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November 21, 2024 12:57 pm

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श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 11-(जब श्रीराधारानी मेघ को देखती हैं…): Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 11-(जब श्रीराधारानी मेघ को देखती हैं…): Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 11

( जब श्रीराधारानी मेघ को देखती हैं…)

गतांक से आगे –

उफ़ ! ये हमारी किशोरी जी !

कोमल से भी अति कोमल हैं ….सुकुमारता भी जिनको देखकर लजा जाये …ऐसी ये सुकुमारी हैं । किन्तु श्याम सुन्दर जब से गये मथुरा इन्होंने उन्माद का बाना धारण कर लिया है ….ये उन्मादिनी हो गयी हैं । प्रतिदिन , नही नही प्रतिक्षण …..श्रीराधारानी उन्माद की अनेकों डरावनी घाटियों को पार करती रहती हैं ….और वो घाटियाँ हैं –

तीव्र चिन्ता , जागना , कृशता , प्रलाप , व्याधि , असहनीय पीढ़ा और मृत्यु । इन सब से होकर ये पल पल गुजरती हैं । ओह ! उन प्रीति प्रतिमा का वर्णन कौन कर सकेगा ?

अच्छा साधकों ! सखियों की फिर अपनी पीढ़ा है …अपना कष्ट है । और कष्ट ये है कि सखियाँ तो रो भी नही पातीं । उफ़ ! रो लें तो कुछ दर्द तो कम हो ….किन्तु ये घुट रही हैं अपने भीतर ही भीतर । श्याम सुन्दर तो चले गए मथुरा और वहाँ जाकर मथुराधीश बन बैठे …किन्तु बिना श्याम सुन्दर के जब श्रीराधा अपने को देखती हैं …..तब ये विरह जन्य दुःख मृत्यु के समान हो उठता है । उस स्थिति में श्रीराधा बिलखती हैं …चीखती हैं ….उफ़ ! ये दशा अपनी स्वामिनी की सखियाँ जब देखती हैं तब उनका कलेजा फट जाता है ….वो विधाता को मन ही मन गालियाँ बकना शुरू कर देती हैं …..रोना चाहती हैं अपनी स्वामिनी की स्थिति पर ….पर रो नही सकतीं ……रोयेंगी तो स्वामिनी को कौन सम्भालेगा ? यही रोने लग गयीं तो लाड़ली की रेख देख कौन करेगा ? इसलिए सखियाँ अब अपना सब कुछ छोड़ चुकी हैं ….आप इस स्थिति की कल्पना कर सकते हैं क्या ? पूर्ण त्याग ….अपने रुदन , अपने अश्रु , अपने आपा का भी त्याग ….अब तो स्वामिनी की सेवा बस …….और इनकी स्वामिनी की स्थिति तो आप जान ही चुके हैं ।

मेरे साधकों ! रोईये ! खूब रोईये ! ये रोने की ही साधना है …ये साधना सिद्ध हो गयी तो समझो आप परम सिद्ध हो गये , फिर आपको कुछ करना ही नही पड़ेगा। सच कह रहा हूँ ।

अब चलिये ! वहीं बरसाना ….जहां हमारी श्रीराधारानी विरह के उन्माद से ग्रस्त हैं …….


स्वामिनी ! आप क्यों महल में ही बैठती हैं ….थोड़ा बाहर निकलिये ना ! आपको अच्छा लगेगा …आज दस दिन हो गये आप महल में ही हैं । ललिता ने श्रीराधारानी से विनती की ।

सखी ! क्या करूँगी बाहर जाकर ? बाहर क्या है ? क्या मेरे श्याम सुन्दर हैं ? वो मुझे दिखाई देंगे ? जब वे नही दीखेंगे तो फिर कहाँ जायें ! और क्यों जायें ? श्रीराधारानी ने इतना ही कहा और शून्य में देखने लगीं ।

वो बृज अब कहाँ है ? ललिता ! वो रस अब कहाँ बरसता है ….रस को बरसाने वाला रसिक ही चला गया तो अब रस कहाँ ? श्रीराधारानी जब बोलती हैं तो रुक रुक कर बोलती हैं …और हाँ, कोई आवश्यक नही जो विषय चल रहा है उसी पर बोलें …विषय बदल भी सकता है । किन्तु नही बदलता तो एक ही विषय है ….श्रीकृष्ण । सखियाँ चाहती हैं अब कि ये भूल जायें श्याम सुन्दर को …..पर भूलना क्या इतना आसान है ?

“क्यों न हम बृज वीथिन में अपने प्रीतम को खोंजें “। ये बात विशाखा ने कही ….तो श्रीराधा जी ने उसकी ओर देखा …..मानों कह रही हों ….बात तो सही है ।

किन्तु कहाँ जायेंगे ? श्रीराधा रानी ने विशाखा से ही पूछा ।

विशाखा ने उत्साह से कहा ….साँकरी-खोर ।

ललिता ! ये ठीक कह रही है विशाखा , चिन्तन करें उस स्थान में जाकर कि मेरे प्रीतम ने क्या किया था ? आहा ! ये अच्छा सुझाव दिया है । श्रीराधारानी उत्साहित हो गयीं …अतिउत्साह में भर कर उठ भी गयीं ….सखियाँ अब प्रसन्न हैं….किन्तु ललिता का हृदय काँप रहा है ….कोई अनहोनी न हो जाये , मेरी लाड़ली ठीक रहे ….वो विधाता से प्रार्थना करती हैं ।

विशाखा ! तू ठीक बोली ….यहाँ बैठे रहने से क्या प्रयोजन ? घर को क्या देखना ? घर की दीवारों को क्या देखते रहना ….वन देखेंगे ….नभ देखेंगे ….बादल देखेंगे ….लता वृक्ष ….और वहीं बैठ कर अपने प्रीतम का ध्यान करेंगे । और नयन मूँदते ही वो आजाते हैं सामने ….नटवर भेष उनका …कितना सुन्दर भेष , आहा ! वही गले में पीताम्बर धारणकिए हुए …चंचल छवि …और मेरे पास आकर ….ऐ राधे ! मेरी ओर तो देख ….ऐसा कहेंगे वे । पर मैं भी उनकी ओर देखूँगी नही …ना , अब मैं नही मानूँगी उनकी हर बात …….

“पर एक बार तो देख लेना”…….विशाखा मन बहला रही है स्वामिनी का ।

ना , अब नही ….एक बार भी नही ….मैं देखूँगी ही नही ….श्रीराधा बोल रही हैं ।

फिर तो वो आपके पाँवों में पड़ेंगे ……विशाखा ने कहा ।

इस बात पर श्रीराधिका जू मौन हो गयीं ….सखी ! फिर तो उनकी ओर देखना पड़ेगा । मेरे पाँव में पड़ेंगे ….तो पड़े रहने देना ये अच्छा नही है ….फिर वो भी ना , बड़े जिद्दी हैं …अपनी बात मनवा कर ही छोड़ते हैं ……

“उनसे नैंन भी मिला लेना” ……थोड़ा छेड़ना चाहा विशाखा ने …..इस बात पर श्रीराधारानी मौन हो गयीं । वो खो गयीं …..मानों उनके नैंन मिल रहे थे ।


साँकरी-खोर । साँकरी-खोर का अर्थ होता है …संकुचित मार्ग ।

दो पर्वत के मध्य एक मार्ग है …जो अत्यन्त संकुचित है ….बहुत छोटा मार्ग है ।

पर्वत में हरीतिमा छाई हुई है ।

वहीं जाकर श्रीराधा जी बैठ गयीं थीं ……सखियां भी उन्हें घेरकर बैठ गयी हैं ।

शीतल हवा चल रही है ……नभ में बदरा छा गये हैं …..बदरा को छाया हुआ देख श्रीराधा जी पूछती हैं ….क्या वर्षा ऋतु आरम्भ हो गया है ? ललिता सखी “हाँ” में सिर हिलाती है ।

तभी बदरा घने छाए हैं …..श्रीराधा जी देख रहीं हैं बादल को …..वो पास आगये हैं …..और पास …श्रीराधा जी का ध्यान अब कहीं नही है ….उन बादलों पर ही स्थिर हो गया है ।

सखियों ! एकाएक बोल उठीं श्रीराधा जी ।

हाँ , सखियों ने भी उत्तर दिया ।

“इस श्याम को पकड़ो “। एकाएक बोलीं थीं ….”पकड़ो इस कपटी को”….कहाँ जा रहे हो ? बताओ कहाँ जा रहे हो ? क्या कहा मथुरा ? मत जाओ मथुरा । कौन है मथुरा में …क्या हमारे जैसी प्रेम करने वाली है ? बोलो ? फिर मत जाओ ना ! ओह ! ये कहते हुए श्रीराधा फिर उसी भाव की उन्मत्त दशा में आगयीं थीं ।

हम सब भोरी हैं हे श्यामघन ! हम नही जानती तुम्हारी चतुरता को …हम तो प्रेम करती हैं , हृदय से प्रेम किया तुमसे । पर तुमने तो कुछ ओर ही सोच रखा था । हमको भोरी जानकर हमारे साथ ऐसा छल किया ना तुमने ? ललिता सखी ऊपर देखती हैं लम्बी साँस लेती हैं …मन ही मन कहने लगती हैं …..बदरा ! जा ना , जल्दी जा । पर बदरा है …धीरे धीरे चल रहा है ।

छलिया , चोर , ठग , अपनी मीठी मीठी बातों से हमें ठगता फिरता था …..

फिर श्रीराधा खड़ी हो जाती हैं और उछलने लगती हैं ….काले बदरा को पकड़ने लगती हैं …पर बदरा कहाँ हाथ आये !

नही आयेगा हाथ , भाग रहा है ….बड़ा बेशर्म है …..हमारी मान , मर्यादा , धर्म , लज्जा सब कुछ हर लिया और हाथ में भी नही आरहा । हट्ट , बेकार है तू तो ।

ललिता अश्रु पोंछ रही है ….आज – “आप”, “तुम” ने , सीधे “तू” का स्थान ले लिया था । प्रेम उच्च शिखर पर पहुँचे तो ये सब बातें मायने कहाँ रखती हैं ।

ललिता ! उठ ना , इस काले को पकड़ , ये हमारे हाथों से निकल रहा है …और ये एक बार हमें छोड़कर मथुरा गया तो फिर नही आयेगा । पकड़ इसे …हाँ , जाने मत दे । ओह ! ये क्या आज का उन्माद तो बड़ा ही कष्टकारी है ।

पर बादल ही तो है वो …..हवा तेज चली ….तेज बादल चलने लगा । और मेघ को जैसे ही तेज जाते देखा तो श्रीराधा पर्वत में दौड़ीं ….और उछलने लगीं ….उस काले मेघ को पकड़ने पर – ओह ! गिर पड़ीं ।

ललिते ! वो चले गये , चले गये । हाय घनश्याम को हम पकड़ न पाये …पकड़ भी लिया था पर अपने पास रख न पाये । श्रीराधा के अश्रुधार फिर बहने लगे ….मानौं पर्वत से झरने फूटे हों ।

अच्छा होता ना , कि वो गये तो हमारे प्राण भी उनके साथ चले जाते ….हे घनश्याम ! इन प्राणों को भी ले जाओ । श्रीराधा चिल्लाकर बोलीं ….पर्वत ने उनकी आवाज को दोहराया ।

अगर प्राण यहीं रह गये तो व्यर्थ हैं….क्या प्रयोजन इन प्राण के “प्राणधन” बिना । श्रीराधारानी की दशा देख सब सखियाँ व्याकुल हो उठीं ….नही नही , सखियाँ ही क्यों पूरा वन व्याकुल हो उठा पर्वत बेचैन हो उठा । ये पर्वत कोई और थोड़े ही है ब्रह्मा हैं स्वयं ब्रह्मा बरसाने के पर्वत बनकर बैठे हैं …..ओह ! सृष्टिकर्ता व्याकुल हो उठे श्रीराधा को इस तरह व्याकुल देखकर ।

तभी बादल फिर लौट आये ।

और जब बादलों को लौटते देखा तो श्रीराधा का मुख खिल गया …..घन श्याम आगये ! सखी री ! देख घनश्याम आगये । श्रीराधा फिर उन्मत्त हो कर खड़ी हो गयीं ….और हाथ जोड़ने लगीं ….ऐसे जाना उचित नही है ….आपको बिल्कुल हम लोगों की परवाह नही है ….हे श्याम ! आप इतने निष्ठुर तो नही थे ….आज क्या हुआ ? क्यों मार रहे हो हमें ? चीख उठीं श्रीराधारानी ….बोलो ! अबला का वध कहाँ उचित है ? बोलो । अबला शरण में आई है वैसे भी शरण आए हुए को कभी छोड़ना उचित नही है ….उसमें भी हम तो अबला हैं । मत छोड़ो हमें । यहीं रहो । हमारे पास रहो । श्रीराधा हाथ जोड़ रही हैं …..कुछ नही कहेंगी तुमसे । यहीं रहो प्यारे ! जब उधर से कोई उत्तर नही आया । मेघ क्या उत्तर दे ? तब श्रीराधा ने ललिता से कहा ….ललिते ! ये श्याम घन कुछ नही बोल रहे …….लगता है ये नही रुकेंगे ….तो जाने दे …श्रीराधा रानी फिर ये कहने लगीं । तू जा ! श्याम ! अब जा । हाँ , सही बात है जिसका मन न हो उसे कब तक रोका जा सकता है ! तुम को हम नही सुहा रहीं ….हमारा संग तुमको अच्छा नही लग रहा तो जाओ …..जाओ । ऐ ललिता ! जाने दे यार इसे ! ज़बर्दस्ती किसी से प्रेम नही करवाया जाता ….जाओ तुम जाओ । श्रीराधा की ये दशा ! ओह !

ललिता ! अब किसी का मन नही है …उसके सामने रोने धोने से क्या लाभ ! रोने की क़ीमत जो समझे उसके सामने रोना चाहिये ….ये क्या समझे कि रोना कैसे होता है …हृदय को निचोड़ना पड़ता है …हृदय के घाव को बार बार कुरेदकर उसमें नमक छिड़कना पड़ता है ….इसे क्या पता …ये तो आज वृन्दावन में है ..कल मथुरा ..परसों न जाने कहाँ ? ऐ जा तू । जा ।

बादल ठहर गया है । श्रीराधा फिर देखती हैं ऊपर ….जब ठहरे हुए बादल को देखती हैं तो फिर चिल्ला उठती हैं ….ऐ ललिता ! सखी ! कहना इसको …ये चला जाये …हम प्रेमियों को दया की भीख अच्छी नही लगती ….प्रीतम मार दे , प्राण ले ले …वो ठीक लगता है ..पर दया ? ना ।

हम मर जायेंगी इसलिये ये दया कर रहे हैं ….है ना ? श्रीराधा फिर कहती हैं ।

भाग्य में जो लिखा है वही होगा …..तुम जाओ , मथुरा की सुंदरियाँ तुम्हारी बाट जोह रही होंगी …जाओ । राजा , मथुराधीश श्रीश्री । जाइये , हम ग़रीबों को हमारी हाल में छोड़ दीजिये ।

बादल आगे बढ़ने लगा ….तो श्रीराधा ने देखा ….ये तो जा रहा है ….वो फिर तुरन्त उठ गयीं ….सुन ! जाओ तो जाओ …पर एक बात राधा की सुनते जाओ । हम मरना चाहती हैं …पर मरती नही हैं क्यों की तुम पर कलंक आयेगा …इतना ध्यान रखती हैं तुम्हारा …और तुम ?

नाथ ! एक बार तो कुछ बोलो । अब श्रीराधा फिर रोने लगी । ऐसा क्या अपराध कर दिया इस आभागिन राधा ने कि तुम उससे बोल भी नही रहे हो ? क्यों ? हम ऐसे वैसे घर की नही हैं …कुल वती हैं ….आशा रख कर बैठी थीं ….कि तुम आओगे । और हमारी आशा ऐसे ही नही है तुमने स्वयं कहा था मथुरा जाते हुए कि “मैं आऊँगा” । कह देते ना …नही आऊँगा …ये राधा और ये बृजवासी तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं करते । बादल तेजी से चल पड़ा तो …राधा चिल्ला उठीं ….”एक बार तो अपना मुखचन्द्र दिखा दो”…..पर बादल चला गया ।

श्रीराधा बैठ गयीं ……शून्य में देखने लगीं ….श्याम घन फिर चले गए सखी ! श्याम घन ने फिर न सुनी आज भी इस राधा की । ओह ! मूर्छित हो गयीं फिर श्रीराधा ।

ओह !

क्रमशः….

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