!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 6 !!
बरसानें ते टीको आयो…..
भाग 1
हे अनिरुद्ध नन्दन वज्रनाभ ! वास्तव में, इस पराभूत परिश्रान्त हृदय का विश्राम स्थल एक मात्र प्रेम ही है ……..प्रेम ही है जो इस दुःख से कराहते मनुष्य को आनन्द सिन्धु की यात्रा में ले चलता है ….।
हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ ! आत्मा के अनुकूल अगर कुछ है तो वह प्रेम ही है …….अरे ! आत्मा ही तो प्रेमस्वरूप है ।
इस जगत में अत्यन्त उज्वल और पवित्र कुछ है तो वह प्रेम है ।
याद रहे वज्रनाभ ! सब कुछ अनित्य है इस संसार में …एक मात्र प्रेम ही है जो नित्य और शाश्वत है …….उसे फिर हम अजर अमर क्यों न कहें ! …….वो प्रेम, अमृत रूपा भी तो है …।
महर्षि शाण्डिल्य, यमुना के पुलिन में वज्रनाभ के सन्मुख, प्रेम की महिमा का गान कर रहे थे …….श्रीश्याम सुन्दर निकुञ्ज से उतरे हैं यशोदा के आँचल में ……..तो ये प्रेम की ही महिमा है । ………अब आगे साक्षात् प्रेम …..विशुद्ध प्रेम आकार लेनें जा रहा था ………….
कितना सुन्दर नाम है ना उस गांव का “बरसाना’…….इस गांव को अपनें ऊपर पाकर धरती भी धन्य हो रही थी…….यहाँ के अधिपति बृषभान ……..उनकी भार्या कीर्ति रानी ।
पता नही क्यों ? महर्षि शाण्डिल्य, जब जब बरसानें की बात आती है ……..मौन हो जाते हैं ……उनसे आगे कुछ बोला ही नही जाता ।
हाँ …….प्रेम है ही ऐसा…….फिर ये नगरी तो प्रेम की नगरी थी ना ।
“मेरे पुत्र हुआ…….मैं बहुत प्रसन्न हूँ ……..पर मेरे मित्र नंदराय के कोई पुत्र नही है ……कीर्ति रानी ! तुम्हे तो पता ही है ……मेरे पुत्र श्रीदामा के जन्म पर वो नन्द और यशोदा भाभी कितनें खुश थे …….पता है ! मैने तो उस समय भगवान से यही प्रार्थना की थी कि …मेरे मित्र नन्द को भी पिता बननें का सौभाग्य मिलना चाहिए ।
खिरक ( गौशाला ) में बैठे थे बृषभान …………तभी उनके पास उनकी अर्धांगिनी कीर्ति रानी आ गयीं.. ……कीर्तिरानी की गोद में श्रीदामा शिशु थे …….वो आकर अपनें पति बृषभान के पास बैठ गयीं थीं ।
पता है कीर्तिरानी ! शास्त्र चाहे कुछ भी कहें …..कि पुत्र नही होगा तो पिता को स्वर्ग नही मिलेगा ……….मुझे नही चाहिए स्वर्ग ………क्या स्वर्ग से कम है ये हमारा बरसाना ?
हम दोनों मित्र थे ……..बृजपति नन्द और मैं …………बड़े हैं मुझ से नन्द राय ……….पर हमारी मित्रता बहुत पक्की रही ।
तुम तो जानती ही हो …………मेरे विवाह के लिए मेरे पिता नें इतना प्रयास नही किया ………जितना प्रयास मेरे प्रिय मित्र नन्द राय नें किया था …….तब जाकर तुम जैसी सुन्दर सुशील भार्या मिली ।
“मुझे पुत्र नही चाहिए”……..मैं तो स्पष्ट ही कहता था …………
पर मेरे मित्र नन्द को पुत्र कि ही कामना थी …………मैं कहता भी था की “मेरे पुत्र ……..जो मुझे होनें वाले हों …… विधाता तुम्हे दे दे ……..पर मुझे तो कन्या ही चाहिए ……
सुन्दर प्यारी कन्या ……. जो रुनझुन करती हुयी इस आँगन में डोले ……..बाबा ! बाबा ! कहते हुए मेरे हिय से लग जाए …………मैं जब खिरक से लौटूं अपनें महल ……तो “बाबा ! लो जल पीयो”….मुझे जल पिलाये……तब मैं उस प्यारी, अपनी लाड़ली को हृदय से लगा लूँ ।
शास्त्र कहते हैं ……पिण्ड दान पुत्र के ही हाथों पितृयों को प्राप्त होता है …….पर कीर्ति रानी ! पितृलोक में जाएगा कौन ? हम तो फिर इसी बृज में आएंगे ……..और बृज में भी बरसानें में…….न मिले हमें पितृलोक में पिण्ड … …..हमें नही चाहिए ……….अरे ! अर्यमा ( पितृलोक के राजा ) भी तरसते होंगें इस बरसानें में जन्म लेनें के लिए …..।
“मुझे तो पुत्री की ही लालसा है”
………..कीर्ति रानी के गोद में खेल रहे शिशु श्रीदामा के कपोल को छूते हुये बृषभान नें कहा था ।
और हाँ ……….जब श्रीदामा का जन्म हुआ था ना ……तब मैने कहा भी था मित्र नन्द से ……….”मेरे पुत्र को ले जाओ “………..क्यों की मेरे यहाँ तो अब पुत्री का जन्म होनें वाला है ।
“तुम्हारी भाभी भी गर्भवती हैं”………..उसी समय ये शुभ समाचार दे दिया था मुझे मित्र नन्द नें ………तुम्हे तो पता है ना कीर्ति !
हाँ मुझे पता है …….मैने उन भोली बृजरानी यशोदा भाभी को छेड़ा भी था ……..वो कितना शर्मा रही थीं !
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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