैसे उरोज , और सिंह जैसी कटि …..नही नही सखी ! मात्र सुन्दर ही हैं वो ऐसा नही हैं …उनमें शील भी है ….उदारता भी भरपूर है । श्याम सुन्दर इतना कहकर फिर उस ओर ही देखने लगे जहां प्रिया जी बैठी हैं …नेत्रों से जल बहने लगे ….तो हित सखी ने उन्हें सम्भाला ….लम्बी साँस लेते हुये श्याम सुन्दर बोले …उनकी वो लम्बी सर्प जैसी वेणी …कदली खम्भ जैसी जंघाएँ …और मन्द गति ऐसी कि हंस भी शरमा जायें ।
श्याम सुन्दर बोले ….बस मुझे तो चिंता ये हो रही है कि कहीं श्रीराधा जू आज नही मानीं तो फिर क्या होगा ? सन्ध्या होने वाली है अब रात्रि होगी …उनके बिना रात्रि ! ओह , मेरे लिए तो काल रात्रि ही होगी ! हे सखी ! तू जा , और जाकर उनको बोल ….कि यमुना में खेल रहे इन हंस और हंसिनी की तरह हम भी खेलें । तू जा , मुझे विश्वास है कि तेरी बात वो अवश्य मानेगीं । तू जा ! श्याम सुन्दर के विनती करने पर हित सखी श्रीराधारानी की ओर चल पड़ी थी ।
श्याम सुन्दर उसे देखते रहे थे …….
पागल बाबा बोले – यही प्रीति की रीति है …झुको , प्रेम उसी में उतरता है जो झुकता है ।
देखो ! हमारे श्याम सुन्दर को …कैसे झुके रहते हैं ।
बाबा इतना बोलकर अब मौन ही गये ।
गौरांगी ने फिर इसी पद का नित्य की तरह गायन किया था ।
“अति नागरि वृषभानु किशोरी”
आगे की चर्चा कल –

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