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July 31, 2025 1:03 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 157भाग 1″तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

लक्ष्मण ! रोको रथ , रोको ! मैं चहकती हुयी बोली थी ।

पर रथ रुका नही………..क्यों नही रोका रथ ?

मैने शिकायत की लक्ष्मण से …और कुछ देर मुँह फुलाकर भी बैठी रही ।

पर लक्ष्मण आज उद्विग्न थे ……..उनके चेहरे से स्पष्ट लग रहा था ।

क्यों नही रोका रथ ! कितनें प्यारे हिरण थे ……..मैं उनको दानें खिलाती ….. ! पर पता नही तुम जब से चले हो अयोध्या से कुछ उदास से लग रहे हो कुछ बोल भी नही रहे ।

क्या बात है लक्ष्मण ? मैं बार बार पूछ रही थी ……

पर लक्ष्मण ऐसे अशान्त थे जैसे उनके हृदय में ज्वाला फट रही हो ।

वो मेरी ओर देख भी नही रहे थे …………..

अरे ! रुको तो भाई ! रुको ! देखो ये विप्र बालक जा रहे हैं …..इनको कुछ दक्षिणा तो दे दूँ !

पर, ये पहली बार हो रहा था कि लक्ष्मण मेरी कोई बात नही मान रहे थे ।

आगे बस्ती दिखाई दी ………जहाँ नागरिक लोग आ जा रहे हैं……रघुकुल की ध्वजा रथ में देखते ही सब दौड़े ……..

महारानी सिया जू की ….जय जय जय …..

अयोध्या की सम्राज्ञी की… जय जय जय …….

मेरे ऊपर फूलों की वर्षा कर रहीं थीं नारियाँ ………मैं हाथ जोड़े सबका अभिवादन स्वीकार कर रही थी ।

बस्ती गयी …………..वन प्रदेश फिर प्रारम्भ हुआ ।

लक्ष्मण ! तुम्हारे भैया कितना प्यार करते हैं ना मुझ से ………..

मैने एक बार ही कहा था उनसे …………..कि मुझे वन देखना है …….बस मेरी बात तुरन्त मान ली ……और मुझे वन भेज दिया ………ये कहते हुये मैं आनन्दित हो उठी थी ।

पर ….लक्ष्मण ! तुम बोल क्यों नही रहे ? बताओ ना ?

अब शाम तक ही तो मैं हूँ ना ! शाम होते ही अयोध्या लौट चलना है ……..फिर क्यों ऐसे उदास चल रहे हो …..भैया ! क्या बात है ?

तुम रो रहे हो ? मैने जब देखा तो लक्ष्मण रो पड़े थे ……….भाभी माँ ! मेरा स्वास्थ ठीक नही है ………….इसलिये !

पर क्या हुआ तुम्हे ? बताओ तो भाई ! हुआ क्या तुम्हे ?

मैं अभी नही बता सकता………….आँसू पोंछे लक्ष्मण नें ।

क्यों नही बता सकते ? मैने पूछा । “आर्य की आज्ञा है भाभी माँ ! ……गंगा के उस पार पहुँच कर ही मैं आपको कुछ बताऊँ “

तो शीघ्र चलाओ ना रथ ! शीघ्र चलाओ लक्ष्मण !

मुझे भी सुननी है तुम्हारे अग्रज की बातें ………….!

मुझे क्या पता ………कि क्या बात है ! मैने लक्ष्मण से रथ शीघ्र चलाने को कहा ……..और बार बार कह रही थी ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …….!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹

Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                      *भाग - ५७*

                *🤝 २. संसार 🤝*

                  _*बन्ध-मोक्ष-विचार*_ 

अनात्मन्यात्मधीर्बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते।
बन्धमोक्षौ न विद्येते नित्यमुक्तस्य चात्मनः ॥

शरीर आत्मा से भिन्न है, विलक्षण है तथा विरुद्ध धर्मवाला है। तथापि मायाके कारण आत्मा अपने को शरीररूप मानता है और इतना ही बन्धन का स्वरूप है। देहात्मबुद्धि का नाश, अर्थात् ‘मैं देह हूँ’– इस भ्रान्ति को छोड़ देना ही मोक्ष का स्वरूप है। वस्तुतः बन्ध-मोक्ष कुछ है ही नहीं। आत्मा स्वभाव से ही नित्यमुक्त है, अतः उसमें बन्ध या मोक्ष सम्भव नहीं है। सूर्य में यदि दिन-रात हो तो आत्मा में भी बन्ध-मोक्षकी कल्पना घट सकती है।

इस प्रकार आत्मा नित्यमुक्त है तथा बन्ध-मोक्ष की कल्पना से भी परे है। तथापि जबतक सद्गुरु की कृपा से ‘मैं नित्यमुक्त आत्मा हूँ’- यह दृढ़ निश्चय नहीं होता, तबतक वस्तुतः न होते हुए भी, आत्मा का संसार-भ्रमण चलता रहता है। ‘यह जन्म-मरणरूप संसार केवल मिथ्यारोपित है, अतएव इसकी निवृत्ति के लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं। मिथ्या की निवृत्ति अपने-आप होनी चाहिये ।’

इसका उत्तर यह है कि मिथ्या की निवृत्ति के लिये भी जबतक मिथ्यात्व समझ में नहीं आता, तबतक प्रयत्न करना ही पड़ता है। रज्जु में सर्प दीखना, केवल मिथ्या प्रतीति है, तथापि जबतक प्रकाश की सहायता से रज्जु का ज्ञान नहीं होता, तबतक मिथ्या सर्प की निवृत्ति नहीं होती। जबतक मनुष्य अज्ञान-निद्रा से नहीं जाग जाता, तबतक स्वप्न का अनर्थ मिथ्या होनेपर भी निवृत्त नहीं होता।

मिथ्याऽऽरोपितसंसारो न स्वयं विनिवर्तते ।
विषयान् ध्यायमानस्य स्वप्ने मिथ्यागमो यथा ॥

यद्यपि यह सुख-दुःखादि संसार केवल मिथ्या-आरोपित है, तथापि जबतक इसका मिथ्यात्व समझ में नहीं आता, तबतक यह अपने-आप शान्त नहीं होता। दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जैसे स्वप्न का अनर्थ जागे बिना दूर नहीं हटता, उसी प्रकार यह संसार भी निवृत्त नहीं होता। यही कारण है कि संसार की निवृत्ति के लिये शास्त्र साधना करने को कहते हैं।

श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं- ‘भगवन्! यह तो मैंने समझ लिया कि संसार-बन्धन किस प्रकार काटा जाय और यह भी मेरी समझ में आ गया कि बन्धन के टूटने में देर लगती है, इसके लिये धैर्य रखना आवश्यक है। परंतु यथार्थ ज्ञान होने के बाद भी प्रारब्ध-क्षय-पर्यन्त देह धारण तो करना ही पड़ता है। इसलिये वह जीवन कैसे बिताया जाय, इसे आप कृपा करके बताइये।’

तब श्रीवसिष्ठजी प्रसन्न होकर बोले-ज्ञान होनेके बाद जीवन्मुक्त का जीवन कैसा होना चाहिये, यह तुमको मैं संक्षेप में समझाता हूँ, ध्यान देकर सुनो।

बहिः कृत्रिमसंरम्भो हृदि संरम्भवर्जितः ।
कर्ता बहिरकर्तान्तर्लोके विहर राघव ॥

हे रामचन्द्रजी! संसार के व्यवहार में ऊपर से जरा क्रोध दिखलाना अर्थात् सर्प के दृष्टान्त के समान फुफकारना, पर काटना नहीं, परंतु अन्तःकरण में जरा भी क्रोध न आने देना, अर्थात् उसे शान्त ही रखना। इसी प्रकार शरीर से यथायोग्य व्यवहार करना, परंतु अन्त:करण में ‘मैं यह करता हूँ’-ऐसा अहंकार न होने देना। इस प्रकार संसार में रहने से इसका बन्धन नहीं होगा।

अन्तस्संत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः ।
बहिस्सर्वसमाचारो लोके विहर राघव ॥

अन्तःकरण से सब आशाओं को निकाल डालो, राग-द्वेष से परे हो जाओ और वासना को निर्मूल कर डालो। पश्चात् संसार में यथायोग्य व्यवहार करते हुए जीवन-निर्वाह करो। इस प्रकार संसार में रहने से बन्धन नहीं होता।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
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