महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (029)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता
कहा- बाबा! तुम्हारी बात तो समझ में नहीं आयी, यह एक क्या? बोली- हमने जो मंगाया था सो आ गया हमारे पास। हमको तो एक तुम चाहिए थे। जब ईश्वर से कोई चीज माँगते हैं वह भेज देता है; और जब अपना दिल ख़ाली करके रखते हैं उसके लिए, शरणागत हो जाते हैं, तब वह खुद आ जाता है। बोले- भाई क्यों बुलाते हो हमको? क्या चाहिए तुमको? मांगो। बोले- कुछ नहीं चाहिए। तो फिर काहे को बुलाते हो? बोले- जरा आओ। हमारी गोद में आकर बैठो, तुमको दूध पिलाना चाहते हैं। तुम बनो बच्चे और हम तुम्हारी माँ बनकर दूध पिलायेंगी। तो ईश्वर बोलेगा हम इतनी बड़ी दुनया के मालिक, जो चाहे सो दे सकते हैं, तुमको हमसे कुछ चाहिए ही नहीं, उल्टे तुम हमको दूध और देना चाहते हो। तो ऐसा दूध हमको कहाँ मिलेगा? हम तुम्हारा दूध पीयेंगे। ग्वाल बाल ने कहा- ए कृष्ण। यहाँ आ! ओ कनुआ, इधर आ! कृष्ण ने कहा- भाई, काहे को बुलाता है? बोले- अरे क्या बतावें, आतो जा पास में, हमको तुमसे कुछ चाहिए नहीं, तब क्या बात है?
बोले- आज हमारी माँ ने बहुत बढ़िया ‘बड़ा’ बनाया था; उसे घर से मैं छिपाकर ले आया हूँ, आओ हमारी चोरी में जरा हिस्सा बँटाओ। मैंने एक ग्रास उसमें से निकालकर खा लिया है, बहुत बढ़िया बना है; आओ तो जरा लो, कृष्ण ने कहा अरे बाबा! हमसे कुछ लोगे नहीं, हमको देने के लिए आये हो। अच्छा, आते हैं। अब हम तुम्हारा बड़ा नहीं खायेंगे तो और किसका खायेंगे? नारायण, देखो- इसको बोलते हैं- ‘योगमायां उपाश्रितः’। वश में हो गया भगवान्! ‘सर्वस्ववशी सर्वस्य ईशानः’ श्रुति कहती है- परमात्मा सबको वश में रखता है और ईश्वर सबका मालिक है, बोले- होगा मालिक, सबका मालिक होने पर भी ईश्वर अपने प्रेमी का सेवक है। गोपी ने कहा- नाचो। बोले- लो भाई, नाचते हैं, लेकिन गोपी तू हमारे लिए कुछ लेकर आयी है? बोली- रूप लेकर आयी हूँ। हमसे पूछते हो कि कुछ लेकर आयी है?
अरे, जो तुम्हारा न हो सो लेकर आवें। बोले- आखिर गोपी! बिना कुछ हुए तो कोई रह ही नहीं सकता। बोली- तो तुम तो मेरे हो ही न। प्रेम में इधर मेरा कुछ नहीं, और उधर कहा- मेरे तुम। यह प्रेम का स्वरूप है। जिसके कृष्ण के सिवाय दूसरा कोई मेरा नहीं है, उससे सलाह लेकर कृष्ण करते हैं। प्रेम राधा और कृष्ण दोनों को अपने वश में रखता है; राधा भी कृष्ण के वश में और कृष्ण भी प्रेम के वश में। यह रासलीला बताती है कि प्रेम के वश में है भगवान्। अब आपको एक बार फिर से पुरानी बात पर ले जाते हैं। योग में जो समाधि होती है वह जगदाकारवृत्ति, जीवाकारवृत्ति और ईश्वराकारवृत्ति, तीनों का निरोध करके होगी। वह निरोधवृत्ति तीनों पर काबू कर लेगी। जब निरोधवृत्ति होगी तब समाधि लगेगी।*
वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत- सम्प्रज्ञात समाधि, चारों भेद जब निरुद्ध हो जाएंगे तब असम्प्रज्ञात समाधि लगेगी। समाधि में सत्तामात्र रहती है। सत्ता की प्रधानता से जो समाधि लगतीहै उसमें भी ऐश्वर्यशाली ईश्वर का निरोध हो जाता है परंतु वहाँ वह निष्क्रिय रहता है। अच्छा, जहाँ चिन्मात्र वस्तु का ज्ञान होता है वहाँ भी जीव, ईश्वर, जगत्- तीनों का, चिन्मात्र की प्रधानता में निरोध या बाध हो जाता है। उसके लिए निरोध की जगह बाध शब्द का प्रयोग होता है। स्फुरण-मात्र चैतन्य रहता है। निष्क्रियता का आग्रह नहीं है, निष्क्रियता और सक्रियता दोनों चिन्मय हैं। परंतु वह चिन्मात्र जीवत्व, ईश्वरत्व, जगतत्त्व, तीनों का बाध करके जाग्रत् होता है।
आप देखो- बिल्कुल एक ही चीज है। हम यह बताना चाहते हैं कि सच्चिदानन्द में- से कहीं किसी भी एक चीज का जब अनुभव होगा तो ईश्वरत्व, जीवत्व, जगत्व का- निरोध करके होगा। सत्तामात्र जो स्थिति है, उस समाधि में, ईश्वर, जीव, जगत् निष्क्रिय हो जाते हैं। और चिन्मात्र वस्तु का बोध होने से जो जीवत्व, जगत्व और ईश्वरत्व का बाध है वहाँ ईश्वर जीव-जगत् सक्रिय भी हो सकते हैं और निष्क्रिय भी हो सकते हैं। परंतु बाध होता है।
अब आनन्दमात्र, प्रियतामात्र जो है, उसमें क्या होगा? तो देखो- योग के समान तो वहाँ निष्क्रियता नहीं है और चिन्मात्र के समान सक्रियता-निष्क्रियता के बाधित होने पर भी केवल चिन्मात्रता नहीं है, आनन्दरूप चिन्मात्रता है। इसलिए जीवत्व स्फुरित होता हुआ भी प्रिय है, ईश्वरत्व स्फुरित होता हुआ भी प्रिय है, जगत् स्फुरित होता हुआ भी प्रिय है। वहाँ गोपी स्फुरित होते हुए भी जीवत्व है। कृष्ण स्फुरित होता हुआ ईश्वरत्व है और वृन्दावन स्फुरित होता हुआ जगत्व है। इसमें समाधि के समान तो निष्क्रियता नहीं है और चिन्मात्र के समान केवल स्फुरणमात्रता नहीं है, इसमें आनन्द रसात्मक स्फुरता है, आनन्द रसात्मक अद्वैत है और आनन्द रसात्मक जीवत्व, जगत्व, ईश्वरत्व की स्फुरणा है। इसका नाम प्रेम हुआ। सन्मात्र की प्रधानता से समाधि, चिन्मात्र की प्रधानता से ज्ञान और आनन्दमात्र की प्रधानता से प्रेम और मूलतः तीनों स्थिति बिलकुल एक होती है। तो भाई, बात यह है कि हमारे कई श्रोता आज कहेंगे कि वह मजा नहीं आया जो रास में, रासलीला में मजा आता है। कई बात तो समझदार के लिए भी कहनी पड़ती है और कई बात सिर्फ प्रेमियों के लिए कहनी पड़ती है।*
श्रीकृष्ण का वर्णन आता है गोपियों की प्रेम-परवशता का-
क्षीरसारपहृत्य शंकया स्वीकृतं यदि पलायनं त्वया ।
मम मानसे घनान्धतामसे नन्दनन्दन कथं न लीयते ।।
कोई गोपी कहती है- अरे, मक्खन, चुराकर क्यों भागता है? अन्धेरे में क्यों छिपते हो? सबसे ज्यादा अन्धेरा मेरे मन में है। इसी में छिप जाओ। कृष्ण ने कहा- अरी चल! यह ससुरी कहीं से योगिनी आयी है, यह हमारे व्रज की ग्वालिनी नहीं है। कहती है- मन मं आकर छिपो ! अरे मन में क्या छिपात है, आँचल में छिपाओ न! कृष्ण व्रज में, मन में छिपने के लिए नहीं आये हैं। आँचल में छिपने के लिए आये हैं। यह व्रज की विशेषता है। क्योंकि वहाँ बाह्य और अभ्यन्तर का भेद मिट गया है। इस पृष्ठभूमि में रासलीला को यदि समझोगे तब वह समझ में आयेगी। वह बहुत मोटे स्तर पर नहीं है। एक दिन गोपी ने कहा- कन्हैया! आज तो हमारे घर में कोई नहीं है। बोले- क्या बात है, क्यों सूचना देने आयी हो? कहा- सूचना देने नहीं आयी हूँ। हमको गोबर की टोकरी उठाकर ले जाना है और घर में कोई है नहीं, तो मैं तुमसे मदद के लिए आयी हूँ कि तुम घर चले चलो, जरा हाथ लगाकर टोकरी उठवा देना।
कृष्ण ने कहा- जा-जा, मैं तेरे बाप का कोई नौकर हूँ, क्यों उठवाऊँ? अरे। बाबा मिलेगा कुछ? बोली- जितनी टोकरी उठवाओगे, माखन के उतने लोंदे मिलेंगे। कहा- यही बात हुई न? अच्छा चलते हैं। लेकिन ग्वालिनी। तेरा विश्वास नहीं है। टोकरी उठवाओगी ज्यादा और माखन के लोंदा देगी कम-तो कैसे बनेगी बात। बोली- आओ, गिनती कर लेंगे। कहा- कैसे गिनती करोगी? बोली- जितनी टोकरी उठवाओगे उतनी बिन्दी गोबर की मैं तुम्हारे मुँह पर लगाती जाती हूँ। अब, महाराज कृष्ण कन्हैया का गोरोचन का तिलक और वह सुन्दर बाल और वह पीताम्बर, और वह वनमाला, वह बाँसुरी, मगर माखन की लालच में आ गये और मुँह पर बिन्दी लगवाने लगे। पहले सारे ललाट पर गोबर की बिन्दी लगा दिया फिर बोली- कि अब कपोल पर! गोबर का बेलबूटा लगा मुँह पर। सैकड़ों टोकरी उठवायी। तो बोले कि- माखन का लौंदा लाओ, टोकरी गिनो, गिनकर दो। बोली- न, ऐसे नहीं मिलेगा। कहा- कैसे मिलेगा? कि नाचो। अब तो महाराज, एक हाथ रखा कमर पर एक हाथ उठाया और नाचने लगे- ‘ताताथेयी- ताताथेयी।’
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (030)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
भगवान की प्रेम-परवशता (योगमायामुपाश्रित:)
नारदजी आये-
गौमय-मण्डित-भाल-कपोलं- गोबर लगा है शिरपर, कपोलपर गोबर लगा है-
गोमय-मण्डित-भाल-कपोलं, चेतसि चिन्तय चिन्मयभासम् ।
नूतन-जलधर-रुचिर-विकासं, पीतवसनधर सुन्दर नटवर ।।
मधुर-विकस्वर-सुललित-हांस, चेतसि चिन्तय चिन्मय भासम् ।
अरे रे मन! इस चिन्मय ज्योति का स्मरण कर। चेतसि चिन्तय- यह अतिमानस का बना नहीं है, पञ्चभूत का बना नहीं है, यह चिन्मय ज्योति है। “चेतसि चिन्तय”- अपवाद कर दो वहाँ से पञ्चभूत का यावद्देश में श्रीकृष्ण है वहाँ से पञ्चभूत का अपवाद कर दो। जैसे- खिड़की में माटी नहीं होती आकाश होता है, वैसे श्रीकृष्ण में पञ्चभूत नहीं होता, ब्रह्मज्योति होती है। ‘चेतसि चिन्तय चिन्मयभासम्’। ‘नूतन जलधर रुचिर विकासम्’- वर्षाकालीन रसवर्षी मेघ के समान सुन्दर चिन्मय ज्योति श्रीकृष्ण का चिन्तन करो। पीतवसनधर- जैसे मेघ पर बिजली चमके ऐसे ‘पीतवसन’ यह तात्पर्य है। आओ कृष्ण का ध्यान करो कैसे? कि भाल पर, ललाट पर कपोल पर गोबर के टीके लगे हुए हैं और गोपी का माखन का लौंदा लेने के लिए इस जगन्नाथ का सूत्रधरा स्वयं नृत्य कर रहा है। क्या उस ग्वालिनी में सामर्थ्य है ब्रह्म को नचाने की। कहा- नहीं ग्वालिनी में ब्रह्म को नचाने का सामर्थ्य नहीं है, प्रेम में श्रीकृष्ण को नचाने का सामर्थ्य है। इस कृष्ण कन्हैया को लौकिक सामग्री, कोई लौकिक सम्पत्ति नचा नही सकती। इसको केवल प्रेम नचा रहा है।
अब जब रास प्रारम्भ करना हुआ तो वही प्रेममयी प्रेममूर्ति श्रीराधारानी हैं न, उनके पास गये और जाकर पाँव ही पकड़ लिया। क्या बात है प्रीतम, यह क्या कर रहे हो? नारायण, नारायण, नारायण, यह क्या कर रहे हो? शान्तं पापं अब्रह्मण्यं-अब्रह्मण्यं- क्या बोलते हो? यह क्या करते हो? बोले-करते यह है कि मैंने तुमसे पूछे बिना गोपियों से कह दिया कि- ‘मयेमा रंस्यथक्षपाः’ रात की मर्यादा ही नहीं की कि कितनी रात, आज से लेकर के कल्पपर्यन्त की रातें मैंने गोपियों को दान कर दी है और तुमसे पूछा नहीं। पहले तो अपराध क्षमा करो। श्रीराधा ने कहा- जो तुमने कह दिया प्रीतम तो वह मेरा भी कहना हो गया। बोले- लेकिन तुम न चलोगी रास में तो हमारा मन गोपियों में नाचने में कैसे लगेगा? तुम्हारे बिना तो रासलीला होगी नहीं। मैं कैसे मुस्कराऊंगा यदि तुमने सामने होओगी नहीं? हमारे हृदय में प्रेम कैसे आएगा? हमारी नेत्र-ज्योति प्रेम की कैसै वर्षा करेगी? मैं बाँसुरी में क्या गाऊँगा?
‘योगमायामुपाश्रितः’ प्रेम के अधीन होकर श्रीराधारानी के पास गये और बोले कि देवि! तुम प्रसन्न होकर रासलीला में चलो। तुम्हारे सम्मिलित होने से ही यह रासलीला संपन्न हो सकती है। बिना राधा के, बिना राधिका के, बिना आराधना के, यह रास हो ही नहीं सकता।*
कृपा-योग का आश्रय और चंद्रोदय
रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः तदोडुराजः
भगवानपि ता रात्रीः शरोदत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ।।
तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।
सचर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्, प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ।।[1]
भगवान ने अपने रमण के योग्य वृन्दावन स्थान, वह शारदीय रात्रि समय और गोपियाँ- इन तीनों का वीक्षण किया, अपनी दृष्टि से तीनों को बनाया और फिर बिह का संकल्प किया। इसमें एक भगवान का गुण निकलता है- ‘आश्रयण-सौकर्यापादकत्व।’ जो लोग भगवान का आश्रय लेना चाहते हैं, उनके अन्दर कोई कमी हो, तो उसको भगवान पूरी कर देते हैं। समझो एक अन्धा है और वह भगवान के दर्शन के लिए व्याकुल है कि हम आँख से देखें- तो भगवान पहले उसको आँखें दे देते हैं और फिर दीखते हैं, देखने की शक्ति देकरके दीखते हैं। एक पंगु है; वह जाना चाहता है भगवान के पासतो उसको पाँव देकर उसको अपने पास आने की शक्ति दे देते हैं।
ऐसा कृपालु और कोई नहीं है। तो संसार में कोई ऐसा स्थान नहीं जो भगवान को अपने भीतर ले ले। ऐसा कोई समय नहीं जो भगवान को अपने भीतर ले ले, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो भगवान को लुभा ले। लेकिन भगवान का हृदय ही इतना कोमल है कि स्थान में भी समा जाते हैं, अट जाते हैं, काल में भी आ जाते हैं, व्यक्ति को भी मिल जाते हैं। यह भगवत्-कृपा है। अपने आश्रित का काम बना देना यह भगवान का स्वभाव है। ‘आश्रित-कार्य-निर्वाहकत्व’- इसको बोलते हैं। हमारे एक साथी हैं; उनको काम करने को कहो तो कहते हैं कि मिथ्या है और दवा खाने को कहो- तो सत्य है; भोजन करना सत्य है, कपड़ा पहनना सत्य है, रुपया पैसा चाहिए तो सत्य है, लेकिन कमाई करने को कहो- तो बोलेंगे सब मिथ्या है। ये मिथ्यावाद सब झूठे हैं, कभी किसी काम के नहीं हैं।*
कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय
देखो, आपको सिद्धांत की बात सुनाता हूँ- कच्चे वेदान्तियों की बात नहीं करता हूँ। शांकर वेदान्त की बात कहता हूँ। लेकिन जो लोग किताब पढ़कर शंकर वेदान्त को समझते हैं उनकी समझ में यह बात नहीं आती है। शांकर वेदान्त में मिथ्या माने ब्रह्म होता है। जैसे- सर्प मिथ्या; तो मिथ्या सर्प माने रज्जु हुआ कि नहीं? सर्प मिथ्या है- माने रज्जु ही है, सर्प नहीं है। प्रपञ्च मिथ्या है माने प्रपंच ब्रह्म है। अध्यस्त जो है वह अधिष्ठान से किंचित् भी भिन्न नहीं होता- यह औपनिषद सिद्धांत है, शंकर सिद्धांत है, यह ब्रह्म ज्ञानियों का अनुभव है। जिसको अध्यस्त बोलते हैं, जिसको मिथ्या-मिथ्या बोलते हैं, वह जिसमें अध्यस्त है, जिसमें प्रतीत हो रहा है, जिससे प्रतीत हो रहा है, उससे भिन्न नहीं है, बिलकुल वही है। अगर यह बात समझ में नहीं आयी तो न उपनिषद्-सिद्धांत समझ में आया, न शांकर वेदांत समझ में आया; करते रहो दृश्य से द्रष्टा भिन्न। अभी तो भिन्न शब्द का अर्थ ही समझ में नहीं आया कि- भिन्नत्व क्या होता है। ब्रह्म ज्ञानी के लिए यह नाम रूपात्मक प्रपञ्च भी ब्रह्मात्मक ही होता है, ब्रह्म ही होता है। भगवान् की रासलीला तब समझ में आयेगी जब इस धरातल पर इस पृष्ठभूमि में बुद्धि स्थित होगी जैसा कि गीता में कहा है-
बहिरन्तश्च भूतानां अचरं चरमेव च
सबके बाहर भी वही; चर भी वही, अचर भी वही। चरत्वेन प्रतीयमान भी ब्रह्म और अचरत्वेन प्रतीयमान भी ब्रह्म। स्वयं प्रकाश अधिष्ठान में अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह देखो ब्रह्म- साँवरा-सलोना, व्रजराज-कुँवर बनकर अधरों पर बाँसुरी धारण करके शिर पर मोर-मुकुट बाँधकर, पीताम्बर ओढ़कर सम्पूर्ण जगत् को अपनी ओर आकर्षण करने के लिए प्रत्यक्ष हो रहा है। एक दूसरी बात- जो लोग अपने को तो मानते हैं कि मकान बनाया हमने, हमने घड़ा बनाया, हमने कपड़ा बनाया, हमने पाप बनाया, हमने पुण्य बनाया, हमने सुख बनाया- हमने दुःख बनाया। और संसार किसने बनाया? कि बनाने वाले ईश्वर को हम नहीं मानते हैं। जो अपने को तो कर्ता मानते हैं, पर संसार का कर्ता नहीं मानते हैं वे महामूर्ख हैं। वेदान्त की दृष्टि से भी महामूर्ख हैं और लौकिक युक्तिवाद की दृष्टि से भी महामूर्ख हैं। इस देह में आकर चैतन्य पापी बने, पुण्यात्मा बने, सुखी बने, दुःखी बने, कर्ता बने, और सृष्टि बिना सर्वज्ञ, शक्तिमान, कर्ता के बन जाए- यह विचार बिलकुल गलत है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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