Explore

Search

July 31, 2025 6:49 am

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

श्री सीताराम शरणम् मम 155 भाग 3 तथा अध्यात्म पथप्रदर्शक : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

मैं उस धोबी का सिर काट कर लाता हूँ भैया ! ऐसे कोई किसी के लिये कैसे कह देगा …..और पूज्या भाभी माँ ! सामान्य नारी तो नही है !

वो इस अयोध्या की साम्राज्ञी हैं ……..महारानी हैं ……..भैया ! आप अगर आज्ञा नही भी देंगें तो भी ये लक्ष्मण उस धोबी का गर्दन काट कर आपके चरणों में चढ़ा देगा । लक्ष्मण क्रोध पूर्वक बोल रहे थे ।

लक्ष्मण ! बहुत धीमी आवाज में बोले थे श्रीराम ।

“मनुष्य पर लांछन लगना मृत्यु के तुल्य है”

ये क्या कह रहे हैं आर्य ! भरत आगे आये थे ।

आप एक धोबी की बातों पर ? उसकी बातें भी कहीं ध्यान देनें योग्य हैं ……..मदिरा का पान करनें वाला ……पत्नी के ऊपर हाथ उठानें वाला !

बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी बातें सुनकर उदासीन हो जाते हैं ………

आर्य ! मुझे क्षमा करें……..मैं आपको उपदेश नही दे रहा …..मैं भरत आपके चरणों में अपनी विनती चढ़ा रहा हूँ ।

भरत ! अपनें यश अपयश से उदासीन हुआ जा सकता है……पर राजा पर ये बात लागू नही होती ना !

भरत ! मैं कोई सामान्य नागरिक नही हूँ ……..जो कलंक लगा रहा है …….उसे सुनकर भी अनसुना कर दूँ ? प्रजा कुछ कह रही है …..भले ही झूठ कह रही हो …..पर उसे सुनना तो पड़ेगा ना ! और उस प्रजा की बातों का उत्तर तो राजा ही देगा ना ! श्रीराम बस बोले जा रहे थे ……उनकी आँखें सूज गयी थीं रो रोकर ।

शासक समाज का होता है …………उसका आचरण, उसका लोकापवाद भी समाज के लोगों का आचरण बन जाता है ……इसलिये ऊँची गद्दी में बैठे शासक को बहुत सावधान रहनें की आवश्यकता है ।

श्रीराम बोले जा रहे थे …….और उस समय तीनों भाइयों का हृदय काँप रहा था ……..अज्ञात भय से ।

इसलिये राजा को प्रजा के हित के लिये …….अपनें आपको भी त्यागना पड़े – तो भी त्याग देना चाहिये ।

हाँ ……..मेरे श्रीराम अपनें आपको ही तो अब त्यागनें जा रहे थे ।

सब भाई उस समय शान्त, स्तब्ध , शंकित – सुनते रहे…….श्रीराम बोलते रहे……..बोलते रहे…….मेरे लिये तो लोक समूह ही अब उपास्य है …..प्रजा ही मेरी इष्ट है……क्यों की मैं एक राजा हूँ ।

शेष चरित्र कल ………….!!!!!

🌹 जय श्री राम 🌹
[26/07, 21:18] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ५३*

                 *🤝 २. संसार 🤝*

                  _*जन्म-मृत्यु-विचार*_ 

   इस प्रकार आत्मचैतन्य के बहिर्मुख होने तथा अन्तर्मुख होकर रहनेका एक विस्तृत दृष्टान्त अध्यात्मरामायण में है। वहाँ श्रीहनुमान् जी रावण को समझाते हुए कहते हैं --

   *बुद्धीन्द्रियप्राणशरीरसङ्गत-*
*स्त्वात्मेति बुद्धयाखिलबन्धभाग् भवेत् ।*
   *चिन्मात्रमेवाहमजोऽहमक्षरो*
*ह्यानन्दरूपोऽहमिति            प्रमुच्यते ॥*

   बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण और शरीर के संग के कारण आत्म-चैतन्य जो इनमें मिथ्या तादात्म्य सम्बन्ध बाँधता है उससे समस्त बन्धनों का भोक्ता बनता है। बुद्धि के साथ एकात्मता के कारण वह कर्तृत्व-भोक्तृत्व के बन्धन में पड़ता है, इन्द्रियों के साथ एकरूपता होने से विषयों के साथ संयोग-वियोगजन्य बन्धन प्राप्त होता है। प्राण के साथ तादात्म्य होने से क्षुधा-तृषा आदि का बन्धन प्राप्त होता है और शरीरके साथ अध्यास होता है तो उसको जन्म-मरण का बन्धन जकड़ता है। इस प्रकार अविवेक के कारण अनात्मा में आत्मबुद्धि होने से बन्धन की परम्परा चालू हो जाती है। परंतु यदि आत्मा अपना वास्तविक स्वरूप श्रीसद्गुरु की कृपा के द्वारा जान ले और निश्चय कर ले कि मैं तो चिन्मात्र हूँ, अजन्मा हूँ, अक्षर- अविनाशी हूँ तथा आनन्दस्वरूप हूँ तो उसी समय इन कल्पित बन्धनों से वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार आत्मा का निज स्वरूप में स्थित होना ही मोक्ष कहलाता है।

   *यहाँतक यह निश्चय हुआ कि जहाँ है, वहाँ चैतन्य एक ही है, अर्थात् उसमें कोई भेद घटित नहीं होता। जो भेद दीख पड़ता है, वह उपाधि के भेद को लेकर ही दीखता है, वह केवल भ्रान्ति के द्वारा ही दीखता है। अन्त:करण की उपाधि से युक्त चैतन्य जीव कहलाता है और शरीर की उपाधिवाला चैतन्य आत्मा कहलाता है तथा उपाधिरहित चैतन्य ब्रह्म कहलाता है। जैसे घट की उपाधिवाला आकाश घटाकाश, मठ की उपाधिवाला आकाश मठाकाश तथा उपाधि-रहित आकाश महाकाश कहलाता है। वस्तुतः चैतन्य तथा आकाश स्वरूपतः अपंग होनेके कारण उपाधि के धर्म उसे स्पर्श नहीं कर सकते। वे धर्म केवल प्रतिविम्बित होते हैं, इस कारण यह भ्रम होता है कि उपाधियुक्त चैतन्य मानो विभिन्न हैं।*

   इस भ्रान्ति को दूर करने के लिये पहले तो आत्मा का स्वरूप जानना चाहिये। श्रीअष्टावक्रजी ने उसका स्वरूप समझाते हुए कहा है-

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः ।
असो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात् संसारवानिव ॥

   स्वरूपतः आत्मा दोनों देहों का साथी है, व्यापक,  पूर्ण, एक, नित्यमुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग-निरंजन, नि:स्पृह, पूर्णकाम और शान्त है। परंतु भ्रान्ति के कारण अपने को देहरूप मानकर अपने निरंजन, निराकार स्वरूप को भूलकर जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवाहित होता रहता है। स्वरूप से तो आत्मा नित्ययुक्त है, तथापि जबतक अपने स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकता, तबतक उसको भवचक्र में भ्रमण से छुटकारा नहीं मिलता।

यावद् देहेन्द्रियप्राणैभिन्नत्वं वेत्ति नात्मनः ।
तावत् संसारदुःखौघैः पीड्यते मृत्युसंयुतः ॥

   इस प्रकार हमने देख लिया कि आत्मा स्वरूप से तो नित्यमुक्त, निरंजन तथा नि:स्पृह अर्थात् पूर्णकाम है, तथापि जबतक यह निश्चय नहीं कर लेता कि वह उभयशरीर से भिन्न है तथा इनके व्यवहार का साक्षीमात्र है, तबतक जन्म-मरण के चक्र में, मानो कील से जड़ दिया गया हो, इस प्रकार फिरा करता है और प्रत्येक जन्म में प्रारब्ध के अनुसार संसार में ढेरों दुःख भोगता है।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements