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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 142 !!
सूर्यग्रहण के दिन…..
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आज अमावस्या है ……..पूर्ण सूर्यग्रहण लगेगा ……सूतककाल लग चुका है …………कुरुक्षेत्र में एक विशाल सरोवर है …….इसी सरोवर में स्नान का महत्व है ……….उस सरोवर के कई घाट हैं ……….आमप्रजा के लिये अलग घाट है…….और मुख्य मुख्य घाटों पर राजाओं और व्यापारियों के कब्जे हैं ……उनमें किसी को स्नान की अनुमति नही मिलेगी ।
ये वृन्दावन के ग्वाले हैं ……….ग्रहण से ही पूर्व घाटों पर जाकर स्थान को घेर लिया था …………बड़े बड़े ग्वाले लाठियों को लेकर खड़े हो गए थे कि अब इस घाट पर हम वृन्दावन वाले ही स्नान करेंगें ।
ग्वाल बालों नें यशोदा मैया, गोपियाँ श्रीराधारानी उनकी सखियाँ इन सबको स्नान के लिये भेज दिया …………ये सब स्नान कर रही हैं ……कोई मन्त्र जाप कर रही हैं …….कोई स्तोत्र का पाठ कर रही हैं ।
ग्रहण शुरू होनें वाला है……….पर इन ग्वालों को क्या पता था …….कि जिस घाट को घेरकर ये लोग बैठे हैं…….ये घाट तो द्वारिकाधीश का है ।
आप लोग निकलिये बाहर !………..द्वारिकाधीश अपनें परिवार के सहित आरहे हैं ………..आप लोग इस घाट को खाली कीजिये ।
ग्वालों को अच्छा नही लगा ……….सैनिकों को चिल्लाकर बोले ……महिलाएं स्नान कर रही हैं …………आप कृपा कर मर्यादा का पालन करें और यहाँ से चले जाएँ ………अन्यथा ठीक नही होगा ………..ऐसा कहते हुए अपनी लाठी बाहर निकाल ली थी ।
सैनिकों को क्रोध आया…….हम लोगों को ये ग्वाले लाठी दिखा रहे हैं ।
अस्त्र शस्त्र अगर हमनें निकाले ना ………तो तुम्हारी ये लाठी धरी की धरी रह जायेगी ………सैनिकों का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था ।
तभी सामनें से द्वारिकाधीश आगये ……………ग्वालों को देखा …….ग्वाले दौड़े हुये आये ………और “कन्हैया” कहते हुए अपनें हृदय से लगा लिया ……………..श्रीराधारानी जल में खड़ी थीं ……….उनका ध्यान गया द्वारिकाधीश की ओर …………..वो तो अपलक देखती ही रही अपनें प्यारे श्याम सुन्दर को ।
सैनिकों को रोक दिया द्वारिकाधीश से ………..
और स्वयं सरोवर में प्रवेश करनें लगे ……….हे वज्रनाभ ! उस समय कृष्ण को कुछ भान नही था ………….लाखों लोग चारों तरफ से देख रहे हैं इस बात की भी परवाह नही थी ……………..सीधे अपनी प्यारी श्रीराधारानी के पास गए …………..उफ़ ! श्रीराधा नें जब देखा अपनें सामनें श्याम सुन्दर को …………वो तो खिलखिला उठीं ।
आइये ! रुक्मणी कान्त ! आओ ! सत्यभामा के प्राण प्रिये ! कैसे हो ? इतनी रानियों को सम्भालना पड़ता है ……….मेरे प्रिय ! थक जाते होगे ना ! वो उल्लास वो उमंग जो आपके मुखारविन्द में निरन्तर दिखाई देता था ………..पर इधर ऐसा कुछ दिखाई नही देता ………….थके से …..हारे से लग रहे हो …………..क्या बात है !
श्रीराधारानी नें आज सब कुछ कह दिया था ।
तुम नही हो राधे ! ……तो कृष्ण में उल्लास और उमंग कहाँ से आएगा !
क्रमशः …..
शेष चरित्र कल –
🌺 राधे राधे🌺
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 30 )
गतांक से आगे –
- रत्नप्रभा जू की *
सुदेसा तानमति तारा तरला तानतरंगिनी ।
तरुनि सहचरि सुखसनी महासलौनी अरु सोहिनी ॥
रति कला जू की *
रुचिरबेसा रसिकरूपा प्रीतिपागा रगमगा ।
जगमगा नव जोवनी जगजोति भामिनि जोन्हिका ।।
- सुभद्रा जू की *
मित्रविंदा वंदिनी प्रियवादिनी प्रमुदावली।
मृगजनैंनी महामुदिता सुसीला सौदामिनी ॥
- भद्ररेखा जू की *
प्रभापुंजा प्रेयसी सनमुखी खंजबिलोचनी ।
रमनरंजा रंजनी करपूरिका अभिनंदनी ॥
- सुंदरमुखी जू की *
सुखसायिका चंद्रावली रतनावली रसमंजरी ।
कनकबेली हेमलतिका रंगमाला रसिकनी ॥
- धनिष्ठा जू की *
बिसालाक्षी बिसद-बेसा बिमलबेलि विभावुका।
बरेयस्या महामान्या यसस्वनी पुरटाँगदा ।।
- कलहंसी जू की *
महामधुरा इंदुआभा विभासुभदा तालिका ।
किलंबा मनिमंडला पुनि अष्टमी श्रुतिकुंडला ॥
- कलापिनी जू की *
सुनंदा सुभला बिसाला प्रभद्रा प्रतिमोदिका ।
किंकनी सुघरासहेली पुनि सुजानि सुमोदिका ॥
”निकुँज”अपने आप में एक रहस्य है ….निकुँज उपासना अत्यन्त रहस्यपूर्ण है …इसके रहस्य को आप मात्र बुद्धि के स्तर पर नही समझ सकते ….वहाँ तक पहुँचने की बात तो आप छोड़ ही दीजिए । श्रीगीता वाटिका के श्रीराधाबाबा जी से किसी ने प्रश्न किया था …कि निकुँज के विषय में कुछ बताइये …तब श्रीराधाबाबा जी ने उनसे कहा था …सवा लाख युगलनाम मन्त्र जाप करके आओ तब मैं तुम्हें बताऊँगा । सांसारिक बुद्धि से ये “निकुँज रहस्य” खुल नही सकता …ये रहस्य तो तभी खुलेगा जब किसी निकुँजोपासी रसिक का आप संग करेंगे …उनकी कृपा पायेंगे । हे रसिकों ! मैं भी कहाँ समझ पाता था …सखीभाव समझ से परे था ….विचित्र लगता था जब सोचता था की सखी भाव ? देह पुरुष का और भाव सखी का रखना है । किन्तु बाबा के जब मुझे दर्शन हुए और मैंने उनसे पूछा कि सखी भाव मेरे समझ में नही आती …मैं क्या करूँ ? उन्होंने मुझे प्रथम पद “युगल शतक” का गाने के लिए कहा …कोई तर्क नही , कोई बौद्धिक माथा पच्ची नही , केवल श्रीजी को ये पद सुनाना था-“युगल किशोर हमारे ठाकुर” …..ये पद मुझे आता था …मैंने गाया …बाबा के नेत्र बन्द थे ….वो लीला चिन्तन में जा चुके थे ….किन्तु मुझे रोमांच होने लगा …..”सदा सर्वदा हम जिनके हैं”…..वाणी जी के पद के अर्थ खुल रहे थे …”शब्द हैं तो अर्थ भी यहीं कहीं होंगे” …कवि कालिदास की बात याद आगयी …शब्द और अर्थ एक दूसरे में छुपे हैं …..बस ….”जनम जनम घर जाए चाकर”……यही हैं , यहीं हैं …..ओह ! बस …..प्रकट थे युगल सरकार …साक्षात् ….वो कुँज ज्योति पुंज से भर गया था …वही दिव्य सिंहासन , वही निकुँज ….और सखियाँ …अनन्त सखियाँ ……मुझे बुला रहीं थीं ।
सखीभाव समझ में नही आया, किन्तु सखीभाव से भावित हो गया था मैं , कैसे हुआ, पता नही । रसिक सन्त ने रहस्य खोल दिए थे उस दिव्य नित्य निकुँज के ।
- हरिशरण
श्रीललिता सखी जी ने अपने हाथों से फूलों की डलिया अपनी सखियों को दे, चल दीं थीं ।
मैं उन्हें देखता रहा …अपूर्व स्नेह से , अपूर्व प्रेम से भरी थीं वो ….उनकी अष्ट सखियों ने फूलों की डलिया थाम ली थी ।
ये युगलवर की सेवा के लिए फूल लिए …उत्थापन होगा …उसके लिए ये फूल हैं । हरिप्रिया जी ने मुझे बताया । अभी समय है उत्थापन में …युगल सरकार जागेंगे , अभी शयन में हैं …मध्याह्न के शयन में । हरिप्रिया जी मुझे बता ही रहीं थीं कि …..तभी कई सखियाँ उस बाग में आगयीं ….फिर पुष्पों का डलिया श्रीललिता सखी जी की अष्ट सखियों के हाथों से लेकर वो सब सखियाँ वहीं बैठ गयीं और माला बनाने लगीं ।
ये सब श्रीललिता सखी जू की सखियों की सखियाँ हैं ….हरिप्रिया जी ने मुझे बताया ….वो सब उस बाग में बैठ कर उन पुष्पों से माला बनाने लगीं थीं ….ये सब सखियाँ जब मुस्कुराती थीं तब ऐसा लगता बाग में फूल खिल गए ….अत्यन्त प्रेम में पगी थीं ये सब सखियाँ ।
वो जो बैठी हैं ….”रत्नप्रभा”जी ….ये श्रीललिता जी की अष्ट सखियों में प्रथम हैं ….और उनके पास जो सखियाँ हैं वो रत्न प्रभा जी की अष्ट सखियाँ हैं ……इनके नाम सुनो …..मुझे हरिप्रिया जी उनके नाम सुनाने लगीं …..तानमती जी , तारा जी , तरला जी , तान तरंगिनी जी , तरुनी जी , सुख सनी जी , महासलौनी जी , और सोहनी जी ।
और सुनो ….वो जो डलिया से फूल चुन कर माला बनाने दे रहीं हैं….वो श्रीललिता जी की दूसरी सखी हैं ….”रतिकला” जी । वो अपनी अष्ट सखियों को फूल दे रहीं हैं …और किस रंग के फूल किस तरह लगाना है …ये बता रही हैं । इनकी अष्ट सखियाँ …रति कला जी की अष्ट सखियाँ वो बैठी हैं …..उनके नाम हैं ….रुचिरवेसा जी , रसिक रूपा जी , प्रीति पागा जी , रगमगा जी , जगमगा जी , नव जोवनी जी , जग जोति जी और जोन्हिका जी ।
हरिप्रिया जी उत्साहित होकर बोलीं …उस तरफ देखो ….मैंने जब देखा तो वहाँ भी सखियों की मण्डली बैठी हुई थी …ये सब फूलों का गहना बना रहीं थीं ….ये हैं श्रीललिता जी की तीसरी सखी …….सुभद्रा जी । इनके साथ इनकी अष्ट सखियाँ भी विराजमान हैं ….मित्रविंदा जी , वंदिनी जी , प्रिय वादिनी जी , प्रमदा वलि जी , मृगजनैंनी जी , महामुदिता जी , सुशीला जी और सौदामिनी जी । हरिप्रिया जी ने उसी समय दूसरी ओर दिखाया , बाग में ही …..वहाँ भी सखियाँ बैठी हैं और फूलों के मुकुट बनाने की सोच रहीं हैं …..चंद्रिका भी प्रिया जी के लिए फूलों का ….वो चौथी सखी हैं श्रीललिता जी की …..”भद्ररेखा” जी ….ये अपनी सखियों को बता रहीं हैं कि कैसे फूलों का मुकुट बनाया जाएगा ……इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं …जिनको ये बता रहीं हैं …हरिप्रिया जी उनका नाम बताती हैं …..प्रभा पुंजा जी , प्रेयसी जी , सनमुखी जी , खंजनाक्षी जी , रमन रंजा जी , रंजनी जी , करपूरिका जी , और अभिनंदनी जी ।
उधर देखो ….वो वन्दनवार बना रही हैं ……वो पाँचवी सखी हैं श्रीललिता जी की …उनका नाम है ….”सुन्दर मुखी” जी । इनके साथ जो हैं …वो इनकी सखी हैं …उनकी संख्या भी आठ ही है …..हरिप्रिया जी मुझे इनके भी नाम बताती हैं …….सुख सायिका जी , चंद्रावलि जी , रत्नावलि जी , रस मंजरी जी , कनकबेलि जी , हेम लतिका जी, रंगमाला जी , और रसिकनी जी ।
वो इधर उधर फूलों को जो देख रहीं हैं ना , मुझे हरिप्रिया जी दिखाया …ये सखी जी तो बहुत आकर्षण से भरी थीं …..ये छटी सखी हैं …श्रीललिता जी की ….इनका नाम है …..”धनिष्ठा” जी …..इनकी अष्ट सखियाँ वो रहीं …….अब इनका भी नाम सुनो …..विशालाक्षी जी , विशदवेसा जी , विमल बेली जी , विभाबुका जी , वरेयस्या जी , महामान्या जी , यशसविनी जी और पुरटांगदा जी ।
अब उस दिशा में देखो ….मुझे हरिप्रिया जी पूर्व दिशा की ओर दिखाया ….उस तरफ एक सखी थीं ….थोड़ी साँवली थीं पर नैंन नक़्श अद्भुत था उनका …..”कलहंसी” जी । ये सातवीं सखी हैं श्रीललिता जी की …….इनकी अष्ट सखियों के नाम सुनो …….
महामधुरा जी , इन्दुआभा जी , विभावा जी , शुभदा जी , तालिका जी , किलंबा जी , मणिमंडला जी , और श्रुति कुण्डला जी ।
हरिप्रिया जी इसके बाद बोलीं ….उस ओर देखो ….वो सखी हैं ना ….वो श्रीललिता जी की आठवीं सखी हैं …..वो कलियों को चुन रहीं हैं ….प्रिया जी की चुनरी में कलियों की पच्चीकारी करेंगी …इनका नाम है ……”कलापिनी” जी । इनकी अष्ट सखियाँ वो रहीं …….सुनंदा जी , सुभला जी , विशाला जी , प्रभद्रा जी , प्रतिमोदिका जी , किंकिनी जी , सुघरा जी और मोदिका जी । ये सब सहेली सुजान हैं और प्रीति से सुसंपन्न हृदय की धनी हैं ..इनका नाम लेने से हृदय में प्रेम का संचार होता है …हरिप्रिया जी ने इतना ही कहा था । मैंने सबको साष्टांग प्रणाम किया ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (114)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का उदय
पुरुषभूषण का यह भी अर्थ है कि तुम पुरुष-रन्न हो, तो हम भी नारी रत्न हैं; तुम पुरुषोत्तम हो, तो हम भी पुरुषोत्तमा हैं। (सम-संबंध खूब जामेगा)
‘त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मना पुरुषभूषण’- तुम्हारी ये सुन्दर मुस्कान सुन्दर रत्न है। भागवत में स्मित का सार्थक वर्णन है। सुचिरत्न देवकी मुसकराते हैं तो उनको शुचिस्मित नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि कृष्ण की मुस्कान पवित्र नहीं है। देवकी की मुस्कान तो कृष्ण को दूध पिलाने वाली है, पवित्र मुस्कान है, लेकिन कृष्ण की जो मुस्कान है वह तो महाराज लोगों का दिल-दिमाग खींच लेने के लिए है। इसलिए गोपी उन्हें सुन्दरस्मित कहती हैं। कहीं-कहीं तो गोपियां कहती हैं कि कृष्ण-रुचिर-स्मित हैं भला। देखने में तो बहुत बढ़िया मुस्कान है लेकिन इसमें कपट है तो गोपी कहती हैं कि तुम्हारी सुन्दर मुस्कान है और सुन्दर चितवन है।
भगवान जिसको देखकर मुस्कराते हैं, उसको मोह लेते हैं; और जिसकी ओर देखते हैं उसके ऊपर छा जाते हैं। उनकी दृष्टि ऊपर छा जाने के लिए है, और मुस्कान मोह लेने के लिए है। हाँ, उनकी मुसकाने में शराब रहती है, और चितवन में रोशनी रहती है। कभी आप पड़ने दो ऊपर भगवान की दृष्टि; उनकी आँख से आँख मिलाओ; और उनके मुखारविन्द पर मुस्कान देखो। गोपी कहती हैं कि इसी से हमारे हृदय में तीव्र काम का उदय हुआ है। देखो, परपुरुष के प्रति जो काम है वह अधर्म है, और अपने पति के प्रति जो काम है वह अधर्म नहीं है, धर्म है; और भगवान के प्रति जो काम है वह परधर्म है। काम-वृत्ति एक ही है चित्त में, परंतु परपुरुष के प्रति काम-वृत्ति हुई तो अधर्म, अपने पति के प्रति हुई तो धर्म और भगवान के प्रति हुई तो परधर्म।*
संसार की वासना गड्ढे की ओर ले जाती है, और भगवत् प्राप्ति की वासना संसार से ऊपर उठाती है। तो गोपियाँ कहती हैं कि हमारे मन में तो काम की आग जल रही है, इससे हमारा रोम-रोम तप्त हो रहा है। कृष्ण ने पूछा- यह तुम्हारी आग कैसे बुझेगी? बोलीं- ‘पुरुषभूषण देहि दास्यम्’ तुम बड़े उदार हो, अपनी सेवा दो, तब यह आग बुझेगी।
हमारी आग कुछ खाने से, कुछ पीने से, कुछ मिलने से, कुछ भोगने से नहीं मिटने वाली है; जब हमें ईश्वर की सेवा मिलेगी, श्रीकृष्ण की सेवा मिलेगी, अपने परम प्रियतम सेवा मिलेगी, तब यह आग बुझेगी। तो श्यामसुन्दर। हम चाहती हैं, तुम्हारी सेवा। तो कृष्ण ने कहा- गोपियो, सेवा देने से नहीं मिलती, हम देंगे तब तुम सेवा लोगी, तो अभी इंतजार करो, प्रतीक्षा करो। जब समय आवेगा तब हम सेवा दे देंगे। अरे, माँगने से कहीं दास्य मिलता है?
माँगने से कहीं सेवा मिलती है? जिसको सेवा करनी होती है वह तो करता ही है, वह सेवा किये बिना मर जायेगा। गोपी कहती हैं- नहीं-नहीं, तुम्हारे देने की जरूरत नहीं है, हम तो तुम्हारी दासी हैं और तुम्हारी सेवा करेंगी। इसमें तुम्हारी स्वीकृति सापेक्ष सेवा हमको नहीं चाहिए तुम मानो चाहो मत मानो, स्वीकार करो चाहे न करो, हमको अपनी दासी मानो चाहे मत मानो, लेकिन हम तो तुम्हारी सेवा करेंगी ही। एक जन्म करेंगी, जन्म-जन्म करेंगी। हम तो तुम्हारी दासी हैं ही, हमको दासी बनाओ मत। हमसे सेवा लो- ऐसा नहीं, हम तो तुम्हारी दासी हैं और सेवा करेंगी। इसको तुम भी नहीं रोक सकते।**
गोपी में दास्य का हेतु-1
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री…..च भवाम् दास्यः वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ।।
(1) ऐसा है कि भगवान को जो नमस्कार करे, उसको देने के लिए भगवान अपनी मुट्ठी में हर समय मुक्ति लिए रहते हैं।– ‘हस्तन्यस्तनतापवर्ग’। इसी को गोस्वामी जी ने लिखा- ‘सकृत प्रणाम कियें ते’ ‘सकृत प्रणाम किए अपनाये’- एक बार जिस किसी ने शिर झुकाया और प्रणाम किया, और बस भगवान ने अपना लिया कि यह तो हमारा है। प्रेमी का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जरा मीठी नजर से उसकी ओर देखो तो वह समझेगा कि यह हमारा हो गया। ‘हस्तन्यस्तनतापवर्ग-मखिलोदारं’ अरे, अपने-आपको ही लुटाने के लिए उदार लोग, अपना दिल ही अपनी मुट्ठी में लिए-लिए फिरते हैं कि लो भक्तो, लो भक्तो, हमारा स्वरूप लो। वे उदारूचूड़ामणि हैं और अकारणकरुण हैं।
जीव का प्रतिपादन तीन विभाग में किया गया है, न्याय, वैशेषिक और पूर्वमीमांसा। ये कर्ता-कर्म के रूप में परमात्मा का प्रतिपादन करते हैं। न्यायदर्शन कहता है कि जगत का मुख्यकर्ता है ईश्वर और जगत् ईश्वर का कर्म है। इस प्रकार कर्ता और कर्म के रूप में तत्पदार्थ का प्रतिपादन होता है। पूर्वमीमांसा का कहना है कि जीवात्मा कर्ता है और कर्म धर्माधर्म का भागीदार है; इनके यहाँ त्वम्-पदार्थ के रूप में कर्ता-कर्म का निरूपण है। पूर्वमीमांसा में त्वं-पदार्थ और न्याय में तत्पदार्थ के रूप में कर्ता और कर्म का निरूपण किया गया है।*
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 37
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अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगच्चलितमानसः |
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां कृष्ण गच्छति || ३७ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अयतिः – असफल योगी; श्रद्धया – श्रद्धा से; उपेतः – लगा हुआ, संलग्न; योगात् – योग से; चलित – विचलित; मानसः – मन वाला; अप्राप्य – प्राप्त न करके; योग-संसिद्धिम् – योग की सर्वोच्च सिद्धि को; काम् – किस; गतिम् – लक्ष्य को; कृष्ण – हे कृष्ण; गच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
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अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के करण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?
तात्पर्य
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भगवद्गीता में आत्म-साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है | आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्र्वत जीवन, आनन्द तथा ज्ञान में निहित है | ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं | आत्म-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है | इसके लिए अष्टांग विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है | इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान् से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सके | इन तीनों विधियों में से किसी का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है | भगवान् ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है | इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है, अतः अर्जुन पुनः आश्र्वस्त होने की दृष्टि से भगवान् कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है | भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे, किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है, अतः निरन्तर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है | पहला कारण यो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये | दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसा है | फलतः जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है | बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणोंद्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुनः मोहित होने की सम्भावना बनी रहती है | यही योगाच्चलितमानस अर्थात् दिव्य पथ से विचलन कहलाता है | अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करता है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877