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June 23, 2025 10:07 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 136 भाग 1″ श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा – 86″,(साधकों के लिए) भाग-7 तथा श्रीभगवन्नाम स्मरण (पोस्ट 6) : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣3️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मातलि सावधान !

इन्द्र के रथ में बैठते ही मेरे श्रीराम नें सारथि को सावधान किया था ।

तुम तो अनेकों बात देवासुर संग्राम लड़ चुके हो …..राक्षसों की माया से भली भाँति परिचित भी होगे ……………..।

जी प्रभु !

 मेरे श्रीराम नें जो कहा   उसे सुनकर  सिर झुका लिया था मातलि नें ......"मैं  जानता हूँ "

तो ठीक है …..मेरा ध्यान युद्ध में केंद्रित हो रहा है …….तुम सारथि के पद में अपना कौशल दिखाना……..मेरे श्रीराम नें कहा था ।

जी प्रभु !

इतना कहकर रथ को तीव्र वेग से चलानें लगा मातलि ।

मेरे श्रीराम नें अपना धनुष उठाया…..उसमें बाणों का सन्धान किया ….

रथ इतनी तीव्रता से दौड़ रही थी कि धूल के कारण रावण को कुछ भी दिखाई नही दे रहा था ।

त्रिजटा मुझे इस युद्ध का वर्णन करके सुना रही थी ………..कभी कभी तो मैं साँसे रोक कर उसकी बातें सुनती ।

तभी एक सुन्दर सा हँस उड़ता हुआ आया …….और श्रीराम के कन्धे में बैठ गया ……..मुस्कुराये श्रीराम ।

वायु मेरे श्रीराम कि ओर से रावण की तरफ बढ़ रही थी …….धूल आच्छादित नभ हो गया था ……जिसके कारण रावण को कुछ दिखाई नही दे रहा था ।

रावण बाण मारता था …………..पर उतनी ही तीव्रता से श्रीराम बाणों की वर्षा कर रहे थे…………..

ओह ! रावण के ऊपर रक्त की बारिश होनें लगी थी ……..सियार , हजारों सियार एक साथ रो रहे हैं ……………

अकारण उल्कापात शुरू हो गया था……..लंका में बिजली गिरी ।

रावण सावधान ! मेरे श्रीराम मेघगम्भीर वाणी में बोले…..और एक बाण धनुष में लगाकर छोड़ दिया……देखते ही देखते उस एक बाण से……दस बाण…..दस मैं से सौ सौ बाण…….सौ सौ में से हजार फिर लाख लाख बाण निकल कर राक्षसों में त्राहि त्राहि मचा दी थी श्रीराम नें ।

त्रिजटा स्तब्ध थी ……मैं एक टक त्रिजटा की ही बातें सुन रही थी ……

त्रिजटा के सामनें अन्य जो अशोक वाटिका में राक्षसियाँ थीं वो भी आगयी थीं ……..और सब अपना हृदय मजबूत करके श्रीराम और रावण का युद्ध वर्णन सुननें लगीं ।

रामप्रिया ! मैनें देवासुर संग्राम तक देखा है ……..पर राम रावण जैसा युद्ध …..ना कभी हुआ था ना कभी होगा ।

हे रामप्रिया ! मुझे अगर ये कहा जाए की इतिहास में इस युद्ध की कोई तुलना है …….तो मैं कहूँगी ………राम रावण का युद्ध , राम रावण के युद्ध जैसा ही हुआ …….कोई उपमा नही है …..इतिहास में ऐसा युद्ध कभी हुआ ही नही ……और होगा भी नही ।

त्रिजटा सुना रही है ……………..।


रावण नें बाणों की वर्षा शुरू कर दी थी अब श्रीराम के ऊपर ।

पर श्रीराम नें उन सारे बाणों को क्षण में ही काट दिया था ।

रावण श्रीराम के रथ की ध्वजा को काटना चाहता था ……पर मातलि इस कौशलता से रथ चलाता ………कि ध्वजा को रावण के बाण छू ही नही सकते थे ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ………!!!!!

🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-86”

( सर्वरूप कन्हैया )


कल ते आगे कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ………..

भलौ कियौ ब्रह्मा ने कि सब ग्वाल बच्छन की चुराय लै गयौ …..याते असंख्य बृज गोपिन के और अनन्त गौअन के सौभाग्य उदित है गए । आप कहोगे कैसे ? तौ सुनो …..ब्रह्मा ने जैसे ही ग्वाल बच्छन कूँ चुराय लियो ….परीक्षा के काजे …..कि कन्हैया पूर्णब्रह्म परमात्मा है या नही ?

क्यों कि ब्रह्मा कूँ सन्देह है गयौ हो ….क्यों कि ग्वालन कौ जूठौ कन्हैया खाय रो …..अब परमात्मा परब्रह्म जूठो तौ खायगौ नही ….क्यों कि वेद धर्म की रक्षा परमात्मा ही तौ करे ।

लेकिन ब्रह्मा समझ नाँय पा रहे ….यहाँ तौ प्रेम धर्म की रक्षा है रही है ….और वेद धर्म ते बहुत बड़ौ है प्रेम धर्म ।

कन्हैया ने जब देख्यो कि उधर बछड़े हूँ नही हैं और इधर आए तो हम ग्वाल सखा हूँ नही हैं ।

हम सबकूँ पकड़ के ब्रह्मा लै गए अपने ब्रह्म लोक में ….और हमें ही नही …..बछड़े भी साथ हे ।

कन्हैया तुरन्त समझ गए …कि ब्रह्मा ही मेरे ग्वाल सखा और बछड़न कूँ लै गए हैं …तौ मुस्कुराते भए ग्वाल बाल कन्हैया बन गये ….और बछड़े हूँ कन्हैया बन गये ।

बृज जन के सौभाग्य कौ उदय है गयौ हो ।


बृज गोपियाँ बृजरानी के पास आतीं …कन्हैया बृजरानी की गोद में खेल रह्यो होतौ । तब बृज गोपी निहारती रहती बृजरानी कूँ …..और मन में सोचती ….अहो ! का भाग लाई है बृजरानी ….नीलमणि याकी गोद में खेलतौ रहे ……स्नेह ते भरके स्तन पान करावे ……फिर गोपी सोचती …..तेरे इतने भाग कहाँ गोपी ? तेरे भाग में नील मणि कहाँ ? बेचारी गोपी यही सोचते सोचते रह जाती । और गोपी ही क्यों ? कन्हैया तौ सबकौ है ….का इन गैयन कौ नही है कन्हैया ? धूल में खेलतौ भयौ जब कन्हैया आवे …..तब गैयन के मन में भी जे बात आती कि …आहा ! बछड़न की तरह कन्हैया हूँ हमारे पास आतौ ….तौ हम अपनी जीभ तै या नील मणि के अंग कूँ चाट के धूल साफ कर देते ….फिर हमारौ दूध पीतौ कन्हैया …..तब हमें कितनौं सुख मिलतौ । कन्हैया तौ सबके हैं ….सब कन्हैया के हैं …केवल मनुष्य ही तौ कन्हैया के नही हैं ……कन्हैया तौ समस्त चराचर कौ है ।

आज कन्हैया ने सबकी कामना पूरी करी है ……..एक वर्ष तक ग्वाल बछड़े ब्रह्म लोक में रहे …तब तक श्रीवृन्दावन में कन्हैया ही ग्वाल बने …और कन्हैया ही बछड़े बन के रहे । और हाँ ….सबकी कामनाएँ कन्हैया ने पूरी करी ……..


साँझ की वेला है रही है …कन्हैया बछड़े और ग्वाल सखान के संग लौट रहे हैं घर ।

लेकिन सब सखा अपने घर गए ….उनकी माताओं ने अपने पुत्रों को देखा ….आज क्या है इनके पुत्र में ……माताओं का स्नेह उमड़ पड़ा है ……अपने हृदय से पुत्र को लगाया तो माता को लगा कन्हैया ही उनके हृदय से लगा है ….अश्रु धार अनायास ही बह चले माताओं के …..सिर भिगो दिया अपने अश्रुधार से अपने बालकों के ।

इस तरह हर घर में कन्हैया पहुँच चुके थे ………….

इधर गौशाला में ………..गायों ने अपने बछड़ो को चाटना आरम्भ किया ………गौ के थन से अपने आप दूध की धार बह चली थी ………गाय मग्न थीं ….गाय अपने बछड़ों में इतनी खो गयीं कि अपने को भी भूल गयीं ।

कन्हैया ! का है ये ? आज दाऊ भैया ने कन्हैया ते पूछ लियौ ।

कछु तौ नही है भैया ! कन्हैया ने उत्तर दियौ ।

गाय अपने बछडन ते इतनौं प्रेम तौ कबहूँ नाँय करतीं ? दाऊ भैया सब समझ गए हैं …फिर भी पूछ रहे हैं । कन्हैया ने इधर उधर देख्यो ….फिर धीरे ते बोले ….ब्रह्मा कूँ सबक़ सिखानौं है ।

क्यों ? दाऊ भैया पूछवे लगे ।

ब्रह्मा के मन में अहंकार आय गयौ है भैया ! कन्हैया गम्भीर है कै बोले ……ब्रह्मा कूँ लगवे लग्यो ….कि मैं ही सब कछु हूँ ……सब मेरे ही आधार पे चलें ….मैं सृष्टिकर्ता हूँ …….लेकिन भैया ! मोकूँ तौ अहंकार खानौं अति ही प्रिय है ……आज मैं ब्रह्मा कौ अहंकार खाय रो हूँ । मैं बताय रो हूँ कि – ब्रह्मा, तोकूँ सृष्टि करनी पड़ेगी …तौ पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश चहिए ….लेकिन मोकूँ सृष्टि करनी पड़ेगी तौ कछु नही चहिए ….केवल संकल्प । मेरे संकल्प मात्र ते सृष्टि तैयार है जाये है ।

इतनौं कहके कन्हैया ऊपर अन्तरिक्ष में देखवे लगे हे ……..

क्रमशः…..
Hari sharan


Niru Ashra: || श्री हरि: ||
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श्रीभगवन्नाम – स्मरण
( पोस्ट 6 )
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गत पोस्ट से आगे …….
इन श्लोकों में जिस साधना की ओर संकेत है, प्रेमियों के जीवन का वह स्वभाव होता है | इसी से भगवान् ने भागवत में इस बात को स्वीकार किया है कि गोपियों ने अपना मन मुझे अर्पण कर दिया, गोपियों के प्राण मद्गतप्राण हैं, गोपियाँ मेरी ही चर्चा करती हैं, मैं ही एकमात्र उनका इष्ट हूँ, मुझमे ही उनकी एकान्त प्रीति है |
गोपियों ने भगवान् का नाम रखा था – चितचोर | क्या मधुर नाम ? अहा ! हम सबकी भी यही इच्छा रहनी चाहिये कि भगवान् हमारा चित चुरा लें | कुछ सज्जनों को भगवान् के लिये इस ‘चोर’ शब्द पर बड़ी आपति है | उनके विचार से श्रीमद्भागवत में जो माखन चोरी आदि की बात है वह भगवान् के चरित्र में कलंकरूप ही है | पर असल में बात ऐसी नहीं प्रतीत होती | पहली बात तो यह है, उस समय भगवान् बालकस्वरूप थे, इसलिये उनकी चोरी आदि की प्रवृति किसी दूषित बुद्धि के कारण नहीं मानी जाती, वह केवल उनकी बाल-सुलभ लीला ही थी; परन्तु वास्तव में सच पूछा जाय तो क्या कोई यह कह सकता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कभी किसी ऐसी गोपी का माखन चुराया था जो ऐसा नहीं चाहती थी | गोपियाँ तो इसलिये अच्छे-से-अच्छा माखन रखती थीं और ऐसी जगह रखती थी जहाँ भगवान् का हाथ पहुँच सके और वह ह्रदय की अत्यन्त उत्कट इच्छा के साथ यह प्रतीक्षा करती रहती थीं कि कब श्यामसुन्दर आवें और हमारी इस समर्पणपद्धति को स्वीकार कर मित्रों सहित माखन का भोग लगावें और कब हम उस मधुर झाँकी को देखकर कृतार्थ हों | यही तो उनकी प्रेम साधना थी |
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शेष आगामी पोस्ट में …..


] Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-7

प्रिय ! चेतन अमल सहज सुख रासि…
(श्री रामचरितमानस )

मित्रों ! आज मेरा पेट दर्द बढ़ता ही जा रहा था… एसिडिटी की गोलियां खायीं… पर पूर्ण लाभ नही मिला…फिर भी सत्संग में मैं गया ।…. आज साधना में मेरी चंचलता देखकर बाबा मुझ से बोले – क्या बात है आज तुम्हारा मन नही लग रहा… स्वस्थ तो हो ?… मैंने कहा… बाबा ! पेट में दर्द हो रहा है ?
बाबा तुरन्त बोले – क्यों हो रहा है ? मैंने कहा
पता नही… बाबा बोले – मतलब ?… कैसे
साधक हो ?… जो अपने शरीर के प्रति सम्वेदनशील नही है… अपने शरीर की भाषा नही समझता… अपने शरीर की प्रकृति को नही समझता… कैसे साधक हो ?… मैं सिर झुका कर बैठा रहा… मैंने तो सोचा था कि शायद मुझे बाबा से सहानुभूति मिलेगी… पर नही पेट दर्द की बात बताते ही बाबा तो डाँटने लगे ।
बाबा बोले – हरि ! जो व्यक्ति जागरूक नही होता… मुझे उन आलसियों से दूर रहने की इच्छा होती है… अरे ! जो शरीर तुम्हें भगवत् धाम ले जाने की ताकत रखती है… साधन है ये…अपने ही देह के प्रति क्यों इतने लापरवाह हो… शरीर की प्रकृति को समझो… और समझकर उसे अपने अनुकूल बनाओ…। देखो
हरि ! ये शरीर है जैसा बनाना चाहोगे वैसा ही बनेगा… पर उसके लिए तुम्हें पहले अपने शरीर की प्रकृति को समझना होगा…सब के शरीर की अपनी अपनी प्रकृति होती है…शरीर को बिना समझे… मन को नही समझ सकते… फिर मन को समझो… फिर
बुद्धि को… फिर चित्त को… ऐसे ।… ये शरीर साधन है उस “परम प्रेम” तक पहुँचने का…ये शरीर साधन है…उस भगवत्ता तक पहुँचने का..। बाबा आज गम्भीर होकर बोल रहे थे… साधक का अर्थ ही होता है… जो सदैव सावधान है… क्या खाने से मेरे
शरीर में असर होगा… ये सब साधकों को पता होना चाहिए… मेरे शरीर को ये वस्तु खाने से, मेरा शरीर बीमार पड़ जाएगा…ये वस्तु खाने से मुझे आलस्य आएगा… ये वस्तु खाने से मुझे उमंग और उत्साह बना रहेगा… ।
गौरांगी ने पूछा बाबा ! क्या साधक को भोजन में भी ध्यान देना चाहिए ?
…बाबा बोले- अरे ! भोजन से ही तो तुम्हारा मन तैयार होता है… तुम जैसा अन्न खाते हो… वैसा ही मन तुम्हारा बनता है… भोजन तो मुख्य है । गौरांगी ने कहा… बाबा – क्या खाएं ?… बाबा बोले – पहले तुम लोग अपने शरीर की प्रकृति को समझो, कि इस शरीर को क्या खिलाने से क्या होता है… और साधना बढ़ती है या घटती है… या आलस्य आता है
या उमंग आता है… ये सब अनुभव करो… स्वयं करो… । बाबा बोले – मैं जब अपने गुरु जी के यहाँ रहता था बनारस में… तो मेरे गुरुदेव ने मुझे अच्छे से साधना में ट्रेंड किया था… सबसे पहले मुझे उन्होंने ये बताया कि शरीर को समझो… फिर मन को समझो… फिर बुद्धि को… फिर चित्त को… । और मेरे गुरु जी ! मुझे प्रयोग करने के लिए कहते थे… जैसे एक दिन आश्रम में बैंगन और करेला बना था… मैंने खाया… तो मेरा पेट साफ हुआ… तब मैंने सोचा कि सब्जी तो दो बनी थीं… फिर ये पेट के लिए लाभकारी सब्जी कौन सी थी… बाबा बोले मैं छोटी छोटी बात भी अपने गुरु जी से पूछता था… मैंने ये बात भी पूछी… तो गुरु जी ने कहा… स्वयं प्रयोग करो… स्वयं पता करो… कि तुम्हारे शरीर को क्या ठीक लगा । अब मैंने दूसरे दिन प्रयोग करना शुरू किया… बैंगन बनाकर जब मैंने खाया तो मेरा
पेट साफ नही हुआ… और फिर दूसरे दिन करेला बना कर खाया तो पेट साफ… बाबा बोले मैंने गुरु जी को कहा… गुरु जी ! करेला ठीक है… ये शरीर के लिए लाभदायक है । बाबा बोले साधकों को ऐसे प्रयोग करने चाहिए… ये याद रहे… एक दिन भी
तुम्हारा शरीर अस्वस्थ हुआ तो एक दिन की साधना
गयी… और एक दिन की साधना भी छूटी तो हानि
है… ये याद रहे… क्यों कि अभी हम साधक हैं… सिद्ध नही है ।
गौरांगी ने कहा… बाबा ! मैंने ये तो अनुभव किया है कि “आलू” साधना में सहयोगी है… बाबा बोले
हाँ… ये ठीक कहा तुमने आलू साधकों के लिए अमृत है… ये सात्विक है… व्रत फलाहार में भी आलू का प्रयोग होता रहा है… और सन्त महात्मा लोग जंगलों में वन में… आलू को ही उबाल कर… उसका छिलका उतार कर सेंधा नमक डालकर खाते थे… सुबह शाम यही खा कर भजन करते थे… आलू सत्वगुण को बढ़ाता है… । ज्यादा मिर्च ज्यादा मसाला , ज्यादा तैलीय भोजन साधना में बाधक है । हाँ हरि सब्जी का प्रयोग साधक को करना चाहिए… इससे पेट साफ रहता है… और जिसका पेट साफ रहता है उसका ब्रह्मचर्य भी बना रहता है… ।
बाबा बोले… रात्रि में सोते समय दूध का सेवन करके सोना चाहिए… दूध आवश्यक है…। और हो सके तो साधकों को 15 दिन में एक दिन एकादशी कर लेनी चाहिए… एकादशी के दिन… फल इत्यादि लें… बाबा बोले… सिंगाड़े के आटे की रोटी बना लें… और आलू के रस के साथ उसे पाएं… बाबा बोले… इससे पेट ठंडा रहेगा… और भूखे पेट एसिडिटी बनने की जिसको बीमारी हो… उसे एसिडिटी भी नही होगी… क्यों कि सिंगाड़े का आटा पेट को ठंडा रखता है… । बाबा बोले… व्रत करने वाले साधकों को पानी ख़ूब पीना चाहिए… इससे शरीर के जितने विषैले तत्व हैं सब बाहर निकल जाएंगे… । अब
बाबा मुझ से बोले… हरि ! सावधान रहो… थोड़ी सी असावधानी भी तुम्हें साधना से नीचे गिरा सकती है… बाबा बोले – हरि ! तुम्हें पता है… कोई रोग होता है… और उसकी दवा हम डॉक्टर से लेते हैं तो डॉक्टर कहता है… ये 1 महीने का कोर्स है… और ये कोर्स एक दिन भी छूटना नही चाहिए… अगर एक दिन भी दवाई छूटी तो फिर शुरू से कोर्स करना
पड़ेगा… ऐसे ही हरि ! जन्मों जन्मों के वासना का इंफेक्शन फैल गया है… अब इस इंफेक्शन को हटाने के लिए ये कोर्स है… पर एक दिन भी अगर ये कोर्स छूटा… यानि सत्संग साधना छूटी तो फिर वह सांसारिक वासना के कीटाणु हावी हो जायेंगे… इसलिए सावधान…साधना के लिए शरीर का ख्याल रखो… भगवत् प्राप्ति करने के लिए इस शरीर का
ख्याल रखो ।

सत्संग साधना के बाद गौरांगी ने मुझ से कहा हरि जी ! हम क्या हैं ?… मैंने कहा… चैतन्य , निर्मल, सहज, और सुख के राशि…फिर शरीर क्या है ?… मैंने कहा… उस तक पहुँचने की सीढ़ी… पर ये शरीर तो मिथ्या है ना ?… मैंने कहा… पर मिथ्या
को समझोगे तभी तो परमसत्य तक पहुंचोगे । झूठ को झूठ समझना ही तो उस सत्य तक पहुँचने की भूमिका है… शरीर को समझना… इस के मिथ्यात्व को समझना… जो है उसे वैसा ही समझना… यही बाबा हमें समझाना चाह रहे थे ।
एकाएक बारिश शुरू हो गयी…गौरांगी झूमते हुये
भींगने लगी… और गा रही थी… पगली है…

“कब देखों इन नैना भीजत, श्यामा जू की सुरंग
चुनरिया मोहन को उपरैना भीजत”

Harisharan

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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