श्रीराधाचरितामृतम्” 141(3) रुक्मणी राधा भेंट भई ….
भाग 3
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श्याम सुन्दर की पत्नीयाँ आयी हैं ……ललिता सखी नें कान में कहा ।

कहाँ हैं ? श्रीराधारानी एकाएक उठकर खड़ी हो गयीं………
रुक्मणी को दिखाया, और सत्यभामा को भी ……….
दौड़ कर गयीं श्रीराधारानी …..और बड़े प्रेम से रुक्मणी को और सत्यभामा को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
अपनें पास बैठाती हैं रुक्मणी को …………….रुक्मणी को छूती हैं श्रीराधारानी ………केशों को छूती हैं………हाथ पकड़ती हैं ।
श्याम सुन्दर प्रसन्न हैं ना ? श्रीराधा नें और कुछ नही पूछा ……न कुछ और कहा ……..बस यही प्रश्न ……श्याम सुन्दर प्रसन्न हैं ना ?
हाँ ………प्रसन्न हैं ……..और .आपसे मिलकर उन्हें ज्यादा प्रसन्नता हुयी है ……..आपको वह बहुत याद करते हैं……….रात रात में आपका नाम लेकर अश्रु गिराते रहते हैं………..रुक्मणी बोलती रहीं ।
तुम बहुत सुन्दर हो ……..रुक्मणी के गालों को छूआ श्रीराधा नें ।
हँसी रुक्मणी ……..मैं सुन्दर हूँ ? हे राधिके ! मैं तो आपकी दासी की दासी के बराबर भी सुन्दर नही हूँ …………..
नही ……..ऐसा नही है …….आप सुन्दर हो …….आप मेरे श्याम सुन्दर की पत्नी हो ……….उनका ख्याल रखना ………उनको कोई कष्ट न हो ……….उनका विशेष ख्याल रखना …………..
इतना ही बोल पाईं श्रीराधारानी ……………..रुक्मणी के पीछे सत्यभामा भी थीं ……..उन्होंने इशारा करके कहा …….दुग्ध पिलाओ ……..प्रार्थना करके पिलाओ ……….सत्यभामा नें कहा ।
हे राधारानी ! ये गौ का दुग्ध है ……हम बड़े प्रेम से लाईं थीं ……आप इसे स्वीकार करें ! रुक्मणी नें वह दुग्ध सामनें रख दिया ।
नही ………..आप लोगों नें क्यों कष्ट उठाया ………….श्रीराधा नें मना कर दिया दुग्ध पीनें से ।
पर “श्याम सुन्दर नें भेजा है आपके लिए ये दूध” ………सत्यभामा नें झूठ बोल दिया…….श्याम सुन्दर के नाम से दूध पीएंगीं ये सत्यभामा को विश्वास था ……और हुआ भी यही ।
क्या ! मेरे श्याम सुन्दर नें दूध भेजा है ………..मेरे लिए ?
बस सामनें रखे हुए पात्र का ढक्कन हटाया ……..और बिना कुछ विचार किये पूरा दूध पी गयीं ………..हा श्याम ! कहते हुए फिर मूर्छित हो गयीं थीं श्रीराधा ।
प्रणाम करके रुक्मणी सत्यभामा निकल गयीं अपने शिविर की ओर ।
मैया यशोदा से मिलनें कल आजायेंगें …………ऐसा सोचते हुए चलीं जा रही थीं ये दोनों महारानियाँ ………………
उफ़ ! सुन्दरता की तुलना में तो हम कहीं टिकती ही नही हैं ………क्या रूप ! क्या सौन्दर्य ! …….क्या लावण्य …………कोई कोई तुलना नही है राधारानी की ……….रुक्मणी यही सब कहती हुयी अपनें शिविर में आगयी थीं ।
चरण वन्दन किया द्वारकेश के रुक्मणी और सत्यभामा नें ।
राधा से मिल लीं ? कैसी है राधा ? सुन्दर है ना ?
मुस्कुरा रहे थे द्वारकेश………ये सब कहते हुए ।
ओह ! ये क्या ? रुक्मणी चौंक गयीं……..चरण में देखे ……..छाले पड़ गए हैं चरण में……..बड़े बड़े फफोले हो गए हैं ……….
नाथ ! ये क्या है ? आपके चरणों में छाले …..कैसे हुए ?
दुःखी स्वर में पूछ रही थीं रुक्मणी ।
क्या कहूँ रुक्मणी ! तुम्हे बुरा लगेगा अगर ये कहूँ कि …..तुम्हारे कारण ही मेरे पाँव में छाले पड़ गए ।
मेरे कारण ? रुक्मणी जी सोच में पड़ गयीं ।
सुनो ! रुक्मणी ! सुनो ……….श्रीराधा सदैव मेरे चरणों का ही चिन्तन करती रहती हैं ………..उनके हृदय में मेरे चरण ही रहते हैं ।
वो दूध नही पीतीं………..पर तुमनें उन्हें दूध पिलानें के लिए मेरा नाम लिया……….और मेरे नाम से वो एक ही साँस में पूरा दूध पी गयी…….उन्होंने ये भी नही देखा कि दूध गर्म कितना था !
हे रुक्मणी ! मेरी राधा कोमलांगी हैं ………….क्या उस गरम दूध को वो सह लेतीं ? नही ……………
और वैसे भी मेरे चरणों का ध्यान इतनी तन्मयता से उनका चल रहा था ……………वो गर्म दूध मेरे ही चरणों का मानों अभिषेक कर रहा था ………..दूध गर्म था …………फिर मैने दूध का सारा ताप अपनें ही इन पांवों में ले लिया ……….मैं अपनी कोमलांगी राधा को कोई ताप दे नही सकता था ना !
रुक्मणी स्तब्ध थीं………नेत्र सजल हो उठे थे ……….
कृष्ण मुस्कुराये…….और बोले…….राधा क्या है ? अब समझ में आया रुक्मणी ! रुक्मणी नें सिर झुका लिया था ……सत्यभामा नें प्रणाम किया था…..राधा क्या है ये समझ में आगयी थी दोनों महारानियों के।
शेष चरित्र कल-
!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 27 )
गतांक से आगे –
॥ पद ॥
सदा सुदंपति कें मन मानी। महल टहल में महा सयानी ॥
डोलत बोलत कोकिल बानी । रमझमाति रति रस में रानी ॥
परम चतुरि जिय की सब जानें। समझि समझि सोई बिधि बानें ॥
मुख तें जोइ जु वचन बखानैं। जाकों सुनि दोऊ रुचि मानैं ॥
छिन छिन प्रति नव नेह जनावैं। बिबिधि बिनोद मोद उपजावैं ॥
नवल जुगलबर कैं मन भावैं। अंग अनंग तरंग बढ़ावैं ।।
दुतिय सुदेवी सहचरि जानों। महामोहनी मन की मानों ॥
काबेस्यादिक आठ बखानों। तिनकी आठ आठ परिवानों ॥
****ये श्रीसुदेवी जी हैं” मुझे दर्शन कराये हरिप्रिया जी ने । और ये भी बताया कि अष्ट सखियों में ये दूसरी सखी हैं । इनका मुखमण्डल तो श्रीरंगदेवि जी से मिलता है ! मैंने जब कहा तो….क्यों नही मिलेगा ….दोनों बहनें हैं …और जुड़वा हैं । हरिप्रिया जी ने मुझे बताया । ओह ! मैंने श्रीसुदेवी जी के चरणों में प्रणाम किया …बड़ी श्रीरंगदेवि जी हैं ये छोटी हैं …कुछ घड़ी का ही अन्तर है । ये प्रिया प्रियतम को आनन्द देती हैं , विशेष – प्रिया जी की लाड़ली तो ये हैं हीं , किन्तु लाल जी को भी ये बहुत प्रिय हैं …बहुत प्रिय । हरिप्रिया जी एकाएक उत्साहित हो उठीं …और चहकती हुई बोलीं …सुनो , सुनो …ये उस दिन की घटना है …फिर मुझे बताने लगीं ।
उस दिन थकीं थीं …श्रीसुदेवी जी । क्यों की उत्सव में बहुत नृत्य किया था इन्होंने ….फिर सेवा में भी उत्साह से भाग लिया था …हाँ , उस दिन ब्याहुला उत्सव था ….कुछ स्मरण करके हरिप्रिया बोलीं थीं । रात हो गयी , रात क्या अर्धरात्रि हो गयी थी । युगलवर को शयन कराकर सब सखियाँ अपने अपने महल में आगयीं । यहाँ हरिप्रिया कुछ देर के लिए चुप हो जाती हैं ….फिर आगे बोलती हैं …..श्रीसुदेवी जी अपने पर्यंक में लेट गयीं ..उनकी पलकें भारी हो गयीं तो नेत्र बन्द कर लिए …तभी किसी के हाथों ने श्रीसुदेवी जी के पाँव दबाने शुरू कर दिए थे…कौन ? श्रीसुदेवी जी ने एक बार अपनी आँखें खोलकर देखीं ….तो श्रीरंगदेवि जी दिखाई दीं । आपस में सखियाँ एक दूसरे की सेवा करती ही थीं …आज श्रीरंगदेवि जी ने की ….ऐसा सोचकर श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए ….और कुछ देर में उनको पता नही क्या कुछ स्मरण आया ….उन्होंने नेत्र खोले तो वहाँ कोई नही है ….फिर श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए …उन्हें लगा श्रीरंगदेवि जी चली गयीं होंगी अपने महल में …तभी कुछ देर में श्रीरंगदेवि जी आयीं ….श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र खोलकर ….”पाँव अच्छे से दबा दिए आपने”…श्रीरंगदेवि जी से कहा , इधर उधर देखते हुए श्रीरंगदेवि जी बोलीं …मैं तो आयी नही , मैंने कहाँ पाँव दबाये !
क्या ? आप अभी नही आयीं ? आपने ही मेरे पाँव नही दबाये ? स्पष्ट कहा श्रीरंगदेवि जी ने …”नहीं”। अरे ! ये मुंदरी ? श्रीरंगदेवि जी को श्रीसुदेवी के पर्यंक में मिली एक मुंदरी , उसे उठा ली थी , श्रीसुदेवी जी भी उठ गयीं । “ये तो स्वामिनी जू की मुंदरी है ना ? हाँ , ….श्रीरंगदेवि जी ने कहा । पर ये यहाँ कैसे ? तभी – ओह ! श्रीसुदेवी जी के नेत्रों से झर झर अश्रु बहने लगे थे …..आप ने मेरे पाँव नही दबाये ? श्रीरंगदेवि जी ने कहा …सुदेवी ! तुम्हारी सौं मैंने नही दबाये । बस , हिलकियों से रोती हुई श्रीसुदेवी जी बोलीं …करुणामयी आयीं थीं ….और तुम्हारे रूप में आयीं थीं मेरे पाँव दबाकर चली गयीं । ओह ! अब दोनों बहनें रोने लगीं …और यही कह रहीं थीं कि …..कितना ध्यान रखती हैं स्वामिनी हम दासियों का भी ।
हरिप्रिया अपने अश्रु पोंछते हुये कहती हैं – किन्तु स्वामिनी ने कभी हम सबको दासी माना ही नही …वो अपनी सखी कहती हैं ….उनका वश चले तो अपने पास ही वो बैठायें । वो तो हम हैं जो जोर-ज़बर्दस्ती से उनके चरणों में ही बैठती हैं ।
यही श्रीसुदेवी जी हैं ……इनके मन में बस प्रिया लाल ही समाये हुए हैं ….और हाँ , ये श्रीसुदेवी जी जैसी हैं वैसी ही इनकी सखियाँ भी हैं …..अष्ट सखियाँ हैं इनकी भी …ये अपनी सखियों को बहुत प्यार करती हैं …युगल की सेवा में अपनी सखियों को आगे रखती हैं …ताकि सेवा करने का सुख उन्हें भी मिले । प्रेम रस में निमग्न होकर झूमती आनन्द रस में डूबती ये बस -राधा , राधा राधा ही पुकारती रहती हैं, हरिप्रिया जी बोलीं – प्रतिक्षण इनका प्रेम नवनवाय मान होता रहता है ।
अब श्रीसुदेवी जी की अष्ट सखियों का नाम सुनो …और मेरे साथ बोलो …….
हरिप्रिया बोल रहीं थीं सखियों के नाम ….मैं उनके पीछे बोल रहा था ।
आप रसिक जन भी बोलिए …श्रीसुदेवी जी की ये अष्ट सखियाँ हैं –
कावेरी जी , मंजुकेशी जी , सुकेशी जी , कंबरा जी , हार कंठी जी , मनोहरा जी , महाहीरा जी , और हीरा हारा जी । हरिप्रिया जी ने नाम लेकर फिर हृदय की पूर्ण श्रद्धा से इन सबको प्रणाम किया था …मैंने भी स्वाभाविक था हरिप्रिया जी का अनुसरण ही किया , प्रणाम किया ।
शेष अब कल –
🎈 राधे राधे🎈
[ Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (113)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का उदय
श्री उड़ियाबाबाजी महाराज जब थे, उन दिनों फूलमाला सस्ती थी। दो पैसे में एक नन्ही-सी माला आ गयी, और उसको लेकर कोई आ गया और बाबा को माला पहना दी; और दूसरा कोई जो चन्दन लगा रहा था उसी में चन्दन लेकर माथे में लगा दिया और आरती उतारने लगा। बाबा बहुत मजाक करते थे। वह हँसते रहते थे। गुरुपूर्णिमा के दिन तो हजारों लोग पूजा करते थे, और वह चुपचाप बैठे रहते। वह बात भी करते जाते थे, हँसते भी जाते थे। कहते-अरे-अरे ओ बृजमोहन! मैं पहचान गया- भाई, दो पैसे की माला चढ़ाने के दो रुपये का लड्डू खाना चाहते हो। तो पूजा करने वाले लोग भी बड़े विलक्षण होते हैं।
लखनऊ में नीबू-निचोड़ होते थे; वे लोग नीबू और चाकू अपनी जेब में रखते थे और भोजन के समय जब थाली नवाब साहब के सामने परसी जाती ती चाकू से नीबू काटकर थाली में निचोड़ देते थे। अब तो नवाब साहब कहते- आइये आप भी बैठ जाइये; लो हो गया, एक अधेले का नीबू और नवाब के साथ भोजन! तो कई लोग समझते हैं कि ठाकुरजी को हम कुछ देवें, उनके पार्टनर हो जायँ। लेकिन नारायण। गोपी कहती हैं कि हमको उपासना के फलस्वरूप कुछ नहीं चाहिए, हम केवल तुम्हारी उपासना करना चाहती हैं। हम तुमको सुख पहुँचाना चाहती हैं।
उपासना का यह भी अर्थ है कि अगर तुम हमारे हाथ से नहीं खाते, तो कोई बात नहीं है, तुम्हारी जैसी खुशी, लेकिन हमें अपने पास बैठने तो दो। केवल तुम्हारे पास बैठने के लिए हम आयी हैं। अच्छा, अब दूसरी बात क्या हुई कि ‘उपासनाशाः’ अपनी बस्ती छोड़कर आयी हैं क्योंकि अगर हम बस्ती में रहें तो तुम्हारे पास बैठने का नाश हो जाता है- त्वदुपासनाशाः। देखो, यह जो पास बैठना बोलते हैं, वह भी उपासना ही है। पास के लिए संस्कृत में पार्श्व शब्द का भी अर्थ होता है ‘पास’, उप+आसन = उपासन = पास = पास; इसमें ‘उ’ का लोप हो गया तो पास रह गया। तो पास बैठना शब्द भी मानो उपास में से ही निकला है। श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा- अच्छा, तुमने त्याग किया, वैराग्य किया, हमारे चरणों में पहुँचत गयीं; सब मैं मानता हूँ, तुम्हारे प्रेम, त्याग, सेवा सब हमारे सिरमाथे, हम उसके लिए तुम्हारे कृतज्ञ हैं, और हम क्या कर सकते हैं?*
ऋग्वेद में ज्ञान-सूक्त में मंत्र आता है- यास्तित्याजसचिविदं सखायं न तस्य वाच्यापि भागो अस्ति
‘सचिविदं सखायं’ ईश्वर सखा है, परंतु कैसा सखा है कि जो सख्य को समझे ऐसा सखा है। सचिविद में जो ‘सचि’ है इसका अर्थ होता है सख्य। ‘सचिवालय’ और ‘सचि’ है इसका अर्थ होता है सख्य। ‘सचिवालय’ और ‘सचिदेव’ में भी यही सचि है। तो ‘सचिविदं सखायं’ का अर्थ हुआ कि यह जो ज्ञानस्वरूप ईश्वर है वह सका है और वह सख्य को जानने वाला है। अर्थात प्रेम को जानने वाला प्रेमी है ईश्वर। दुनिया में तुम जिससे प्रेम करते हो वह तुम्हारे प्रेम को समझता है? अरे, वह तुम्हारी आँख को समझ सकता है कि तुम्हारी आँखें बड़ी-बड़ी हैं, वह तुम्हारे होंठ को समझ सकता है कि उस पर मुस्कान है; वह तुम्हारी शरीर को चमड़ी के रंग को समझ सकता है कि बहुत बढ़िया है; वह तुम्हारी आवाज की मिठास को समझ सकता है; लेकिन तुम्हारे दिल में कितना प्रेम है दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो समझ सके। तो ईश्वर कौन?
बोले कि ‘सचिविदं सखायं’ तुम्हारे हृदय में जो ईश्वर के प्रति प्रेम है, उस हृदय में रहकर वह उस प्रेम को जानता है और तुमसे प्रेम करता है। तुम्हारे प्रेम को समझे और तुमसे प्रेम करे, ऐसा प्रेमी है ईश्वर! और दुनिया में प्रेम हो तो तुम्हारा प्रेमी बस तुम्हारे सिनेमा के या किसी प्रेम-पुस्तिका के रटे रटाये ‘डायलाग’ (संवाद) ही समझेगा या फिर कि तुम्हारी आवाज कितनी मीठी है, तुम्हारे हृदय में कितना प्रेम है, इसको तो वही समझेगा, जो तुम्हारे हृदय में रहता है। ईश्वर उसी को बोलते हैं, और उसको जिसने छोड़ दिया, अपने प्रेमी के प्रेम को पहचानने वाले सच्चे प्रेमी परमेश्वर को जिसने छोड़ दिया, नारायण! उसके पास रहा क्या? ठन-ठन पाल, कुछ नहीं। अच्छाजी आओ; श्रीकृष्ण ने कहा- गोपियो, सब ठीक है, पर हमसे तो सीधी-सीधी बात करो कि तुम चाहती क्या हो? और मैं क्या दूँ? क्या करूँ कि तुमको संतोष होगा? बात जो ठीक हो वही करना चाहिए।++
गोपी बोली- देखो, तुम समझते नहीं हो? बात जो ठीक हो वही करना चाहिए। गोपी बोली- देखो, तुम समझते नहीं हो क्या? बोले- हम समझते तो हैं लेकिन तुम्हारे मुँह से सुनना चाहते हैं। बोली- यह दिल की बात, प्रेम की बात, मुँह में लाकर, कहलाकर मुँह से जूठी करवाना चाहते हो? बोले- यह दुनिया तो तुम्हारी जूठी खाने लायक है, तुम्हारा प्रसाद ही पाने लायक है क्योंकि गोपियो, यदि तुम प्रेम की कोई बात अपने मुँह से बोलोगी तो यह सारी सृष्टि उसका प्रसाद लेगी; हम यही तो चाहते हैं कि तुम्हारे हृदय में जो प्रेम है उसका प्रसाद सबको मिल जाय। पर प्रसाद मिलेगा कैसे? जब बोलोगी तब न। बोली- नहीं, यह दिल की बात कहने लायक नहीं; प्रेम कहने से हल्का पड़ जाता है, प्रेम की बात जबान पर नहीं आती है। प्रेम की बात जूठी नहीं करनी चाहिए। बोले- कुछ भी बोलो। सारा जगत् हमारा स्वरूप है, और हम सारे जगत् के रूप में तुम्हारे मुख से निकले हुए इस उच्छिष्ट प्रेम-प्रसाद को अपने कानों के द्वारा पीयेंगे और सारी सृष्टि पीयेगी। तुम्हारे दिल में जो प्रेम भरा हुआ है वह आज बोलकर तुम बताओ। गोपियाँ बोलती हैं-
त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ।
हे पुरुषभूषण। तुम हो पुरुषोत्तम, पुरुषरत्न, पुरुषभूषण, पुरुषलंकार। पुरुषभूषण माने- ‘पुरुषेषु भूषु हृदयम् तस्मिन् पोषते पीडाम् जनयति’ दुनिया में सबका दिल तुमने दुखा रखा है; अब कहे बिना रहा नहीं जायेगा; दुनिया में जितने लोग दुःखी हो रहे हैं तुम्हारे वजह से, तुमने सबके दिल में बैठ-बैठकर रोग फैलाया है, पीड़ा का रोग। पुरुषभूषण, क्यों फैलाया है, जानते हैं? डॉक्टर ने गाँव में रोग फैलाया जिससे कि दवा के लिए हमारे पास आवे। इसी प्रकार तुम ईश्वर ने संसार में जो दुःख फैलाया है, वह भी इसीलिए कि लोग जब दुःखी होंगे तो तुम्हारा भजन करेंगे, तुम्हारे पास आवेंगे।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
🪻🪻🪻🪻🪻
श्लोक 6 . 36
🪻🪻🪻🪻
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः |
वश्यात्मना तु यतता शक्योSवाप्तुमुपायतः || ३६ ||
असंयत – उच्छृंखल; आत्मना – मन के द्वारा; योगः – आत्म-साक्षात्कार; दुष्प्रापः – प्राप्त करना कठिन; इति – इस प्रकार; मे – मेरा; मतिः – मत; वश्य – वशीभूत; आत्मना – मन से; तु – लेकिन; यतता – प्रयत्न करते हुए; शक्यः – व्यावहारिक; अवाप्तुम् – प्राप्त करना; उपायतः – उपयुक्त साधनों द्वारा |
भावार्थ
🪻🪻🪻
जिसका मन उच्छृंखल है, उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है | ऐसा मेरा मत है |
तात्पर्य
🪻🪻🪻
भगवान् घोषणा करते हैं कि जो व्यक्ति मन को भौतिक व्यापारों से विलग करने का समुचित उपचार नहीं करता, उसे आत्म-साक्षात्कार में शायद ही सफलता प्राप्त हो सके | भौतिक भोग में मन लगाकर योग का अभ्यास करना मानो अग्नि में जल डाल कर उसे प्रज्ज्वलित करने का प्रयास करना हो | मन का निग्रह किये बिना योगाभ्यास समय का अपव्यय है | योग का ऐसा प्रदर्शन भले ही भौतिक दृष्टि से लाभप्रद हो, किन्तु जहाँ तक आत्म-साक्षात्कार का प्रश्न है यह सब व्यर्थ है | अतः मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर मन को लगाकर उसे वश में करे | कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त हुए बिना मन को स्थिर कर पाना असम्भव है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही योगाभ्यास का फल सरलता से प्राप्त कर लेता है, किन्तु योगाभ्यास करने वाले को कृष्णभावनाभावित हुए बिना सफलता नहीं मिल पाती |

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877