Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣5️⃣4️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
मैं रात्रि को लौटकर अपनें घर जा रहा था …………तभी मैने देखा एक धोबी जो अपनी पत्नी को पीट रहा था !
पीट रहा था ? अपनी पत्नी को ? मेरे श्रीराम चौंक गए थे ।
पर क्यों ? क्यों विजय !
विजय अब अपना मुख ढँककर रो रहा है ।
बताओ विजय ! क्या बात है ?
वो कह रहा था ………….एक रात के लिये घर से बाहर चली गयी तू !
और मुझे कह रही हैं मैं पवित्र हूँ ? अरे ! जा यहाँ से ………मैं नही रखूंगा तुझे अब घर में ?
राघव ! मुझे अच्छा नही लगा…….मै उसके घर में जाकर उसे रोकनें वाला था कि पत्नी के ऊपर हाथ नही उठाना चाहिये…….पर !
पर क्या ? मेरे श्रीराम नें फिर पूछा ।
आगे नही बता सकता …………मुझ से अपराध होगा मेरे राघव !
ऐसी बात मुँह से निकालना भी अपराध है …..पाप है ।
पर तुम्हे बोलना होगा……….बोलो विजय ! मेरे श्रीराम नें कहा ।
लम्बी साँस लेकर……..अपनें आँसुओं को पोंछते हुए विजय बोला ।
वो धोबी कह रहा था – “मैं कोई राम नही जो लंका रह आई सीता को अपनें पास रख ले”
क्या ! मेरे श्रीराम उठ कर खड़े हो गए थे……….ये क्या !
चरण पकड़ लिये विजय नें ………..
राघव ! मेरी भाभी माँ सबसे पवित्र हैं…….उनको अपवित्र कहना भी पाप है…….वो सती हैं ……..महासती !
विजय बोलता जा रहा था ।
मेरे श्रीराम का मुख मण्डल उस समय लाल हो गया था….।
और लोग क्या कहते हैं ? मेरे श्रीराम नें फिर पूछा ।
और लोग ………..और लोग तो कहते हैं ……हमारे जैसा राजा तो आज तक हुआ ही नही ………रामराज्य में देखो …प्रजा कितनी खुश है …….प्रकृति आनन्दित हैं ……विजय धड़ाधड़ बोलता गया ।
नही ……सच बताओ ! धोबी की बात और भी लोग कह रहे हैं ?
मौन हो गया विजय ………फिर कुछ देर में बोला – .लोग कह रहे हैं …….पर दो तीन लोगों के कहनें का क्या मूल्य ?
शान्त भाव से बैठे रहे मेरे श्रीराम ………………विजय भी वहीं बैठा रहा ……।
माँ ! आप ? माता कौशल्या महल में आगयी थीं ।
एक खुश खबरी है राम ! श्रीराम नें उठकर प्रणाम किया माता को ………..फिर विजय की ओर देखते हुये बोलीं …..ये तो महल का ही व्यक्ति है इससे क्या छिपाना ?
वत्स राम ! तुम पिता बननें जा रहे हो……हाँ …….सीता गर्भवती है ।
विजय उछला …….बधाई हो राघव ! पर मेरे श्रीराम गम्भीर ही बने रहे ।
अच्छा ! मुझे नही आना चाहिये था………..शायद कोई गम्भीर मन्त्रणा चल रही थी तुम लोगों की ………मैं तो बस ये शुभ सूचना देनें आगयी थी …………माँ कौशल्या जी चली गयीं ।
अब छोडो ना ! राघव ! एक धोबी की बात पर क्यों ?
विजय ! तुम जाओ …….और मेरे तीन भाइयों को बुला लाओ ।
ठीक है ……..विजय जैसे ही जानें लगा …………..मैं अपनें श्रीराम के हृदय से लगनें आ रही थी …………मैं गर्भवती हो गयी थी …..एक स्त्री के लिये इससे बड़ी ख़ुशी और क्या हो सकती है ……और वो भी श्रीराम के पुत्र मेरे गर्भ में थे !
“राघव ! भाभी “……….विजय जा रहा था बाहर ……मैं अपनें नाथ के पास आरही थी ……….पर विजय नें मेरे श्रीराम से कहा ……..।
नही ….अभी नही ……….कह दो सीता को कि अभी मैं राजकाज में व्यस्त हूँ …………..मेरी ओर देखा भी नही ……………और विजय से बोले …….तुम मेरे तीन भाइयों को बुला लाओ ।
मैं लौट गयी अपनें महल की ओर…….ये कैसा रूप था मेरे श्रीराम का ।
मुझे घबराहट होनें लगी थी …………फिर मन को समझाया मैने ………राजकाज है………कितनी समस्याएं आती हैं ………प्रजा की किसी समस्या से दुःखी होंगें…….!
मैं लेट गयी थी अपनें पलंग में……….मैनें अपनें सामनें एक सुन्दर सा चित्र बनवाया है ………..उर्मिला से कहकर ……….मेरे सामनें मेरे श्रीराघवेंद्र सरकार का एक चित्र हो ………..ताकि उनके पुत्र भी उनकी तरह ही बनें …………उर्मिला नें चित्र लगा दिया है ।
शेष चरित्र कल ……!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-61
प्रिय ! झूलत झूला, प्रेम बिहारी…
(रसिक वाणी)
मित्रों ! मैंने चरण पकड़ लिए बाबा के , आँखों
से अविरल अश्रु बहते ही जा रहे थे… प्रातः की
वेला थी… क़रीब 4 बज रहे होंगे…
कोई नही था… कुञ्ज में बाबा थे और मैं था ।
ओह ! आज मुझे ये हो क्या गया ?… इतना विरह ?
… क्यों ? ओह ! कल रात भर गीता वाटिका
(गोरखपुर ) के परम सन्त श्री राधा बाबा जी
महाराज का एक ग्रन्थ कोई साधक मुझे दे गया था
… बस उसे पढ़ते हुये , पढ़ना न कहुँ रोना ही
कहुँ तो ज्यादा ठीक रहेगा । क्या भाव दशा थी
… क्या भाव समाधी थी राधा बाबा की ।
मेरी क्षण क्षण में नींद खुल रही थी… हृदय में
तीव्र वेदना प्रकट हो रही थी… टीस ।
साधकों ! क्या जीवन का मतलब महत्वाकांक्षा ही
है ?… साधकों ! क्या यही जीवन है जिसमें
अपार धन हो… कामना से हमारा अन्तःकरण दूषित
हो चुका हो… पत्नी , बच्चे , पोते, पोती
परिवार… बस यही जीवन है ?…
मैं बिलख उठा… बाबा ! अब रहा नही जा रहा
… उस प्रेमरूप श्री कृष्ण का दर्शन कराओ ना ।
… बाबा ! ये जीवन फिर मिलेगा कि नही क्या
पता… मिलेगा भी तो क्या पता यहीं भारत
वर्ष में ही मिलेगा ? या कहीं और पश्चिम के
देशों में मिला तो ?… या मनुष्य ही बनेंगे
ऐसा थोड़े ही है… पशु बन गये तो ?
मेरे नेत्रों से अश्रु निरन्तर बरस ही रहे थे
… बाबा ! आज कृपा कर दो ।
बाबा ने मेरी ओर देखा… शान्त भाव से ।
मैं उनको देखता रहा… ये क्या कर रहे हैं
बाबा !… क्या यही है – शक्तिपात ।
मैं उस दिव्य भूमि में उतर चुका था… बाबा मेरे साथ
में थे… दिव्य कुञ्ज वन है… लताओं से
आच्छादित वन है… कुञ्ज इतनी घनी हैं कि
दिन में भी अँधेरा लगता है । सरोवर में कमल
खिले हुये हैं… बाबा बोले – हरि ! अभी
तो प्रेम बिहारी और प्रेम बिहारिणी दोनों ही
सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं… इसलिए अभी इस
निभृत निकुँज के द्वार भी बन्द हैं… मैं
दुःखी हो गया ।
बाबा बोले – दुःखी मत हो… चल ! जब तक ये
“प्रेम के खिलौना” दोनों उठ न जाएँ तब तक हम
लोग “प्रेम नगर” का दर्शन कर लेते
हैं… और हाँ… इस प्रेम नगर का दर्शन
करते हुये ये याद रखना कि यहाँ काल (समय )
की कोई गति नही है… ।
और हाँ यहाँ कुछ भी जड़ नही है… सब कुछ
चैतन्य हैं… मैंने कहा – बाबा ! जैसे ?
… बाबा बोले – जैसे ये वृक्ष , ये लता, ये
गिरिराज पर्वत… ये बहती हुई यमुना… सब
कुछ चैतन्य है ।
इस “प्रेम नगर” के दो विभाग है… एक “संयोग
विभाग” और दूसरा “वियोग विभाग”… तो हरि !
बताओ तुम पहले क्या देखना चाहोगे ?…
मैंने कहा… पहले वियोग, विरह के ही विभाग में
चला जाए… हाँ तो चलो… हरि ! देखो
… बाबा ने मुझे दिखाया ।
वह कृशोदरी गोपियाँ , बेसुध पड़ी हुयी
हैं… और उनके मुख से “कृष्ण कृष्ण” की
ध्वनि निरन्तर चल ही रही है ।
कई सखियाँ हैं जिनकी तो साँस भी नही चल रही
… मैं पास में गया… कमल के पुष्पों की
सी खुशबु उनके देह से आरही थी… बाबा ने कहा
… मत छूना उन्हें… मैंने कहा क्यों बाबा ?
बाबा बोले – ये प्रेम की समाधी है । जैसे
योगी समाधी में स्थित होता है तो उसका स्पर्श
वर्जित है… मैंने कहा – बाबा ! ये कैसी समाधी ?
… बाबा बोले – समाधी में क्या होता है ?
… हरि ! बस वही एक ब्रह्मतत्व ही रह जाता है
है ना ?… समाधी में उस ब्रह्म के अलावा और
कुछ रहता ही नही है… क्यों कि ” मैं” भाव मिट गया… ऐसे ही इस “प्रेम समाधी” में भी प्रियतम के अलावा और कोई नही है
… हरि ! इस गोपी को देखो… ये विरह
वेदना में इतनी डूब चुकी है कि इसके रोम रोम
से आवाज़ आरही है… सुनो ! पर हाँ टच मत
करना… मैंने ध्यान से सुना तो गोपी के
रोम रोम से यही आवाज़ आ रही थी-
..
… “कृष्णोहम्” “कृष्णोहम्” ( मैं कृष्ण हूँ )
हरि ! जैसे ब्रह्मबोध सम्पन्न व्यक्ति कहता है
… “सोहम्” या “अहंब्रह्मास्मि” ( मैं
ब्रह्म हूँ ) । हरि ! जैसे “लाल ही देखन
मैं गयी तो मैं हूँ ह्वै गयी लाल” ।
हरि ! विरह की स्थिति इस गोपी की इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है कि इस दशा में ये ” मैं गोपी हूँ”… ये
भी भूल गयी… और ” मैं कृष्ण हूँ”… यही पुकार
रही है । ओह ! कैसी विलक्षण स्थिति है ।
मैंने बाबा से कहा… बाबा ! ये कैसे सम्भव है ?
… बाबा हँसे प्रेम में सब सम्भव है ?
… क्या साधारण रति क्रीड़ा में भी स्वयं की
विस्मृती होकर प्रिय ही तन मन में नही छाया
रहता ?… फिर ये तो उच्चतम प्रेम है… क्यों
कि ये प्रेमास्पद तो पूर्ण और सर्वश्रेष्ठ है
… क्यों कि यही तो ईश्वर है… और ईश्वर के
साथ प्रेम… और उस प्रेम में विरह… तो सोचो
वह विरह तुम्हें कहाँ ले जायेगा !
फिर क्या हरि ! ईश्वरीय प्रेम और उस प्रेम का
विरह अगर प्राप्त हो गया तो क्या कुछ और करने
की आवश्यकता पड़ेगी ?… आसन , प्रणायाम,
प्रत्याहार, धारणा समाधी… ।
मैंने कहा… बाबा ! प्रेम साधना का आसन क्या है ?
बाबा बोले देखो ! योगियों को तो पद्मासन
इत्यादि आसन में बैठने का नियम है… पर ये
तो प्रेम साधना है… देखो ! आगे देखो ! ये
गोपी तो अपने दोनों पैरों को मोड़ कर
… उसमें अपनी ठोड़ी रखकर शून्य को तांक रही है ।
क्यों कि कृष्ण इस गोपी को कहकर गये हैं कि अभी आया… और जब तक कृष्ण नही आजायेंगे ये गोपी इसी आसन में बैठेगी चाहे कृष्ण युगों लगा दें आने में… ।
अरे ! प्रियतम जिस आसन में बैठाकर गया
… वही प्रेमी का आसन है ।
मैंने कहा… बाबा ! प्रेमी का प्राणायाम क्या है ?… बाबा बोले… देखो ! उस गोपी को देखो !… मैं पास में गया तो उसकी कृष्ण विरह में लम्बी
लम्बी साँसें चल रही थीं… बाबा बोले
… यही प्रणायाम है प्रेमियों का ।
सत्य क्या है बाबा ?… बाबा बोले… अपने
प्रियतम के अलावा सब झूठ है… एक मात्र
प्रियतम ही सत्य है… ।
मैंने कहा… बाबा ! अब “मिलन विभाग” के भी दर्शन कराओ ना ?…
और चलते हुये ये भी बताओ कि इस “प्रेम नगर” में
किस किस को प्रवेश है ?… बाबा बोले
… जिसका हृदय अत्यंत कोमल है… जिसका
हृदय अत्यंत पवित्र है… जिसका अन्तःकरण
भगवत् नाम से निर्मल हो चुका है… और जिसने
अपने ” मैं” भाव का पूर्णतया त्याग कर दिया है
… यानी “तू” ही… अब ” मैं” नही ।
उसी आत्मा का यहाँ प्रवेश होता है… अन्य
आत्माएं तो नर्क और स्वर्ग में ही भटकती रहती
हैं… और कुछ आत्माएं मुक्त हो जाती हैं
… जिन्होंने सम्पूर्ण इच्छाओं को त्याग
दिया… वो मुक्त हो गईं ।… पर
जिन्होंने न पाप किया… और न पुण्य
… जिन्होंने इच्छाओं को पूर्णतया त्याग दिया
… पर अपने अन्तःकरण में ईश्वर के प्रेम को
बसाये रखा… उस ईश्वर से प्रेम करने लगी
आत्मा… उस ईश्वर से कशिश पैदा हो गयी
… आत्मा की प्यास परमात्मा से “रास” होने
पर ही बुझती है… रास यानी रस ही रस… तभी इस प्रेम नगर में आया जाता है । “प्रेम नगर” में वही आत्मा आती है जो परमात्मा से मिलने के लिए तड़फ उठी हो ।
चलो ! “प्रेमनगर” का “मिलन विभाग”…
बाबा वो देखो !… चारों ओर आनंद ही आंनद… और ये तैयारी ?
चारों ओर हरियाली ही हरियाली छाई हुयी है
… बाबा देखो ! वो सखियों का झुण्ड… सब
हरी हरी साड़ी और लहंगा पहनी हुई… सब सुंदर
सुंदर… सब प्रेम में भींगीं हुईँ
… लो ! अब तो आसमान से बूँदे भी पड़ने लगीं
… छोटी छोटी बूँदे… ।
मैंने कहा… बाबा ! बारिश हो रही है… नही हरि !
मैंने कहा था न !
यहाँ काल की गति नही है… फिर बारिश ? ये
प्रेम नगर है… इसमें जो प्रेमियों की इच्छा
होती है… उसी के आधार पर सब कुछ हो जाता है
… ऋतुयें आजाती हैं… अरे ! हरि !
ऋतुयें तो प्रेमनगर में हाथ जोड़े खड़ी रहती
हैं , कि उन्हें भी सेवा का अवसर मिले… ।
एक दिव्य स्थान पर सब सखियाँ आकर इकट्ठी हुईं
… आम का एक विशाल वृक्ष था… उस वृक्ष
में रेशम की मोटी रस्सी डाली गयी… और उसमें सुंदर झूला सजाया गया ।
एकाएक जय जयकार गूँज उठा… सामने से
अष्टसखियाँ , कोई चँवर ढुरा रही हैं… कोई
वाद्य बजा रही हैं… कोई आगे आगे नृत्य दिखा
रही हैं… कोई अलाप ले रही हैं…
मध्य में चल रहे हैं… रस सिंधु, प्रेम रस
स्वरूप , सौंदर्य के साक्षात् साकार रूप
… पूर्णब्रह्म, परात्पर ब्रह्म श्री कृष्ण चन्द्र !
और साथ में श्री बृषभान दुलारी , ब्रह्म की
आल्हादिनी शक्ति ब्रह्म को अनन्त सुख देना ही
जिनका एक मात्र लक्ष्य है… ऐसी श्री राधा
रानी । सब बैठी हुयी सखियाँ आल्हाद में भर
गयीं… जय जयकार करने लगीं ।
आज हरियाली तीज है… झूले में श्री राधा जी
को बैठाया श्री कृष्ण ने… और झोंटा देने लगे ।
तभी एकाएक श्री राधा जी ने कृष्ण के वक्ष में
देखा मणि में अपना ही रूप… पर पहचान
नही पायीं…
हे कृष्ण ! ये कौन स्त्री है तुम्हारे हृदय में ?
… हे प्यारी ! तुम ही तो हो… नही
ये कोई और है… और झूले से उतर कर श्री
राधा यमुना के तट में जाकर मान कर बैठीं… ।
कृष्ण उदास हो गये… सब सखियाँ उदास हो गयीं ।
मैंने बाबा से पूछा बाबा ! ये असूया भाव ,
ईर्ष्या का भाव श्री राधिका जी के मन में क्यों
आया ?… और ये बार बार कृष्ण से क्यों रूठ जाती हैं ?
बाबा के नेत्रों से झर झर अश्रु बहने लगे
… माँ हैं ना… हम समस्त मनुष्यों का
कल्याण हो ऐसा ये सोचती हैं… कृष्ण
ब्रह्म हैं… और ब्रह्म तो पिता है… और
पिता , पाप पुण्य का हिसाब ही देखता है… पर
ये तो माँ हैं… ये न पाप देखती हैं… न
पुण्य, बस ये तो यही देखती हैं कि “बेटा मेरा
है” ।
और हमारी भलाई के लिए ये ब्रह्म को अपनी मुट्ठी
में रखती हैं… ताकि हम जैसे अनन्त पाप कर्म
करने वाले जीवों का ये भला कर सकें… अपने प्यारे कृष्ण से मान कर जाना… या रूठ जाना इसमें हम जीवों की भलाई ही है । तब श्री कृष्ण से हमारी सिफारिश करके हमें श्री राधा रानी पापों से मुक्त कराकर अपने नित्य धाम में बुला लेती हैं ।
मैंने “श्री राधा जी ” को प्रणाम किया ।
ये आप ही हो… हे राधे ! सच मानो ये आप ही हैं…
कृष्ण ने बारम्बार राधा से कहा…
“रसिक बिहारी मग जोवत खड्यो ,
अपने दोउ कर जोरी तेरे पायन परयो”
श्री किशोरी जी के चरण छू लिए कृष्ण ने । सारी सखियाँ आनन्दित हो गयीं… राधा जी मुस्कुरा दीं और बोलीं प्यारे ! मैं तब मानूँगी जब मैं जिसको कहुँ उसका आप मंगल कर दो ।
ठाकुर जी ने श्री किशोरी जी को अपने अंक में भरते हुये बात मान ली ।
… अब तो दोनों ही मिलकर झूले में झूल
रहे थे… सखियाँ मल्हार गा रही थीं ।
.
… अरे ! बाबा ! ये सखियाँ ? ये
सखियाँ तो “विरह विभाग” में पड़ी हुयी थीं… फिर यहाँ ?
… अरे ! हरि ! ये प्रेम नगर है… यहाँ
तो विरह और मिलन चलता ही रहता है… यही तो
है प्रेम नगर की विशेषता ।
चलो ! अब प्रणाम करो इस “प्रेमनगरी” को ।
मैंने कहा ..बाबा ! प्लीज़ एक बार और झूले में झूल
रहे प्रियाप्रियतम को निहार लूँ ।
मैं अपलक नेत्रों से निहारता रहा ..झूला झूलते हुये कुञ्ज बिहारी को ।
बाबा दूर खड़े होकर मुझे देख रहे थे…
ओह ! मैंने तो अब अपने आप को कुञ्ज में बैठा हुआ पाया… और मेरे सामने गौरांगी सितार में मल्हार राग में पद का गायन कर रही थी…
“ऐरी याही सावन में झूलेंगे झूला संग ,
झूला तो पड़ गयो अमुआ की डाल पे री”
Harisharan


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