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July 23, 2025 2:44 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम, भाग 154 भाग1 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक: Niru Ashra –

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣5️⃣4️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

मेरे श्रीराम के बाल सखा थे ………”विजय” नाम था उनका ।

पर वो “विजय राघव” ऐसा नाम बोलनें को कहते ………

वो हंस मुख थे…….हर समय विनोद के ही मूड में रहते थे ।

उनको कोई , कहीं रोक टोक न थी……..वो कहीं भी आजा सकते थे ।

विजय हमारे यहाँ भी आजाते……..और बड़े प्रेम से – भाभी जी ! कुछ खानें को नही है क्या ?

पर तुम यहाँ कैसे आजाते हो ? श्रुतकीर्ति थोडा विनोद करती ….

मैं ! मैं यहाँ !!!!!!!! वो कुछ सोचते फिर कहते ……चींटी को मीठा डाल रहा था ………….।

पर यहाँ चीटीं कहाँ हैं ? श्रुतकीर्ति कहती ……तो विजय हंस देते ……मेरे पास भी मीठा कहाँ है !…….उनका कोई बुरा नही मानता था …….वो मित्र थे मेरे श्रीराम के ……..बाल्यावस्था के मित्र ………कौन उनसे कुछ बोल सकता था ।

विजय ! बताओ ना ! मेरे बारे में अयोध्या की प्रजा क्या सोचती है ?

आज गम्भीर हैं मेरे श्रीराम ………..और विजय से पूछ बैठे ।

आपके बारे में तो प्रजा ! हँस पड़े विजय ………….आपका गुणगान तो रावण भी करता था…….मैने सुना है ………..फिर ये अयोध्या वासी क्यों न करें ।

मुझे आज अपनी प्रशंसा नही सुननी है ………..सच बताओ ना ! मेरे बारे में कोई बुराई ?

बुराई कौन करेगा आपकी …….आपका स्वभाव ही इतना मधुर है …….

विजय गुणगान गा नही सकता ………क्यों की गुणगान सुनना पसन्द नही है मेरे श्रीराम को ।

अरे हाँ ! विजय एकाएक बोला …………..वो धोबी है ना ! जो मेरे घर के पास ही रहता है ……….वो पत्नी को पीटते हुये कह रहा था !

मेरे श्रीराम और गम्भीर हो उठे ……..क्या बोल रहा था वो ?

विजय को लगा गलती हो गयी मुझ से………नही कुछ नही कह रहा था ………मेरे मुँह से भी ना, क्या क्या निकल जाता है !

नही विजय ! तुम को मैं बचपन से जानता हूँ ……तुम झूठ नही बोलते …..तुम चाहे कुछ भी हो सत्य ही बोलते हो !

सच बताओ मेरे बारे में क्या कहती है प्रजा ?

प्रजा कहती है …….हमारे राजा तो जहाँ दाढ़ी वाले बाबा जी और पीले कपड़े देखे …..रथ से कूद जाते हैं ……और उन बाबा जी के पैर ही पकड़ लेते हैं ।

विनोद के मूड में नही हूँ मैं विजय ! सच बताओ वो धोबी क्या कह रहा था ………..?

राघव ! आप भी जिस बात को पकड़ लेते हो …………..छोडो ना ! धोबी जो कह रहा था उसकी बात का मूल्य क्या ?

कैसे मूल्य नही हैं विजय ! वो मेरी प्रजा है …….और मैं अपनी प्रजा का हूँ …………मेरा जीवन अब मात्र प्रजा के लिये ही समर्पित है ।

राम का अब अपना व्यक्तित्व कहाँ ! राम तो अब अपनी प्रजा के लिये जीयेगा ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!!

🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ४८*

                 *🤝 २. संसार 🤝*

                _*संसार में सार क्या है*_ 

   अब ईश्वर ही जगत् का उपादान-कारण है, इसका प्रमाण देखिये। गीतामें श्रीभगवान् कहते हैं-

   *'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।'*

   अर्थात् इस समस्त जगत्‌ में मैं अव्यक्तरूप से व्याप्त हूँ। जैसे अँगूठी में सोना अथवा घड़े में मिट्टी व्याप्त होकर रहती है, वैसे ही ईश्वर जगत् में व्याप्त रहता है। यहाँ कदाचित् अर्जुन प्रश्न करें कि 'महाराज! आप तो रथ में यहाँ मेरे सामने बैठे हैं और फिर कहते हैं कि मैं सारे जगत् में व्याप्त हो रहा हूँ;- यह कैसे हो सकता है?' इसीलिये भगवान् पहले से ही कह रहे हैं— *'मया अव्यक्तमूर्तिना।'* मैं इस अवतार-स्वरूप से तो तुम्हारा रथ हाँकता हूँ-यह ठीक है; परंतु मेरा जो मूल सर्वव्यापक स्वरूप है, जो इन्द्रियों से अगोचर है, उस स्वरूप से मैं सर्व जगत् में व्याप्त हो रहा हूँ। फिर दूसरे प्रसंग में श्रीभगवान् कहते हैं-

 *'मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय ।'*

   अर्थात् हे अर्जुन! जैसे अँगूठी सोने से भिन्न कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार मुझ से भिन्न इस संसार में कोई पदार्थ नहीं है। अर्थात् मैं ही इस जगरूप में दृष्टिगोचर हो रहा हूँ। इस जगत् का उपादान कारण मैं ही हूँ। इसलिये मेरे सिवा जगत् दूसरा कुछ नहीं है। ब्राह्मण लोग प्रतिदिन शंकर की पूजा करके आरती उतारते समय गाते हैं-

 *कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।*
 *सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितं नमामि ॥*

   यहाँ शंकर जी का एक विशेषण *'संसारसार'* भी है। अर्थात् इस संसार में कुछ साररूप है तो वह एक ईश्वर ही है; क्योंकि उसके सिवा जगत् कोई वस्तु नहीं। अब इस साररूप वस्तु को खोजें कहाँ ? ऐसा किसी भक्त के मन में प्रश्न हो तो कहते हैं- *'सदा वसन्तं हृदयारविन्दे'* अर्थात् प्राणीमात्र के हृदयकमल में उनका नित्य निवास है। इसलिये ईश्वर को खोजने के लिये कहीं बाहर दौड़ने की जरूरत नहीं। हृदय को शुद्ध करने से वहीं उनका दर्शन हो जायगा। श्रीअष्टावक्र मुनि कहते हैं-

 *यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।*
 *तथैवास्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः ॥*

   जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित हुए रूप के भीतर और बाहर चारों ओर दर्पण का काँच ही रहता है, उसके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं होता, इसी प्रकार इस शरीर में भी, इस जगत् में भी अन्दर और बाहर, चारों ओर एकमात्र परमेश्वर ही है, उसके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार ईश्वर सर्वव्यापक है, अतएव वह कहीं नहीं है—यह कहना ही नहीं बनता। स्वर्ण जैसे अँगूठी में है, वैसे ही ईश्वर जगत्‌ में हैं। इस कारण यदि स्वर्ण के बिना अँगूठी का अस्तित्व रह सकता हो तो ईश्वर के बिना जगत् का भी अस्तित्व रह सकता है। 

   ऊपर जो बात श्रीअष्टावक्र मुनि ने सुन्दर दृष्टान्त के द्वारा समझायी है, उसी प्रसंग को श्रीवसिष्ठ ऋषि ने एक नाटक के रूपक से श्रीरामचन्द्रजी को समझाया है; उसका उल्लेख करके निबन्ध समाप्त करूँगा।

 *अस्मिन् विकारवलिते नियतेर्विलासे संसारनाम्नि चिरनाटकनाट्यसारे ।*
 *साक्षी सदोदितवपुः परमेश्वरोऽयं एकः स्थितो न च तया न च तेन भिन्नः ॥*

   अनेकों विकारों से भरे हुए, नियति-रूपी नटी के विलासों से युक्त इस संसार नामक अनादि महानाटक में सर्वदा प्रकाशमान यह प्रत्यगात्मारूप एक राजा ही देखनेवाला है। वस्तुतः देखने में यह राजा नटी से तथा नाटक से भिन्न नहीं है। द्रष्टा पुरुष दर्शन और दृश्य से अभिन्न ही है। *इसलिये इस संसार में कोई साररूप है तो वह एक परमेश्वर है, दूसरा कुछ नहीं। जो दिखलायी देता है, वह तो केवल दिखावामात्र, दृश्यमात्र है।*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
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