श्री सीताराम शरणम् मम 133 भाग3, अजामिल प्रसंग एवं नामकी महिमा () भाग1 तथा 4 जन्म लेने का दुख: Niru Ashra

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] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>1️⃣3️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

📝🎻🪔🏹🦚🔥🦚🏹🪔🎻📝

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

और आज ? आज माँ ! विश्व् की सम्पूर्ण “ममता” इनमें मूर्तिमती हो गयी है ……….इनमें आज ‘वात्सल्य” नें आकार ले लिया है ………..ये स्वयं ही वात्सल्यमयी बन गयी हैं ।

तभी तो शत्रु की पराजय पर भी ये विलाप करती हैं …………

जिस रावण नें इन्हें कष्ट पर कष्ट दिए …….अपनें प्राणधन से विलग किया उसके प्रति भी ये दया और करुणा से भर गयी हैं ।

माँ ! सृष्टि में इनके जितनी करुणा शायद ही किसी में हो ………

ये कृपा की राशि हैं ………..कितनी मृदुता है इनमें माँ ! दयालुता तो इनमें कूट कूट के भरी है ।

माँ ! इनके चरणों में देखा है आपनें ?

त्रिजटा अपनी माँ सरमा को बता रही थी ………..वो मेरे पास अपनी माता को लेकर भी आयी………..देखो माँ ! इनके चरण ….भगवान नारायण की शक्ति लक्ष्मी के चरणों में जो चिन्ह हैं ……वही चिन्ह इनके चरणों में भी हैं ……..माँ ! देखो ! माँ ! इनके चरणों में प्रणाम करो ……इनके पग धूल को अपनें मस्तक से लगाओ ………..।

माँ ! मैं समझ गयी हूँ ………ये हम सबका मंगल करनें आयी हैं ।

पर माँ ! आप महारानी बन जाना ………पिता जी लंकेश हो ही जाएँगे ।

पर मैं इनके साथ जाऊँगी …….अब मैं इन्हें नही छोड़ सकती ।

पर पुत्री त्रिजटा ! ये नही ले गयीं तो तुझे अपनें साथ ?

रो गयी त्रिजटा ………माँ ! मैं अपनें प्राण समुद्र में कूद कर त्याग दूंगी …..पर अब इनके बिना मैं रह नही सकती ।

तभी कुछ राक्षसियाँ अशोक वाटिका में घुस गयी थीं ………

करालिका है सीता ! कहाँ है ?

सरमा और त्रिजटा आगे बढ़ीं……..और ये दोनों ही चिल्लानें लगीं ।

तुम लोग समझ क्यों नही रहीं………..रावण के पापों का फल हम लंका वासी भुगत रहे हैं …………तुम एक निर्दोष नारी सीता को दोष दे रही हो …….रावण नें इनका अपमान किया …………जिसका फल तुम सबके सामने है …………..और अब तुम लोग भी ऐसा करोगी तो उसका फल क्या होगा ! त्रिजटा चिल्लाकर बोल रही थी …….वो इतना चिल्ला रही थी कि उसके गले की नसें फूल रही थीं ।

तुम लोग अभी भी क्यों नही समझ रही हो !

उन्मादिनी सी हो गयी थी त्रिजटा मेरे लिए ।

सबको समझा दिया था त्रिजटा नें…….सबको वापस भी भेज दिया ।

सही तो कह रही थीं बेचारी लंका वासिनी …..ये नारियाँ ।

मैने त्रिजटा को अपनें पास शान्ति से बैठा पाया तो पूछ लिया ।

तुम लोग इन्हें राक्षसी कहती हो……..राक्षसी तो मैं हूँ……….
मुझे क्यों बचाया त्रिजटा तुमनें ?

सरमा नें मुझे थपथपी देकर सम्भाला …………..।

कान में फुसफुसाकर अपनी माँ से बोली थी त्रिजटा ………….रामप्रिया की सुरक्षा अब हमें स्वयं देखनी होगी ………..लंका अब अराजक हो चला है …….रावण भी कब काल के गाल में चला जाए क्या पता !

अब वही तो बच गया है ।

शेष चरित्र कल …….!!!!

🌹जय श्री राम 🌹


[] Niru Ashra: || श्री हरि: ||
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अजामिल – प्रसंग एवं नाम की महिमा
( पोस्ट 6 )
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गत पोस्ट से आगे ……..
इतिहासोतम (महाभारत) – में कहा गया है –
श्रुत्वा नामानि तत्रस्थास्तेनोक्तानि हरेर्दिवज |
नारका नरकान्मुक्ता: सदय एव महामुने ||
‘महामुनि ब्राह्मणदेव ! भक्तराज के मुख से नरक में रहने वाले प्राणियों ने श्रीहरि के नाम का श्रवण किया और वे तत्काल नरक से मुक्त हो गये |’
यज्ञ-यागादिरूप धर्म अपने अनुष्ठान के लिये जिस पवित्र देश, काल, पात्र शक्ति, सामग्री, श्रद्धा, मन्त्र, दक्षिणा आदि की अपेक्षा रखता है, इस कलियुग में उसका सम्पन्न होना अत्यन्त कठिन है | भगवन्नाम-संकीर्तन के द्वारा उसका फल अनायास ही प्राप्त किया जा सकता है | भगवान् शंकर पार्वती के प्रति कहते हैं –
ईशोअहं सर्वजगतां नाम्नां विष्णोर्ही जापक: |
सत्यं सत्यं वदाम्येव हरेर्नान्या गतिरनृणाम ||
‘सम्पूर्ण जगत का स्वामी होने पर भी मैं विष्णुभगवान् के नाम का ही जप करता हूँ | मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ, भगवान् को छोड़कर जीवों के लिये अब कर्मकाण्ड आदि कोई भी गति नहीं है |’ श्रीमद्भागवत में ही यह बात आगे आनिवाली है कि सत्ययुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में अर्चा-पूजा से जो फल मिलता है, कलियुग में वह केवल भगवन्नाम से मिलता है | और भी है कि कलियुग दोषों का निधि है; परन्तु इसमें एक महान गुण यह है कि श्रीकृष्ण – संकीर्तन मात्र से ही जीव बन्धनमुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है |
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शेष आगामी पोस्ट में…..


[] Niru Ashra: भाग 1️⃣का 2️⃣🔥जन्म लेने का दुख🔥
गतांक से आगे
मेरो मन हरिजू ! हठ न तजै।,,,,,,,
हे श्रीहरि! मेरा मन हठ नहीं छोड़ता, हे नाथ ! मैं दिन-रात इसे अनेक प्रकार से समझाता हूं, पर यह अपने ही स्वभाव के अनुसार करता है । जैसे युवती स्त्री संतान जनने के समय अत्यंत असह्य कष्ट का अनुभव करती है । उस समय सोचती है कि अब पति के पास नहीं जाऊंगी,, परंतु वह मूर्खा सारी वेदना को भूलकर पुन: उसी दुख देने वाले पति का सेवन करती है।
श्री हरि ! ने वहां भी तेरा साथ नहीं छोड़ा, गर्भ में प्रभु ने नाना प्रकार से तेरा पालन पोषण किया ,और फिर परम कृपालु स्वामी ने तुझे वहीं ज्ञान भी दिया । जब तुझे श्री हरि! ने ज्ञान – विवेक दिया , तब तुझे अपने अनेक जन्मों की बातें याद आई और तू कहने लगा — जिसकी यह त्रिगुण मयी माया अति दुस्तर है , मैं उसी परमेश्वर की शरण हूं।
अबकी बार संसार में जन्म लेकर तो चक्रधारी भगवान का भजन ही करूंगा । ऐसा विचार कर ज्यो ही चुप हुआ कि प्रसव काल के पवन ने तुझ अपराधी को प्रेषित किया ,, उस समय उस भयानक कष्ट की आग में तेरा ज्ञान , ध्यान , वैराग्य और अनुभव सभी कुछ जल गया, अर्थात मारे कष्ट के तू सब भूल गया ।
~~~

जीते हैं ,,,, तब तक जीने का दुख
दूसरा दुख ,,, जीते हैं तब तक जीने का दुख है । नाते, रिश्तेदारों , पड़ोसियों से मनमुटाव रहता है , लड़के कहना नहीं मानते , शरीर में सारे रोग भरे हैं आदि ,,, अनेक उपाधियां और झंझट जीवन में क्रमश निरंतर सताते रहते हैं।
बचपन में तूने जितने महान कष्ट पाए , वे इतने अधिक हैं कि उनकी गणना करना असंभव है । भूख रोग और अनेक बड़ी-बड़ी बाधाओं ने तुझे घेर लिया , पर तेरी मां को तेरे इन सब कष्टों का यथार्थ पता नहीं लगा । मां यह नहीं जानती कि बच्चा किस लिए रो रहा है , इससे वह बार-बार ऐसे ही उपाय करती है जिससे तेरी छाती और भी अधिक जले । जैसे अजीर्ण के कारण पेट दुखने से बच्चा रोता है , पर माता उसे भूखा समझकर और खिलाती है , जिससे उसकी बीमारी बढ़ जाती है।
शिशु , कुमार और किशोरावस्था में तू जो अपार पाप करता है , उसका वर्णन कौन करें ? अरे निर्दय ! महादुष्ट ! तुझे छोड़कर और कौन ऐसा है जो इसे सह सकेगा ?
जवानी में तू युवती स्त्री की आसक्ति में फंसा , उस जवानी के नशे में तूने धर्म की मर्यादा तोड़ दी और पहले गर्भ में और लड़कपन में जो कष्ट हुए थे, उन सब को भुला दिया और पाप करने लगा । पिछले कष्ट समूहों को भूल गया । (अब पाप करने से ) आगे तुझे जो संकट प्राप्त होंगे अरे , उन पर विचार करके तेरी छाती नहीं फट जाती ?

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