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July 2, 2025 1:34 am

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रथ यात्रा, जो कि भगवान जगन्नाथ की यात्रा के रूप में प्रसिद्ध है, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण त्योहार है। इस यात्रा के दौरान विशेष रूप से 5वें दिन लक्ष्मी जी का भगवान जगन्नाथ से मिलने का महत्त्व है। : अंजली नंदा

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श्री सीताराम शरणम् मम 1️⃣4️⃣7️⃣भाग 2,“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-118, अध्यात्म पथ प्रदर्शक तथा सिर्फ़ साधकों के लिए भाग-41: Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

मैने गौरूपा माँ धरा को छूआ …………..नही माँ ! आपकी ही पुत्री हूँ ……सहनशीलता आपसे ही प्राप्त किया है मैने ।

इतना कहते हुये मैं माँ धरा के सामनें झुकी ………..तब मेरे माथे को सूँघते हुये पृथ्वी माँ अंतर्ध्यान हो गयी थीं ।


लाखों लोग खड़े हैं ……..हाथों में हाथ डाले दो नीलवर्णी ज्योत मेरे श्रीराम और भरत भैया को …..विमान से उतरते लोगों नें देखा ………….

सीधे दोनों गुरु वशिष्ठ जी के पास गए ………साष्टांग प्रणाम किया मेरे श्रीराम नें ……..फिर लक्ष्मण और भैया भरत नें ।

सजल नयन से गुरुदेव नें मेरे श्रीराम को उठाया था ……और अपनें हृदय से लगा लिया ।

समस्त विप्रों नें वैदिक मन्त्रों के द्वारा आशीर्वाद दिया ।

सामनें माताएँ खड़ी हैं ……………दौड़े मेरे श्रीराम ………….माँ !

कौशल्या माँ के चरण छूते हुये मेरे श्रीराम, माँ कैकई के पास पहुँच गए
थे ……..और उनके सामनें जाकर साष्टांग लेट गए ।

ऐसे दृश्य देखकर कौन नही भावुक होगा ………….सबके नेत्रों से जल बरसनें लगा था ।

उन्मादिनी हो गयी थीं कैकई माँ ……………

कौशल्या जीजी ! मैं जीत गयी ….तुम हार गयी …………..हँसनें लगी थी माँ कैकेई ……………

कैसे तुम जीती बहन ! विनोद करना आज अच्छा लग रहा था ……चतुर्दश वर्षों में पहली बार तो विनोद हो रहा था राजपरिवार में ।

जीजी ! तुमनें मेरे तीन पुत्रों को भले ही अपनें पक्ष में कर लिया हो …….पर राम को नही कर सकीं तुम ……उन्माद में हँसी कैकेई माँ ।

राम को कोई भड़का नही सकता ..देख लो ! कैकेई को सबनें छोड़ दिया पर राम नही छोड़ेगा कैकई को……क्यों की राम ही है पुत्र कैकेई का ।

क्रमशः….
🌷जय जय श्री राम 🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-118”

( कारी कमरिया में दोऊ युगलवर )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……..

अब कहा कहूँ …मेरी बात तौ कन्हैया माने नही हैं …और जब तै जे सात बरस कौ भयौ है ….तब तै तौ बिल्कुल नही …हाँ , बस अपनी बात मनवावै । और जब देखौ तब बरसाने ही जातौ रहे ।

इन दिनों बृज में पावस ऋतु ने प्रवेश कीयौ है ….चारों ओर हरियाली ही हरियाली है …अवनी तौ प्यासी ही या लिए खूब जल बरस्यो और अवनी ने पान कियौ ।

चारों ओर वृक्ष लताएँ ऐसी लग रही हैं जैसे नहाय के तैयार है गयीं होंय । यमुना में उफान है …..छोटे छोटे गिरिराज जी के झरने सब यमुना में मिल रहे हैं …..याही तै यमुना जी अति ही उछल रही हैं । गिरिराज पर्वत हो या नंदीश्वर पर्वत ….या ब्रह्माचल पर्वत ….सब हरे भरे हैं।

या समय में कन्हैया अति ही उन्मत्त है ….वर्षा कूँ देखते ही मत्त है जाए कन्हैया …..बादल छा रहे हैं तौ मोर नाचन लगे ….लेकिन जे कन्हैया मोर के संग ही नाच रह्यो है । इन दिनों हमारी गौचारण बन्द है ….वर्षा ऋतु में कहाँ जाँगे ?

मधुमंगल ! चल यमुना के कुँज में ।

आज पतौ नाँय कन्हैया काहे कूँ यमुना कुँज में जाएवे की कह रो ।

यमुना कुँज है ….यमुना के तट पे ….एक तमाल कौ घनौ कुँज बन्यो भयौ है ….घनौं इतनौं है कि जल की एक बूँद हूँ बामें गिरे नही है ।

आज कन्हैया आयौ और मोते कहवे लग्यो – चल यमुना कुँज में ……..

मैंने कही …अभी तौ वर्षा बहुत है रही है ….कन्हैया बोलो …डरे चौं है …बह थोड़े ही जाएगौ ।

चल ….अब कन्हैया की बातन कूँ कौन काट सके । मैं बाके संग भींगतौ भयौ चल दियौ ….लेकिन तभी सामने दीख गयी ललिता । मैंने कही ….कन्हैया ! उधर मत देख ..सीधौ चल …..लेकिन कन्हैया अपनी प्रिया की सखी कूँ नही देखेगौ ? वो तौ मोकूँ छोड़ के भग्यो ललिता के पास । मैंने जोर तै पूछी ….दारिके ! अब बता तौ दे ….मैं कहाँ जाऊँ ?

तू जा यमुना कुँज में ….मैं वहीं आय रह्यो हूँ ….कन्हैया कहतौ भयौ चलौ गयौ ।

मैं हूँ निकल गयौ …..अब का करतौ …..मन ही मन भुनभुना रह्यो हो ….कि बरसाने की छोरी ने हमारे कन्हैया कौ दिमाग ख़राब कर राखो है ……..मैं यमुना कुँज में जाय के बैठ गयौ ।

अब आयगौ ….अब आयगौ …..लेकिन दो घड़ी बीत गयी कन्हैया नही आयौ तौ में हूँ बाकूँ खोजवे निकल पड्यो ।

कहाँ खोजूँ ! वर्षा इतनी अधिक है रही है ….सामने कछु दीख ही नही रह्यो । फिर भी भींगतौ भयौ चलो जाय रो हो ……..

तभी सामने तै हवा कौ एक झौंका सौ आयौ ….आहा ! सुगंध सी फैल गयी ….अद्भुत सुगन्ध ….मोकूँ पतौ है जे मेरे कन्हैया की सुगन्ध है ….मेरे कन्हैया के अंगन की सुगन्ध है …..लेकिन एक और सुगन्ध वयार में चल रही ही ……जे सुगंध कौन की है ? मैं सोचतौ चल रह्यो हो कि तभी ……..


भींग रही हूँ मैं …..प्रियतम ! अपनी काली कमरिया ओढ़ा दो ना ! राधा कह रही हैं ।

कन्हैया मुस्कुरा रहे हैं ….वो कछु नाँय बोल रहे …..अपनी राधा कूँ देख के मुग्ध हैं ।

कछु नाँय बिगड़ेगौ ……प्यारे ! कमरिया में बूँद गिरेंगीं तौ झर जांगी । कन्हैया राधा कूँ देख के अपनी देह सुध हूँ भूल रहे हैं …..राधा कूँ अपलक निहार रहे हैं …..वर्षा है रही है ।

मैंने देख लियौ …..पहले तौ विचार कियौ – कछु नही कहूँ ….लेकिन वर्षा में भींगते इन दो किशोर-किशोरी कूँ देखके मन में मेरे स्नेह जागृत भयौ ……कन्हैया ! ओ कन्हैया ! जैसे ही मैंने आवाज लगाई ….सोई कन्हैया ने अपनी कारी कमरिया निकाल के अपनी राधा कूँ ओढ़ाय दियौ और स्वयं वामें है गये ..मैं निहार रह्यो हूँ इन युगलवर कूँ ..काली कमरिया में दोनों एक दूसरे में खोय गए है ।

तभी …..चौं रे मधुमंगल ! कहा कर रो है यहाँ ? मैंने देख्यो ललिता है …तौ मैंने कही …तू कहा कर रही है मैं तौ अपने सखा के संग आयौ हूँ ….मैं हूँ अपनी स्वामिनी के संग आयी हूँ ..ललिता ने कही । तब मैंने हँसते भए कही ….देख ! मेरौ सखा और तेरी स्वामिनी । ललिता देखवे लगी ….तेज वयार के कारण कारी कमरिया उड़ गयी ही ….और दोनों सनातन दम्पति एक दूसरे में खोय गए हे …..बस निहार रहे ….एक दूसरे कूँ देखते भए इनकौ तौ त्राटक ही लग गयौ हो ……

क्रमशः….
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - २८*

               *🤝 ८. व्यवहार 🤝*

               _*विषय -त्याग से मुक्ति*_ 

  श्रीभगवान् ने अर्जुन को समझाते हुए गीता में कही है-

ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

   तात्पर्य यह कि विषय केवल स्मरण से ही इन्द्रियों को उत्तेजित कर देते हैं और इससे चित्त उस इन्द्रिय की ओर आकर्षित होकर, उस विषय का ध्यान करने लगता है। बार-बार एक विषय के स्मरण का नाम ही ध्यान है। लम्बे समयतक जिसका ध्यान होता है, उस विषय को उपभोग करने की वृत्ति जाग उठती है, भोगवृत्ति के जागने पर उसे प्राप्त करने की प्रबल कामना होती है। कामना के पराभवसे-काम्य वस्तु की प्राप्ति में विघ्न आने से, वह क्रोध के रूप में प्रकट होती है। क्रोध से मनुष्य विवेकशून्य हो जाता है और ऐसा होनेपर सारासार का भान भूल जाता है और इसके परिणामस्वरूप बुद्धिहीन होकर यथेच्छाचारी बनकर विनाश को प्राप्त होता है। ऐसे विनाश से बचने का उपाय बतलाते हुए भगवान् कहते हैं-

 *'जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥'*

   अभिप्राय यह कि कामना- विषयभोग की इच्छा का सर्वथा नाश किये बिना, उनसे छूटने का दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। विषयों के भोग से तो विषयभोग की तृष्णा दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है। राजा ययाति को स्वर्ग के सदृश भोग प्रचुर मात्रा में प्राप्त थे । वैभव का कोई पार नहीं था, स्त्री तथा पुत्र-पौत्रादि थे। सम्पूर्ण जीवन भोग-विलास में बीता, पर तृष्णा शान्त नहीं हुई। शरीर वृद्ध हो गया, पर विषयभोग की तृष्णा तो तरुणी ही बनी रही। इसलिये बेटे से माँगकर जवानी ली, फिर से तरुण बनकर एक हजार वर्षोंतक मनमाने भोग भोगे, इतनेपर भी जब तृप्ति नहीं हुई, तब हारकर कहना पड़ा-

 *न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।*
 *हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥*

  अभिप्राय यह कि अग्नि में ज्यों-ज्यों आहुतियाँ डाली जाती हैं, त्यों-ही-त्यों वह अधिक-से-अधिक प्रचण्ड होती जाती है, वैसे ही विषयभोगों के भोग से भोगतृष्णा शान्त नहीं होती, पर अधिक-से-अधिक तीव्र बनती जाती है। अतएव सच्चा सुख-शान्ति चाहिये तो भोगतृष्णा का नाश करना चाहिये। यह तब होगा, जब विषयों के प्रति अरुचि होगी। अरुचि तब होगी, जब विषयों से सुख की प्राप्ति का भ्रम मिट जायगा। यह भ्रम तब मिटेगा, जब भोगपदार्थों का असली रूप समझ में आ चुका होगा। पदार्थों का सच्चा स्वरूप तब समझ में आयेगा, जब मनुष्य विवेक से विचार करना सीखेगा।

   यह विचार इस प्रकार किया जाता है-यदि धन में सुख होता तो धनवान् मनुष्य कभी दुखी नहीं होते, परंतु हम यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि वे भी दुःखी ही हैं। जो प्राप्त है, उसके नाश होने की चिन्ता से और अधिक प्राप्त करने की तृष्णा से वे जलते ही रहते हैं। कीर्ति में सुख होता तो प्रसिद्ध पुरुष दुखी न होते– *'माने दैन्यभयम्'*। कीर्ति में निरन्तर पतन का और अपमान का भय लगा ही रहता है। फिर अपने पद की रक्षा के लिये भाँति-भाँति के छल-छद्म करने पड़ते हैं, जिसके परिणाम में जीवन दुःखमय हो जाता है। यदि स्त्री-पुत्रादि में सुख होता तो अधिकांश गृहस्थ दुःखी देखने में आते हैं, वे न आते।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-41

प्रिय ! बिगरी जनम अनेक की, सुधरे अबहीं आज…
(श्री तुलसीदास जी)

मित्रों ! अपने साधकों के बीच में बैठे पागलबाबा बारिश की हल्की हल्की बून्द में भींगते हुये बोल रहे थे …सब साधक शान्त और मौन थे …।

  • दुनिया का कोई भी तीर्थ तुम्हें इतनी जल्दी पवित्र नही बना सकता …चाहे प्रयाग जाओ , या काशी …गंगा नहा लो , या नर्मदा …तुम्हारे हृदय के दोषों को कोई नही मिटा सकता …तुम्हारे अंदर के पापों को कोई नही धो सकता …बस एक ही साधन है जिससे तुम तत्क्षण पाप से मुक्ति पा लोगे …और पवित्रता से भर जाओगे ।

क्या करें बाबा ? गौरांगी ने पूछा …बाबा बोले …बस अपने आप को “राम” का मान लो …”मैं राम का हूँ”..। …तुम जब ये मान लेते हो …कि मैं फलाँ हूँ …और फलानें का हूँ …बस यहीं से तुम्हारा पतन शुरू हो जाता है …फिर तुम या पुण्य करते हो या पाप …और याद रखना पुण्य से पाप नही कटते …पुण्य बढ़ते हैं …पर पाप तो जस का तस ही तुम्हारे जीवन में बना रहता है …और तुम्हारे हृदय को अशान्त बनाकर रखता है । पाप का फल “ताप” ही तो है । तुम्हारे मन में जो अशांति है उसका कारण है तुम्हारे द्वारा किये गये पाप । अब पुण्य करने से भी कोई बहुत बड़ा काम नही कर दोगे …क्यों कि पुण्य से सुख मिलता है …पर कब तक ? …जब तक पुण्य का प्रताप है तब तक…पर पुण्य का प्रताप भी तो कुछ दिन का ही होगा …जितना बड़ा पुण्य उतनी उसकी अवधि…सुख या दुःख …ये दोनों ही तनाव देते हैं …एक आनंद ही है …जो “स्थिति” है…आनंद आना और जाना ऐसा नही होता …आनंद स्थिति है …आनंद है या नही है ।

एक नए साधक ने प्रश्न किया – बाबा ! ऐसा क्यों होता है कि जो व्यक्ति गलत कर्म करता है उसे जगत में सुखी देखा गया है …और जो अच्छे कर्म करता है…उसे दुःखी देखा गया है…कारण क्या है ?

बाबा बोले – व्यवस्था है भगवान की…जब भगवान देखते हैं कि ये गलत कर्म कर रहा है…और पीछे भी इसने गलत कर्म ही किये हैं…दुःख भोगने के लिए इसके पास बहुत पाप भरा हुआ है …तो भगवान सोचते हैं कि चलो …थोड़ा बहुत जो पुण्य इसके बचे हुये हैं …वो पहले भोग ले…फिर उसके बाद में पाप का फल यानि दुःख तो इसे भोगना ही है …तो भगवान पहले उस गलत कर्मी को पुण्य का फल दे देते हैं…ऐसे ही जो सही कर्म करता है …सद्कर्म करता है …भगवान उसके पहले पाप का हिसाब करते हैं …थोड़े बहुत पाप हैं… पहले ये भोग ले…फिर आनंद से सुख भोगेगा …ये भगवान की अपनी व्यवस्था है…।

बाबा बोले …पर इस व्यवस्था का तुम लोग हिस्सा बनो, मैं ये नही चाहता…पाप और पुण्य इन झंझटों में तुम लोग मत फंसो …कोई लाभ नही है …क्यों कि तनाव दुःख में भी है …और सुख में भी है…सुखी व्यक्ति भी तनाव में रहता है …कभी सोचा है बहुत सुखी व्यक्ति को भी रात में नींद नही आती…तो इसका मतलब यही तो हुआ कि तनाव में सुखी व्यक्ति भी है …तो जहाँ तनाव है वहाँ आंनद कहाँ ? इसलिए न स्वर्ग न नर्क ..इनसे परे ।

क्या करें बाबा ? बाबा बोले…कुछ नही करना…बस मान लेना है…बस अन्तः करण से मान लो …अभी …अभी इसी समय बात बन जायेगी । कोई तीर्थ तुम्हें इतनी जल्दी पवित्र नही बना सकता…जितनी जल्दी ये तुम्हारी मान्यता तुम्हें पापों और कर्ता भाव से मुक्त कर देगी ।

बाबा बोले …तुम्हें केवल इतना ही मानना है कि “मैं भगवान का हूँ” बस । ये कहना नही है …ये डायलॉग नही है …ये प्रवचन से या किसी सन्त की वाणी से सुनकर दोहराना मात्र नही है …इसे अन्तःकरण से मानना है । और मानते ही बात बन गयी…तुम बदल गये ।

बाबा बोले – देखो ! ये “प्रेम साधना” है …
हम सोचते हैं कि पहले अन्तःकरण को शुद्ध करें …फिर भगवान का नाम लें …फिर भगवान के हों । पर ये पद्धति ठीक नही है …बाबा बोले …हर सन्त की अपनी एक साधना पद्धति होती है …मेरी पद्धति तो यह है कि …पहले भगवान के बनो …अरे ! मान लो ना ! …मान लेने से ही सब हो जायेगा …।

हम गलत हैं …हम पापी हैं…हम दुराचारी हैं…अरे ! चाहे कुछ भी हो…पर तुम हो तो भगवान के…पुत्र कैसा भी हो …गलत सही …दुष्ट …पर है तो अपने पिता का ही । तुम कैसे भी हो, हो तो उसके ।

बाबा बोले – तुम संसार के नही हो …तुम इस माया जगत के नही हो …पर तुमने अपने को इस जगत का मान लिया है ना ! …अब जिसके तुम नही हो …वो तुम मान रहे हो …और वास्तव में जिसके तुम हो…उसे मान ही नही रहे …असत्य को सत्य मान रहे हो…ये जगत असत्य है…है ही नही …पर जो है ..जिसके द्वारा तुम हो … उस तरफ तुम्हारा ध्यान ही नही जा रहा ।

गौरांगी ने पूछा बाबा ! मान लेने मात्र से हो जायेगा क्या ? …बाबा बोले …एक राजा का बेटा था …एक बार किसी जंगल में गया अपने पिता के साथ गया था…और खो गया । छोटा ही था…अपने आपको भूल गया…कि “मैं कौन हूँ”…भूख लगती तो गाँव में आकर भीख माँगता था …कई वर्षों बाद एक बार ये भीख माँग रहा था …तभी उस युवा हुये राजकुमार को एक ज्योतिषी ने देखा तो उसने कहा …ये तो राजकुमार है …।
बस उसने जैसे ही सुना मैं राजकुमार हूँ…वह राज्य सिंहासन का अधिकारी हो गया कि नही ?…हो गया ना ?…और उसी समय होगया …उसे समय नही लगा …।

ऐसे ही मान लो ना ! …”मैं उसका हूँ” …बाबा बोले …नही तुम और किसी के हो ही नही…ये बात अच्छी तरह से समझ लेना …तुम माँ पिता भाई पुत्र पत्नी पति ये सभी सगे सम्बन्धी… किसी के नही हो …सच बात ये है कि तुम अपने माँ बाप के भी नही हो …माँ बाप मात्र तुम्हारे इस जगत में आने के एक माध्यम मात्र हैं…हाँ उनके माध्यम से तुम आये हो…पर उनके नही हो …सत्य ये है कि तुम एक मात्र भगवान के ही हो …।

इस भावना को जितनी जल्दी हो सके अन्तःकरण से मान लो …मैं देह हूँ …मैं अमुक हूँ …मैं अमुक जाति का हूँ …मैं धनी या गरीब हूँ …ये सब इस शरीर की उपाधि हैं …ये शरीर की मान्यता है…जो मिथ्या है …झूठ है । सच ये है कि तुम ये सब हो ही नही…न तुम देह हो …न तुम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य या शुद्र हो …हाँ तुम तब तक शुद्र ही रहोगे…हमारे श्री कबीर दास जी कहते हैं ना …”हरि न भजे सोई भंगी” जो हरि का होकर हरि को नही भजता , वही शुद्र है ।

“मैं उनका हूँ , वो मेरे हैं”…ये भावना अगर “अभी अभी” पक्की कर सको …तो अभी ही घटना घट जायेगी कुछ और करने की जरूरत ही नही पड़ेगी ।

बारिश तेज़ हो गयी थी …बाबा इतना ही बोलकर मौन हो गये ।

“मैं हूँ श्री भगवान का , मेरे श्री भगवान”

Harisharan

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