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August 7, 2025 5:09 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 159भाग 3″ (साधकों के लिए) भाग- 69 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

[ Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣9️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे

मैं वैदेही !

भाभी माँ ! अयोध्या में अब उत्सव नही होते …….चारों ओर उदासी पसरी हुयी लगती है ………..लोग हँसते तो हैं ……पर दिखावा से ज्यादा और कुछ नही ।

शत्रुघ्न कुमार मुझे बता रहे थे ।

लक्ष्मण भैया जब लौटे अयोध्या में …..तब वह अचेत से थे …….उनके हाथों में रथ की लगाम कहाँ थी …………..।

हम लोग प्रतीक्षा में थे लक्ष्मण भैया के …….जैसे ही रथ देखा …..

दौड़ पड़े ……….पर लक्ष्मण भैया को होश कहाँ था ।

जैसे तैसे हम लोगों नें उन्हें उठाया …….वो यही पूछ रहे थे कि मैं कहाँ हूँ ….ये अयोध्या तो नही लग रही ……इतनी वीरान अयोध्या कब थी ?

भाभी माँ कहाँ हैं ? भरत भैया काँपते हुये पूछ रहे थे ।

“पाप हुआ है हम रघुवंशीयों से” ……..लक्ष्मण इससे ज्यादा कुछ नही बोले …….हाँ हिलकियों से रोते हुये ये अवश्य कहा ……भाभी माँ गर्भवती हैं ………उनको अकेले छोड़कर आगया हूँ मैं …….क्या करता …….महाराज राजा राम की आज्ञा जो थी मुझे …….।

महाराज राजा राम ! व्यंग था ये लक्ष्मण भैया का ।

शत्रुघ्न कुमार कुछ देर चुप रहे ………………..

फिर बोले – हम तीनों भाई गए अन्तःपुर में …..जहाँ श्रीराम थे ।

पर ये क्या ? वो तो मूर्छित पड़े थे………….सीते ! सीते ! हा वैदेही ! बस यही नाम उनके मुँह से निकल रहा था ……..उन्हें होश कहाँ था ।

भाभी माँ ! हम तीनों भाइयों नें मिलकर उन्हें जल पिलाया …….उनके ऊपर जल का छींटा दिया ………तब जाकर उन्हें कुछ होश आया था ।

कहाँ छोड आये लक्ष्मण ! मेरी सीता को ?

ये भी बड़ी मुश्किल से बोल पा रहे थे श्रीराम ।

गंगा के उस पार ……आपकी आज्ञा जो थी मुझे ………कितनी निष्ठुर आज्ञा दी आपनें ……..लक्ष्मण भैया को रोष था ………पर श्रीराम की ऐसी स्थिति देख वो ज्यादा कुछ नही बोले ।

क्या कहा सीता नें ? लक्ष्मण ! जब तुमनें मेरी सारी बातें बताईं तब क्या बोली सीता ?

भैया ! भाभी माँ नें कहा…….मेरे कारण अगर मेरे नाथ को कोई कष्ट होता है तो मैं ये जीवन भी प्रसन्नता पूर्वक त्याग दूंगी ।

लक्ष्मण भैया रो रहे थे ये कहते हुए ।

“मेरे प्राण नाथ को सम्भालना” जब मेरा रथ चलनें लगा ….तब भाभी माँ नें मुझे यही कहा था ।

और हाँ भैया ! ये भी कहा ………..कि मैं गर्भवती हूँ ……..देखो मेरी ओर ………और देखो मेरे गर्भ को ……….कहीं ऐसा न हो कि कल अयोध्या नरेश श्रीराम इसपर भी मेरी परीक्षा लें ।

भाभी माँ ! बस इतना सुनते ही श्रीराम फिर गिर गए थे धरती पर ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …….!!!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                      *भाग - ६१*

               *🤝 ३. उपासना  🤝*

                      _*ईश्वर -पूजन*_ 

   शरीर का नाम ही है- *भोगायतन* अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के सुख-दुःख आदि फल भोगने का स्थान । पातञ्जल योगदर्शन कहता है– *'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।'* अर्थात् जबतक कर्मरूपी मूल है, तबतक उसके परिणामस्वरूप 'किस योनि में जन्म हो, कितनी आयु हो, क्या-क्या भोग प्राप्त हों'- ये सभी प्राणी का जन्म होने के पहले ही निश्चित हो जाते हैं। अतएव यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस वस्तु का निर्णय जन्म होने के पहले से ही हो जाता है, उसकी प्राप्ति के लिये व्यर्थ ही जीवन को गवाँना अपने जीवन के अमूल्य समय का अपव्यय करना नहीं तो और क्या है? क्योंकि निश्चित भोग तो मिलनेवाले ही हैं और हजार बार सिर पटकने पर भी प्रारब्ध से अधिक कुछ मिलनेवाला है ही नहीं।

   देवयोनि भी भोग-योनि ही है। निकृष्ट योनि और देवयोनि में अन्तर इतना ही है कि देवयोनि का शरीर दिव्य होता है और उसके भोग भी दिव्य होते हैं, परंतु नीची योनि में शरीर के परिमाण में तुच्छ भोग होते हैं। इसके सिवा दूसरा कोई भेद नहीं है। देवयोनि में भी दूसरी योनियों के समान भोग समाप्त होनेपर शरीर छूट जाता है और जीव दूसरा शरीर धारण करता है। इसलिये सब शरीरधारियों में मनुष्य-शरीर ही श्रेष्ठ है और इसी शरीर से मनुष्य अपने सर्जनहार के साथ तादात्म्य साध सकता है। कबीरदास ने भी कहा है- *'जो उत्तम करनी करे तो नर नारायन होय ।'* दूसरी किसी योनि में रहकर नारायण बनना सम्भव नहीं; मनुष्ययोनि ही एक ऐसी अमूल्ययोनि है कि जिससे नर नारायण हो सकता है।

   *अब यह तो निश्चय हो गया कि मनुष्य-जीवन का ध्येय विषयभोग नहीं, बल्कि ईश्वर प्राप्ति ही होना चाहिये।* इस बात के समर्थन में श्रीभगवान्‌ का एक ही वचन उद्धृत कर देना पर्याप्त होगा। भागवत में श्रीभगवान् ने उद्धवजी से कहा है-

   *एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम् ।*
   *यत्सत्यमनृतेनेह   मर्त्येनाप्नोति   मामृतम् ॥*

   'बुद्धिमान् और चतुर मनुष्यों की बुद्धि और चतुराई इसी में है कि इस संसार में जन्म लेकर अनृत-मर्त्य अर्थात् क्षणभंगुर और विनाशशील इस मनुष्य-शरीर से इसका सदुपयोग करके सत्य और अमर अर्थात् अजर, अमर, अविनाशी मुझको प्राप्त कर ले।' थोड़े में भगवान् यही समझाते हैं कि विनाशशील मनुष्य-शरीरसे मेरे अविनाशी स्वरूपकी प्राप्ति कर लेनेमें ही मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है। 

  *अब इस ध्येय तक पहुँचने के लिये हमें सारे जीवन को ईश्वर-पूजनरूप बनाना है; अतः यह देखना है कि उसकी सिद्धि कैसे होगी।*

  सर्वसाधारण के लिये शास्त्रों ने बहुत ही सरल और सीधा परंतु अमोघ मार्ग बतलाया है। इस मार्ग का अवलम्बन बालक-वृद्ध, गरीब-अमीर, विद्वान्-मूर्ख, बलवान् निर्बल, पुरुष-स्त्री तक सभी कर सकते हैं। वह निष्कण्टक मार्ग यह है-

   *येन केन प्रकारेण यस्य कस्यापि देहिनः ।*
   *सन्तोषं   जनयेत्प्राज्ञः  तदेवेश्वरपूजनम्॥*

   अर्थात् किसी भी साधन से किसी भी देहधारी को सुख पहुँचाना ईश्वर-पूजन है। इसका कारण यह है कि सभी देहों में जीवरूप से एक ही ईश्वर विराज रहा है। *सभी देह विभिन्न आकार के तथा कद के होते हैं तथापि सब देहों में एक ही ईश्वर जीवरूप में विराजमान है। अतएव किसी भी देहधारी जीव को सुख पहुँचाना ईश्वर को ही सुख पहुँचाना कहलायेगा और ईश्वर को प्रसन्न करनेवाली प्रत्येक क्रिया का नाम ही ईश्वर-पूजन है। अतः चींटियों को अन्न देना भी ईश्वर-पूजन है; क्योंकि उससे असंख्य जीवों की तृप्ति होती है, इसलिये वह ईश्वर-पूजन है। हम रास्ते में चले जा रहे हैं और सामने आनेवाला एक मनुष्य पूछता है—'भाई! अस्पताल किधर है ?' – तो उस मनुष्य को अस्पताल का रास्ता बताना, यदि वह अजनबी हो तो उसको अस्पताल तक पहुँचा आना और यदि वहाँ अपनी जान-पहचान हो तो उसका उपयोग करके उसे अस्पताल में सुविधा दिलाना- इन सब कर्मों का नाम भी ईश्वर-पूजन है, क्योंकि इससे भी एक देहधारी का जीव संतुष्ट होता है।*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

[] Niru Ashra: ("प्रेम साधना" का मेडिटेशन)
भाग-69
1️⃣

प्रिय ! देखो री वह नन्द का छोरा…
(ललित किशोरी )

मित्रों ! वह अवधूत बाबा मुझे तब मिले… जब
मैं श्री राधा बल्लभ जी दर्शन करके आकर
… यमुना जी के पुलिन में बैठ कर ध्यान कर रहा
था… उनके शरीर में कुछ नही था… बस एक
लंगोटी थी… काला शरीर था… जटायें थीं
… पर मुख मण्डल अत्यंत तेजयुक्त था ।

ए क्या कर रहा है ! … शायद उनकी भाषा ही ऐसी
थी … मैं उठा ध्यान से… और उनको प्रणाम
किया ।

वो वहीं बैठ गये … मेरे पास… क्या कर
रहा है ?… मैंने हाथ जोड़कर कहा – ध्यान ।
क्या विधि पता है तुझे ध्यान की ?..

मैं चुप रहा… वो बोले … देख ! मैं
सिखाता हूँ … मैं जैसा बोलूँगा… करेगा ?
…सच में ! उनकी वाणी में इतनी ताकत थी कि
… वो जो बोल रहे थे … मैं करने को तैयार
था … ।

इतना अद्भुत आकर्षण था उनकी वाणी में कि वो
बोलते यमुना जी में कूद जा… मैं सच कह रहा
हूँ… एक क्षण न लगाता , कूद ही जाता ।

मेरे मन में न जाने क्या भाव जागा … मैं
यमुना जी में गया… जल लिया … और अंजुली
में जल भर कर ले आया , ये क्या लीला कर रहा है ?
… मैंने कहा… … आपके चरण पखार लूँ ।

नही ! इसकी कोई आवश्यकता नही है… तू इस
जल से आचमन कर ले … “कृष्ण कृष्ण कृष्ण”
बोलकर… … मुझे अजीब लगा … आचमन तो
…केशव, नारायण, माधव, और गोविन्द बोलकर किया जाता है… … ।

क्या कृष्ण पूर्ण नही हैं ? … क्या कृष्ण
में केशव और नारायण, माधव और गोविन्द नही आते ?

उन सिद्ध महात्मा की वाणी को काटने की मेरी भला
हिम्मत थी ।

हाँ पण्डित होने के संस्कार के चलते इतना जरूर
बोला… शास्त्र में तो इन नामों से आचमन का
विधान है… … वो लापरवाही से बोले … आज
से अपने शास्त्र में ये बात भी लिख दे… जो
मैं कह रहा हूँ । विचित्र बात बोलते हैं ये
अवधूत ।

मन में सोचा… सही तो बोलते हैं… … जो
सिद्धात्मा बोल दें… वही तो शास्त्र बन जाता
है … ।

बिना तर्क वितर्क किये मैंने… कृष्ण कृष्ण
कृष्ण बोला… और आचमन कर लिया
… सहजावस्था में बैठ ।

आँखें ! बन्द कर… … देख ! बुला उन अपने
प्यारे को… कृष्ण को… … बोल ! हे
मेरे प्रिय ! आओ … आओ … हृदय से पुकार
… मैं बाहर से बोलने लगा… तो बोले
… पगले ! हृदय से बोल… बाहर से बोलने का
कोई मतलब नही है… … हृदय से पुकार
… बुला … मैं हृदय से बोलने लगा
… हे नाथ ! आओ… हाँ … प्रेम से
बोल … आओ !… मेरे पास आओ !
… मेरे सामने आओ… … मैं बोलते बोलते
रो गया…

वो महात्मा चिल्ला पड़े… देख ! वो तेज़ उतर
रहा है… … नीला तेज़ … चारों ओर छा
रहा है… … नील मणि के समान ।

सच में !… मुझे लगा… सच में
आगये मेरे सामने !

देख अब ! पीताम्बर धारण किये हैं… इनके
केश घुँघराले हैं…

उस घुंघराले केश में … आज पगड़ी बाँधे हैं
… उस पीली पगड़ी में मोर का पंख खोंस
लिया है… … ओह ! सच में कितने सुंदर हैं !
… अब देख मुखारविंद !… … चिक्कन
गाल है… गाल थोड़े उभरे हुये हैं
… इनके नेत्र देख … कितने सुंदर
हैं … तुझे देख रहे हैं… देख तुझे ही
देख रहे हैं ।

आँखें लजीली हैं… लज्जा से युक्त आँखें हैं
… क्यों ? … मन में आया … हाँ
पर लज्जा क्यों हैं इनकी आँखों में … लज्जा
तो तब होती है… जब… !
.
… मन की बात को ये अवधूत बाबा समझ रहे थे
… बोले … भक्त जब गलत काम करता है
… तो इनको लज्जा आती है … अरे ! मेरा
होकर ऐसा काम किया… मेरा प्रेमी होकर
इसने ऐसा किया इसलिए ! उनके नेत्र “लजिले”
हैं । तुझे टेढ़ी नजर से देख रहे हैं
… यही टेढ़ी नजर तो कमाल करती है
… … यही टेढ़ी नजर ही तो हृदय में गढ़ जाती
है… … और हृदय में जब गढ़ती है … तो
समस्त कामनाओं… संस्कारों… और वासनाओं
को जला देती है … अरे ! पैसे और कीर्ति की
कामना ही नही… ये तिरछी नजर तो मोक्ष की
कामना तक को फूँक देती है… … बस अब ये
अपना बना लेगा… अब ये तुझे किसी का नही
रहने देगा … तेरा मन… पैसे में जायेगा
… तो तुझ से पैसे छीन लेगा … तेरा मन
परिवार में जायेगा… तो तेरा परिवार उजाड़ देगा
… तेरा मन जहाँ जहाँ जायेगा … वहाँ वहाँ
से तुझे खींच कर अपनी ओर ही कर लेगा
… … अब ये तुझे किसी का होने नही देगा ।

क्रमशः….

Harisharan

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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