Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
पुष्पक विमान नें “भगवती धरा” को छूआ …………….
चारों ओर जयजयकार गूँज उठा था ………
पृथ्वी की आवाज मुझे सुनाई दी ………हाँ ……..माँ की स्नेहपूर्ण वाणी पुत्री ही तो सुन सकती है……….मेरी माँ हैं ये धरा ।
पुत्री सीता ! आज मैं आनन्दित हूँ ……..बहुत आनन्दित ।
मैं चौंक गयी ……….गौ के रूप में विमान के रुकते ही माँ का अधिदैव रूप प्रकट हुआ था ।
मेरे श्रीराम नें भी हाथ जोड़कर प्रणाम किया………पर गौरूपा मेरी माँ पृथ्वी मुझ से ही बातें कर रही थीं ।
पुत्री सीता ! उस दिन मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ था ……..अपनें ऊपर ।
कि क्यों गयी थी मैं देवताओं के साथ तुम्हारे धाम…..और मैने ही तो रोकर ये प्रार्थना की थी कि -असुरों से मेरा भार कम करो ! अवतार लो!
उफ़ ! क्या हो जाता मैं चली जाती रसातल……….पर मेरे कारण तुम्हे कितना कष्ट हुआ पुत्री ! मेरे कारण ! मेरी जैसी माँ शायद ही कोई होगी …….तुम्हें रावण के यहाँ कितना कष्ट उठाना पड़ा ना !
मैने गौरूपा माँ धरा को छूआ …………..नही माँ ! आपकी ही पुत्री हूँ ……सहनशीलता आपसे ही प्राप्त किया है मैने ।
इतना कहते हुये मैं माँ धरा के सामनें झुकी ………..तब मेरे माथे को सूँघते हुये पृथ्वी माँ अंतर्ध्यान हो गयी थीं ।
क्रमशः…..
🌷जय जय श्री राम 🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-117”
( रसिया-कन्हैया )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ………
रसिया तौ हमारौ कन्हैया ही है ……वैसे अपने आपकूँ लोग रसिया कहें ….लेकिन रस की जाकूँ पहचान है ….सच्चौ रसिया तौ वही है ….और रस की पहचान केवल अपने कन्हैया में है । अरे ! रस हूँ यही है । जो रस है कै रस कौ भोग करे ….वही तौ रसिया है ।
अब हम भले ही लाख प्रेम करें या कन्हैया तै लेकिन जे जायगौ गोपिन के यहाँ ही ।
चौं ना जाऊँ ? तुम लोग का खिलाओगै …..गोपी तौ प्रेम तै सद माखन निकाल के मेरे काजे रखें ……और प्रेम तै हमें खिलामें । ठीक , ठीक है …हमें कोई आपत्ति नही है …तू जा गोपी के यहाँ …..लेकिन । कन्हैया बोले …..लेकिन का ?
जे राधा कौन है ? अरे ! मेरौ जे कहनौं का भयौ …..कन्हैया तौ देह सुध भूल गयौ …..राधा नाम ने याके ऊपर जादू कर दियौ है ।
वैसे राधा बरसाने की भानु महाराज की बेटी हैं …..सुन्दर तौ बहुत हैं ….अब विचार करौ कि कन्हैया कूँ जाने अपने रूप सौन्दर्य में फँसा रख्यो हो ….वो कितनी सुंदर होंगी । वैसे जे आग दोनों तरफ लगी है …..राधा हूँ जब बाँसुरी सुनें , तौ बरसाने तै दौड़ी चली आमें …..और राधा कूँ देखवे के मिस कन्हैया हूँ सब छोड़ छाड़ के बरसाने में ही पड़ो रहे ।
एक बार मैंने कहा कह दियौ ……”ओए भानु के जमाई” ……बस मेरौ जे कहनौं का भयौ ….कन्हैया तौ मेरे पीछे ही पड़ गयौ ……ऐ मधुमंगल ! तू तौ वामन है ना …फिर बता ना ….कि का सच में मैं बरसाने कौ जमाई बनूँगौं ? अब मैं कहा कहतौ …..मन ही मन बोलो ….अनादि दम्पति हो तुम दोनों …..लेकिन बाहर तै बोलो …..तोते कौन ब्याह करेगौ ? का कही ? मेरौ जैसौ मलूक छोरा उनकी राधा के काजे मिलैगौ ? मैंने हूँ आनन्द लैतै भए कही ….पर कन्हैया ……तू कारौ है । तौ कहा भयौ …मैं कारौ मेरी राधा गोरी …जोड़ी ना मिल रही का ? मैं मन ही हँसतौ भयौ कन्हैया की बात कूँ ध्यान तै सुन रह्यो । कन्हैया बा दिना राधा के विषय में बहुत बोल्यो …..और बोलते बोलते राधा में ही खोय गयौ हो ।
कन्हैया ! कन्हैया ! आज देख पूरे बृजमण्डल में झूला पड्यो है …….मैंने ही जायके कन्हैया कूँ बतायौ ।
क्यों ? कन्हैया ने संक्षिप्त में ही पूछ्यो ।
सावन आय गयौ है ना ! मेरी बात सुनते ही कन्हैया तौ आनन्द तै उछलवे लग्यो ……मेरौ हाथ पकड़ के कहवे लग्यो ….सावन में मेरी राधा अमुआ की डाल पे झूला झूलै ।
तौ ? या बार मैंने हूँ संक्षिप्त में ही पूछ्यो ।
मेरे पामन कूँ पकड़ के कन्हैया कहवे लग्यो ……मधुमंगल ! ऐ मेरे सखा ! तू मेरौ साथ नही देगौ ? कहा साथ दैनौं है तेरौ ! चल मेरे साथ बरसाना ।
अभी ?
और का , शुभ काज में देरी क्यों ? कन्हैया ने मेरौ हाथ पकड्यो और लै चल्यो मोकूँ बरसाने ।
ललिता ! मोकूँ तौ रिस उठे इन गोपिन कूँ देखते ही, काम धाम है नाँय …हमारे कन्हैया कूँ ही परेशान करती रहें, राधा तै अपने कन्हैया कूँ मिलायवे वारी जे ललिता ही तौ है । और मिलाती रे ।
बरसाने में प्रवेश करते ही ललिता मिली ….तौ कन्हैया तै बोल पड़ी ….कुँज में झूला पड्यो है ….लेकिन लालन ! तुम नही जा पाओगे । मैंने तुरन्त कही ….हमें ना जानौं तेरे कुँज में ….चल कन्हैया नन्दगाँव । लेकिन कन्हैया का मेरी सुनैगौ ? सुनेगौ इन बरसाने की लुगाईयन की । क्यों ना जा सकूँ मैं कुँज में ? ललिता तै पूछ रह्यो है …हँसती भई ललिता बोली ….पुरुषन के काजे प्रवेश वर्जित है । जे कहती भई ललिता चली गयी ।
अब तौ कन्हैया सुस्त है गयौ । मैंने बाते कही …कन्हैया ! अधिक मत सोचे ….चल घर ….लेकिन कन्हैया तौ पूरौ रसिया है । मोकूँ बैठार के सारो पतौ नही कहाँ गयौ और थोड़ी देर में ही ………..
जा यहाँ तै …भाग यहाँ तै ….मेरे कन्हैया कूँ तुम सबने परेशान कर राखो है …और विशेष तौ तुम बरसाने की लुगाईयन ने । मेरे सामने एक गोपी आय के खड़ी ही …..मोकूँ देखके मुस्कुरा रही …..तौ मैं झुँझला गयौ ….मेरे कन्हैया कूँ गोपी तौ परेशान करें …तभी …..हट्ट दारिके ! मधुमंगल ! मैं हूँ तेरौ सखा । अरे ! कन्हैया तू तौ भाई कमाल है …..गोपी बन गो …बच के रहियौ कोई ग्वाला तोकुँ पकड़ न ले ।
लेकिन कन्हैया ! जे सब कहा है ? काहे कूँ ? छोरा है कै छोरी बननौं ठीक नही है ।
मधुमंगल ! तू सोचतौ रे ….मैं तौ गयौ अपनी राधा के पास । कन्हैया तौ मलूक सी लुगाई बनके चलौ गयौ कुँज में ….झूला झूलैगौ ….जा झूल झूला । लेकिन मैं हूँ चल पड्यो कन्हैया के पीछे और कुँज के बाहर रुक गयौ …..फिर मैं कुँज रंध्र तै भीतर की लीला निहारवे लग्यो ।
लीलाधारी है कन्हैया …..लीला करनौं याकूँ खूब आवै ।
गोपी बनके कुँज में घुस गयौ कन्हैया …..और दूर खड्यो रोयवे लग्यो ।
हे ललिते ! सामने की गोपी क्यों रोय रही है ?
राधा ने पूछ्यो ललिता तै ….तौ ललिता हूँ गयी पास में …..का बात है ? तुम रोओ काहे कूँ हो ?
हे ललिते ! मेरौ मन हो ….कि सावन में झूला झूलूँ …..लेकिन …..लेकिन का ? झूला डालवे वारौ कोई नही है …..मेरे काजे कौन झूला डालैगौ ? ललिता ने जाय के सारी बात बताय दई राधा कूँ ….राधा कौ हृदय कोमल है …भोरी हैं राधा …..कन्हैया की बात पे आय गयीं …….तौ बोलीं …जा ललिते ! जा बुलाय ला ….और मेरे पास झूला में बैठाय दै । ललिता ने बुलायौ , तौ कन्हैया दौड़ के गयौ …..और राधा के बगल में जाय के बैठ गयौ …..रसिया है …राधा कौ स्पर्श मिल्यो तौ सब भूल गयौ …..देह सुध हूँ भूल गयौ …लहंगा ऊपर , तौ भीतर की पीरी धोती दीख गयी ……भीतर फेंट की बाँसुरी बाहर आय गयी ।
ललिता हँसती भई बोली …..हे किशोरी ! जे कोई गोपी नही है …गोपा है …..अपनौं कन्हैया है …..जे सुनते ही सब वहाँ की गोपियाँ कन्हैया कूँ पकड़वे भागीं ….कन्हैया भगौ बाहर ….मोते चिल्लातौ भयौ बोलो …मधुमंगल ! भाग चोरी पकड़ी गयी …..पीछे गोपियाँ छड़ी लै कै ….मैंने भगा दिए कन्हैया …लेकिन मैं पकड्यो गयौ ……ओह ! जो छडिन तै मेरी सुताइ भई है ….
दारीकौ कन्हैया ! मोकूँ ही फँसावै ।
क्रमशः……
Hari sharan
] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - २७*
*🤝 ८. व्यवहार 🤝*
_*विषय -त्याग से मुक्ति*_
*विषस्य विषयाणां हि दृश्यते महदन्तरम् ।*
*उपभुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि ॥*
इस श्लोक के लिखते ही *'चिन्ता'* और *'चिता'* के साम्य की बात याद आ गयी। इन दोनों में एक अनुस्वार का ही अन्तर है; परंतु इनके कार्य में बड़ा अन्तर है । चिता निर्जीव को-मुर्दे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित मनुष्य को जलाती है। चिता मुर्दे को एक ही बार जलाती है, पर चिन्ता तो जीवनपर्यन्त दिन-रात जलाया ही करती है। चिन्ता इतना करके भी बुझती नहीं, वह जन्म-जन्मान्तरों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ती; क्योंकि मनुष्य को चिन्ता होती है-विषयभोग की और इसलिये जबतक विषयभोग की तृष्णा शान्त नहीं हो जाती, तबतक जीव अनेकों शरीर धारण करता रहता है और वहाँ चिन्ता उसे जलाया ही
करती है।
इसी प्रकार *‘विष’* और *‘विषय'* शब्द भी एक-से ही लगते हैं; क्योंकि विषय में विष की अपेक्षा एक *'य'* मात्र अधिक है। परंतु दोनों के स्वभाव में गम्भीर विषमता है। उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि विष तो उसे खानेवाले को ही मारता है; विष के स्मरण कर लेनेमात्र से कोई मरता नहीं, अफीम या संखिये का कोई कितना ही स्मरण करे—उनके गुण-दोषों का अनुशीलन करे, उन्हें हाथ में ले ले, परंतु इससे किसी की मृत्यु नहीं होती। लेकिन *‘विषय’* तो इतना हत्यारा विष है कि उसके स्मरणमात्र से मनुष्य का विनाश हो जाता है। फिर, विष तो एक ही बार मनुष्य को मारता है, पर विषय तो अनेकों जन्म-मरण का कारण बन जाता है।
अब यह देखना है कि विषय के स्मरणमात्र से मनुष्य का विनाश कैसे होता है। इसके सम्बन्ध में सौभरिमुनि का दृष्टान्त अति प्रसिद्ध है। *सत्ययुग की बात है और यह आख्यायिका श्रुति में भी है। सौभरिमुनि सूर्यतनया श्रीयमुनाजी में रहकर तप करते थे। कहते हैं कि यों तप करते उन्हें साठ हजार वर्ष हो गये थे। होनहार की बात, एक दिन उन्होंने एक मत्स्य-युगल को अपने बच्चों के साथ बड़े आनन्द से खेलते देख लिया। जल में जल-जन्तुओं के इस निर्दोष आनन्द को देखते ही मुनि के मन में विषयों का स्मरण हो आया । स्मरण आते ही गृहस्थाश्रम धारणकर इन मछलियों की तरह ही सुख भोगने की प्रबल कामना जाग उठी। बस, मुनि बाहर निकले और सीधे पहुँचे राजा मान्धाता के दरबार में। इस समय सौभरिमुनि के तप की कीर्ति सब ओर फैली हुई थी। मान्धाता से भी यह बात छिपी नहीं थी। मुनि को आया देख राजा ने अपने को धन्य समझा और मुनि का समुचित आदर-आतिथ्य करके सेव बतलाने के लिये प्रार्थना की। सरल हृदय मुनि ने तुरंत अपनी इच्छ प्रकट की—'राजन्! तुम अपनी एक कन्या का विवाह मेरे साथ कर दो।' राजा विचार में पड़ गये-इतने वृद्ध तथा तपस्या से जर्जरि मुनि को कन्या कैसे दी जाय? परंतु अस्वीकार करने का परिणाम भी राजा से छिपा नहीं था। अतएव युक्ति के साथ राजा ने कहा- 'महाराज मेरे पचास कन्याएँ हैं, उनमें जो आपका वरण करे, उसीके साथ आपका विवाह कर दूँ।' यों कहकर मुनि को राजा अन्तःपुर में ले गये सिद्धि प्राप्त मुनि से राजा के मन की बात छिपी नहीं रही, अतएव भीतर पहुँचते-पहुँचते मुनि ने अपने तपोबल से कामदेव के समान परम सुन्दर रूप और यौवन धारण कर लिया। अन्तःपुर में जाकर राजा ने अपने रानी तथा कन्याओं को मुनि का प्रस्ताव सुनाया तथा मुनि से राजा ने जो कुछ कहा था, वह भी बता दिया। वहाँ तो पचासों ने ही मुनि को वरमाला पहना दी और उसके बाद बड़ी धूम-धाम से पचासों कन्याओं के साथ सौभरिजी का विवाह भी हो गया। मुनि ने विषयवासना के वश होकर पुनः अपनी तपस्या को देकर जो इन्द्र की अमरावती में भी नहीं हों—ऐसे वैभव से युक्त पचास महल देखते-ही-देखते बना लिये, सम्पूर्ण विलास-सामग्रियाँ आ गयीं और पचासों स्त्रियों के साथ सौभरिमुनि रहने लगे। इतना वैभव और इतनी स्त्रियाँ होनेपर भी मुनि को सुख तो जरा भी मिला नहीं, उलटे क्लेश का ही उन्हें अनुभव हुआ। विषयोंमें सुख हो, तब न उनकी प्राप्ति से सुख मिले। बालूमें तेल है नहीं तब मिलेगा कहाँ से? विषय तो केवल सुख की भ्रान्ति उत्पन्न करके दुःख के दरिया में ढकेल देते हैं, कुछ वर्षों के बाद राजा मान्धाता को समाचार मिला कि सौभरिमुनि गृहस्थाश्रम का त्याग करके पुनः तप करने चले गये।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-40
प्रिय ! सुने री मैंने निर्बल के बल राम…
(श्री सूरदास जी)
मित्रों ! कठोपनिषद कल पढ़ रहा था… क्यों
पढ़ रहा था पता नही… बस ऐसे ही… हाँ याद
आया… चातुर्मास की तैयारी करने के लिए
जितने साहित्य थे मेरे कक्ष में सबको देख देख
कर हटा रहा था… तो कठोपनिषद हाथ में आगया
…पन्ने पलटे तो एक श्लोक दिखाई पड़ा
…”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो”
(परमात्मा की प्राप्ति बल से हीन व्यक्ति को नही
हो सकती) ।
प्रेम साधना ! प्रेम योग ! प्रेम पन्थ !
ये विलक्षण है…ये ज्ञान का मार्ग नही है
…पर प्रेमी , परम ज्ञानी होता है… उसे
पता होता है कि मेरा प्रियतम ही सत्य है
…बाकी सब झूठ है… मिथ्या है ।
मैं हरिशरण ! ख़ूब कथाएँ करता हूँ… जब
व्यक्ति की उपदेश लेने की उम्र होती है… तब
मैंने उपदेश देना शुरू कर दिया था… पर अंदर
से खाली… मुझे कचोटता रहता था मेरा हृदय
…स्वयं ने कुछ पाया नही… काम, क्रोध, लोभ
…और घोर अज्ञानता से घिरा हुआ एक जीव ।
तड़फ़ बढ़ती गयी… मेरे सब मित्र कहते… आओ
टीवी में… आओ आस्था में…संस्कार चैनल में
…।
पर उनकी बात मेरे समझ में ही नही आती
थी…क्यों आओ ?
उन्नति नही करनी ?… आगे नही बढ़ना… ?
…मैं कहता बढ़ना है… मंजिल तक
पहुँचना है… तो मंजिल चाहिए तो चैनल में
आना पड़ेगा… उनकी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य
लगता…
मैं उन्हें कहता – क्या चैनल में आने से मुझे
मेरे भगवान मिल जाएंगे ?… वो मेरी हँसी
उड़ाते… कहते… उन्नति यही है कि आपका
प्रचार हो… लोग आपको जानें… मैंने कहा
…पर मेरा कन्हैया तो नही जानेगा ना
?…पैसा ख़ूब कमाओ… और बढ़िया आश्रम बनाओ
…मैं कहता… इससे मेरा “प्यारा” तो नही
रीझेगा ना ?… शिष्य बनाओ… उनसे ही
तुम्हारा और विकास होगा… मैं आश्चर्य से
उनकी बातें सुनता… और यही कहता
…शिष्य बनाने से क्या मेरा प्रियतम
आनन्दित होगा… उसे ख़ुशी मिलेगी ?…। मेरी
बात का किसी के पास कोई ज़बाब नही था… मैं
बस दिल में “भगवत्प्रेम” की आग लिए घूमता ही
रहता… प्रेम की आग ?…अरे ! मेरे अंदर
कहाँ प्रेम ?… मेरे जैसे व्यक्ति को कहाँ
प्रेम मिल सकता है ? प्रेम तो दूर दूर तक भी
खोजे नही मिलेगा मुझ में… सारे दुर्गुणों
से भरा हुआ मैं… काम भी है मेरे अंदर…
क्रोध भी है… लोभ… मोह सब तो विकार हैं ।
मेरे हृदय में जल रही इस आग को कोई नही देख पाता था…
एक बार मैंने देखा… एक महात्मा को…
तो मैंने उन्हें पहचाना… कि ये अच्छे
महात्मा हैं… नही तो संसार के लोग तो उन्हें
भिखारी ही समझते थे… मैं वृन्दावन की परिक्रमा
लगा रहा था… रात्रि में मैंने उन्हें देखा
…यमुना के किनारे रो रहे थे… और
रोते हुये… पुकार रहे थे… “कृष्ण कृष्ण”
…कभी कभी “राधा राधा”…ये नाम का
उच्चारण कर लेते थे… मैं रात्रि के बारह
बजे से लेकर प्रातः के 4 बजे तक वहीं बैठा
रहा… और वो महात्मा पूरी रात रोते रहे
…रोते रहे… इतना करुण क्रंदन था कि जड़
भी पिघल जाए… 4 बजते बजते तो उन महात्मा की
हिलकियाँ ही बन्ध गयी थीं… हे नाथ ! हे प्रभु
! हे गोविन्द । वो मूर्छित हो गये थे
…मैं उठा अपने आँसुओ को पोंछते हुये उनके पास
गया तो मूर्च्छावस्था में भी उनके मुख से
“कृष्ण कृष्ण” निकल ही रहा था…ओह ! इतनी
बड़ी स्थिति ! जाग्रत में भगवन् नाम लेना
…कोई बड़ी बात नही है… पर चित्त में
नाम जब छप जाए तो नींद में भी प्रिय का नाम
ही निकलता है… अन्तः करण भगवत् प्रेम में
डूब चुका था उनका ।
मैं उनके पास गया… यमुना जल उनके ऊपर छिड़का…उन्हें कुछ होश आया… तो सम्भल गये ।
अपनी साधना को मुझ से छुपाना चाहते थे । मैंने
कहा…भगवन् ऐसी विलक्षण स्थिति ?
आपको तो भगवान के दर्शन हुये होंगे ?
…बताईये ना ?…
वो महात्मा जी कुछ नही बोले… मैंने कहा
…भगवन् ! मैं किसी को नही बोलूँगा… आप
बताईये ना ! आपको तो दर्शन मिले ही होंगे ?
…
उन्होंने कहा… मैं झूठ क्यों बोलूँ मुझे
कोई भगवान के दर्शन नही हुये… मुझे कोई
भगवान ने दर्शन नही दिए ।
मैं टूट गया… ओह ! इतने पर भी भगवान के
दर्शन नही होते… तो फिर भगवान है ही नही
…ये सब ऐसे ही है…जो रात रात भर
रोता रहा… नाम को चीख चीख कर पुकारता रहा
…और ये एक दिन की बात नही होगी… ये
रोज रात्रि में ऐसे ही करते होंगे… ओह !
इतना विरह इस कलियुग में किसके पास होगा
?…नही ।
इस घटना के बाद मेरे मन में श्रद्धा और समर्पण
भगवान के प्रति कम हो गया । पर आग जो हृदय
में थी… वह तो धीरे धीरे सुलग ही रही
थी…और सुलगते सुलगते मुझे पता भी न चला
कि शोला बन चुकी थी वह आग ।
ये सत्य घटना है… मुझे लिखना चाहिए या नही
मुझे नही पता ।
मैं ऋषिकेश गया था… राम झूला के पास में ही
एकान्त देखकर ध्यान में बैठ गया…ध्यान की
गहराई में तुरन्त मेरा प्रवेश हुआ…।
पता नही क्या हुआ… मेरे आँखों से अश्रु बहने
लगे… रोमांच शुरू हो गया… शरीर में कम्पन
होने लगा… हृदय की धड़कन बढ़ गयी… सर्दी का
महीना था… फिर भी पसीने से नहा गया मैं ।
एकाएक आवेश आया… पता नही क्या था वो
…मैं उठा और गंगा जी की गोद में समाने के
लिए दौड़ पड़ा… मैं कूदने ही जा रहा था कि
…एक मधुर ध्वनि मेरे कानों में… और
कानों से होती हुयी हृदय में अमृत का संचार
कर गयी… आह ! कितनी मधुर ध्वनि !
मैंने पीछे मुड़कर देखा… कौन गा रहा है ?… पर
कोई नही था वहाँ तो… चारों ओर दृष्टि
घुमाई… कोई नही था… पर वो पद के शब्द
गूँज रहे थे…
। निर्बल ह्वै बल राम पुकार्यो , आये आधे नाम ।
किसी छोटे बालक की हँसी गूँजी… मैंने
देखा कौन हँस रहा है… एक घने वृक्ष की
ओट में सांवला सलोना… टेढ़ा हाँ टेढ़ा ही
खड़ा था… और मन्द मन्द मुस्कुरा रहा था ।
कितना सुंदर… कितना अद्भुत सौंदर्य ।
मुझे देखकर जोर से वह मादक हँसी और गूँजी
…मैं मन्त्र मुग्ध हो गया… स्तब्ध हो
गया ।
मेरे साथ के मित्र ने मुझे गंगा के शीतल जल का
छींटा देकर जगाया… क्या हुआ ?
…मैंने कहा… पता नही… पर वो कहाँ गया
?… महाराज ! आपको अब मैं अकेले नही छोड़ूंगा
।
मैंने कहा .. क़ाश ! ये शब्द “वो” कहता ।
मुझे सहज होने में 5 घण्टे लगे थे ।
अनुभव नही बताना चाहिए – गौरांगी ने कहा
…मैंने कहा… मेरी बात सुनकर शायद किसी
के हृदय में पड़ी हुई “प्रेम की बाती” जल जाये ।
आज कठोपनिषद के इस सूत्र को पढ़ते हुये हँसी
आगई कि… “बलहीन व्यक्ति उसे पा ही नही सकता”
मेरे पास में कहाँ है बल… न साधना का… न
भजन, न विधि… न व्रत… किसी का बल नही
है…हाँ बस एक बल है… “उसका बल” ।
गौरांगी हँसते हुये बोली… लिखो !…
“जाके बल में सबसौं तोरी , लोक लाज कुल कांनी”
मैंने कहा – प्यारी ! इनको बिना छोड़े…वो मिलेगा भी नही… ।
Harisharan

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