श्री सीताराम शरणम् मम 157भाग 3 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

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Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

ये क्या हुआ तुम्हे लक्ष्मण भैया ! वो हिलकियों से रो रहे थे ।

उनके आँसुओं से धरती भींग गयी थी ।

“माँ ! भैया श्रीराम नें आपका त्याग कर दिया है “

क्या ! मेरी बुद्धि स्तब्ध हो गयी…….मैं जड़वत् खड़ी रह गयी ……..मेरे लिये ये जगत शून्य हो गया ……….।

लक्ष्मण बोलते गए …….धोबी की बात ……..मैं अपावन हो गयी रावण के यहाँ रहनें से…….धोबी नें यही सब कहा……..यही सब कहते गए ।

लक्ष्मण ये सब बताकर   रथ की ओर बढ़ गए थे  ।

मैं खड़ी रह गयी थी अकेली ……….रघुवंश की बड़ी बहु ……….अयोध्या की सम्राज्ञी ……विदेह राज की लाडिली पुत्री मैं वैदेही ।

पर अकेली रह गयी थी… ………आज मेरे साथ कोई नही था ।

जब मैने देखा रथ चल पड़ा लक्ष्मण का……मैं चिल्लाई …..लक्ष्मण !

मैं भी प्रजा हूँ ……..मुझे भी तुम्हारे राजा से न्याय चाहिये …….।

मैं स्वयं नही गयी थी रावण के यहाँ ………..रावण मुझे लेकर गया था …….मैं क्या करती ? मैं नारी ……….मैं क्या करती ?

और फिर इस विश्व ब्रह्माण्ड नें भी देखा है …………मैनें अग्नि परीक्षा भी दी है ………मैं चिल्ला कर बोल रही थी ।

माँ ! मुझे इतना ही आदेश है……लक्ष्मण नें रथ रोककर मुझ से कहा ।

आदेश ! आदेश आदेश ! ……….हाँ तुम लोग तो कठपुतली हो अपनें अग्रज के …………..सुनो लक्ष्मण ! मैं भी क्षात्रायणी हूँ ….”मुझे ले चलो अयोध्या कहकर” मैं तुमसे प्रार्थना नही करनें वाली ।

पर इतना सुनते जाओ …………ये देखो ! मेरे उदर में बालक है …..देखो ! मैं चिल्लाई ………..देखो लक्ष्मण ! कहीं ऐसा न हो कि इन बालक के लिये भी मुझे परीक्षा देनी पड़े ………..देखो ! ।

मैं कितना रोष करती ! मेरे अश्रु बह चले थे अब ……….धारा निकल पड़ी नयनों से ।

लक्ष्मण कुछ नही बोले ……….वो चल दिए रथ लेकर ।

मैं भी दौड़ी गंगा की ओर ………मैं कूद जाऊँगी ………इस जीवन को ही समाप्त कर दूंगी ………..मैं कूदनें ही जा रही थी ……..कि तभी मेरा हाथ अपनें गर्भस्थ शिशु की ओर गया …………पैर मार रहे थे ……..जोर जोर से ……..मैं टूट गयी ……मैं बैठ गयी ……….और –

तुम उसी निष्ठुर के तो पुत्र हो ना ! तभी ऐसी अवस्था में भी चोट पहुँचा रहे हो अपनी माँ को……हे निष्ठुर के पुत्र । ओह ! मेरे हृदय में क्या बीत रही थी उस समय………मैं नही लिख पाऊँगी उसे ।

शेष चरित्र कल …….!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                      *भाग - ५९*

               *🤝 ३. उपासना  🤝*

मानव-शरीर केवल ईश्वर -प्राप्ति के लिए ही है

   अब मनुष्य-शरीर की महत्ता बतलाते हुए कहते हैं- *'इदं बहुसम्भवान्ते ( लब्धं – अतः) सुदुर्लभम् ।'* यह मनुष्य शरीर चौरासी लाख के चक्कर में फिरते-फिरते प्रभु दया से प्राप्त होता है। इसीसे इसको सुदुर्लभ अर्थात् अतिशय दुर्लभ या देवदुर्लभ कहा है; क्योंकि देवता भी मनुष्य-शरीर की प्राप्ति के लिये अकुलाया करते हैं। कोई पूछे कि *‘यह किसलिये ?'* तो कहते हैं— *'अनित्यमपि इह अर्थदम्।'* अर्थात् *यह मनुष्य-शरीर यद्यपि स्वभाव से तो अनित्य है, तथापि इस मर्त्यलोक में 'अर्थ' प्रदान करनेवाला है।* यहाँ *'अर्थ'* क्या है, इस बात को समझना है। *अर्थ चार हैं— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।* मनुष्य को अपने मनुष्य-जन्म में इन चारों ही अर्थों को प्राप्त करना चाहिये। इसीलिये इनको *'पुरुषार्थ-चतुष्टय'* कहते हैं। अब इन चारों पुरुषार्थों में बीचवाले दो अर्थात् *'अर्थ' और 'काम'* तो प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुआ करते हैं। खास प्रयत्न तो करना है- *धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिये*। इनमें भी 'धर्माचरण के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है' अतएव धर्म तो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। सुतरां मनुष्य-जन्म में परम पुरुषार्थ तो 'मोक्ष' की प्राप्ति ही सिद्ध होता है। इसीलिये प्रस्तुत श्लोक में भी निःश्रेयस-मोक्ष के लिये ही यत्न करने को कहा गया है।

   अब दूसरे शरीरों से मानव-शरीर की विलक्षणता बतलाते हुए कहते हैं— *'विषयः खलु सर्वतः स्यात् ।'* यानी विषयभोग–इन्द्रिय और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न होनेवाला सुख तो सभी योनियों में समानरूप से प्राप्त है। षट्स भोजन से मनुष्य को जो तृप्ति मिलती है और अमृत-भोजनमें इन्द्रको जिस सुखका अनुभव होता है, उसी तृप्ति और उसी सन्तोष का एक सूअर को विष्ठा खाते समय अनुभव है। राजा को सुख मखमली गद्दीपर सोने में मिलता है, वही होता गधे को सुख राख की ढेरी पर लोटने में मिलता है। इन्द्रियजनित सुख का अनुभव सभी योनियों में एक-सा ही है। तारतम्य तो एक दूसरे की दृष्टि में प्रतीत होता है। अर्थात् इन्द्र की दृष्टि में मनुष्य का भोग तुच्छ प्रतीत होता है, इसी प्रकार मनुष्य को सूअर और गधे का भोग तुच्छ लगता है। स्वदृष्टि से तो सभी प्राणी एक-सरीखे सुख का ही अनुभव करते हैं। अतः विषय-सुख की प्राप्ति को मनुष्य जीवन का ध्येय नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह तो प्रत्येक योनि में समान रूप से प्राप्त है। इसीलिये मनुष्य-जीवन की सार्थकता मृत्यु के पहुँचने से पहले-पहले ही मोक्ष की प्राप्ति कर लेने में ही है, विषयों की प्राप्ति में नहीं । श्रीमद्भागवत में एक दूसरे प्रसंग पर

भगवान् ने मनुष्य-शरीर की महिमा गाते हुए कहा है-

यो लब्ध्वा मानुषं देहं मोक्षद्वारमपावृतम् ।
गृहेषु खगवत् सक्तः तमारूढच्युतं विदुः ॥

   अर्थात् जो व्यक्ति मनुष्य-शरीर मिलनेपर भी, पक्षी की भाँति घर में ही आसक्ति रखकर पड़ा रहता है, उसे ऋषिगण स्वर्ग से नरक में पड़ा हुआ कहते हैं। मनुष्य-शरीर कैसा है? – *'मोक्षद्वारमपावृतम्।'* यह खुले दरवाजे वाले मोक्ष का मन्दिर ही है। मनुष्य-शरीर मिला कि मोक्ष-मन्दिर का द्वार अपने-आप खुल गया । द्वार खोलने की भी तकलीफ नहीं पड़ती। बस, प्रवेश करनेमात्र की देर है। परंतु जबतक घर में-संसार के प्राणिपदार्थों में–धन-वैभव में आसक्ति है, तबतक दरवाजा खुला रहनेपर भी, मोक्षमन्दिर में प्रवेश नहीं किया जा सकता। यह आसक्ति मनुष्य को उस ओर नहीं जाने देती। वह तो उसे नरक के द्वार की ओर ही ढकेलती है। मनुष्य-शरीर मिला है और उसके कारण मोक्षमन्दिर का द्वार भी खुला है; तथापि मनुष्य जबतक संसार में से आसक्ति निकालकर मोक्षमन्दिर में जाने का प्रयत्न नहीं करता, तबतक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और अमूल्य जीवन व्यर्थ चला जाता है। इस सम्बन्ध में एक  कवि की उक्ति है-

बाजी चौपड़ की लगी, पौ पर अटकी आय ।
जो अब के पौ ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥

   कवि कहता है कि मनुष्य-शरीर मिलने का अर्थ यह समझना चाहिये कि चौपड़ का खेल जीता गया। तीन सार तो पक गयी, अब आखिरी सार पौ के पास तक पहुँच गयी है। अब बाजी जीतने में बस, एक ही पौ बाकी रही है; यह पौ पड़ गयी तो बाजी जीत ली गयी। पर यदि यह दाव खाली गया तो विपक्षी सार को अवश्य मार देगा और फिर उसे चौरासी घरों में भटकना पड़ेगा। इस अमूल्य अवसर को जो व्यर्थ जाने दिया तो उसे मूर्ख ही कहना चाहिये । संसार का जीवन संसार की चौपड़ है और उसमें एक ही पौ शेष रहना है-मनुष्य-जन्म की प्राप्ति । मनुष्य-जीवन में से संसार की आसक्ति निकालकर मोक्ष की साधना में लगना- यह पौ पड़ना है तथा मोक्ष की साधना न करके विषयसुख में ही रचे-पचे रहना पौ न पड़ना है और पुन: चौरासी के चक्कर में पड़ना है। *भगवान् ने मनुष्य-जन्म दिया है-भजन करने के लिये और जीव संसार में फँसकर जीती बाजी हार गया; क्योंकि उसने न तो अपने हित को समझा और न उसको साधा ही !*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
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