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August 10, 2025 4:28 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम, भाग 160 भाग1तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक: Niru Ashra –

Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
          *🌺भाग 1️⃣6️⃣0️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 1`

     *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे*

मैं वैदेही !

  सुबह उठकर गंगा स्नान करके ………अपनें  सैनिकों के सहित  मथुरा के लिये प्रस्थान कर गए थे शत्रुघ्न कुमार ……।

पर जाते जाते  मेरे पास आये और  वन्दन करते हुये बोले…….आप इतनी कृपा करना भाभी माँ !   कि  हम अयोध्या वासियों को श्राप न देना  ।

और मैं  लवणासुर का वध करके  आपके चरणों के दर्शन करनें अवश्य आऊंगा……….मेरे भी  हृदय से आशीर्वाद फूट पड़ा ……..

विजयी भवः

शत्रुघ्न कुमार चले गए  थे  ।

समय बीतता गया………..और   वो समय भी आया  …..

****************************

मैं देख रही थी ………..उस दिन  मैं  गंगा के किनारे ही बैठी रही  ।

पक्षी सब मेरे पास आजाते थे …….और मुझ से बहुत प्रेम करते सब ।

हिरणों का  झुण्ड तो मेरे  समीप ही रहता……….तोता कोयल ……..।

मुझे चित्रकूट की याद आती….वहाँ भी कितनें  पक्षी , पशु  हमें प्रेम करते थे ।……..पर यहाँ मेरे  श्रीराम नही हैं मेरे साथ ।

ओह !   असह्य पीड़ा का अनुभव करनें लगी थी मैं   एकाएक ।

जैसे तैसे अपनी कुटिया में आयी …..और  गिर पड़ी  अपनें आसन में   ।

वनदेवी !       दो तपश्विनी आईँ ……..मुझे जलपान करानें …….पर मेरी स्थिति देखकर वह भी दौड़ीं………वनदेवी को प्रसव की पीड़ा हो रही है……..उन्होंने सबको सूचना दी…….।

सूतिकागार  उसी कुटिया को बना दिया…………………

बधाई हो ………बधाई हो…………तपश्विनी बोल उठीं …………

रोनें की आवाज आरही थी  नवजात शिशु की ……………..

वनदेवी !  आपको दो पुत्र रत्न हुए हैं………..मुझे बताया ।

मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले………..हाँ  एक नेत्र से  आनन्द के …..और दूसरे नेत्र से  दुःख के ….।

इनके पिता ?            एक तापसी नें   पूछना चाहा ……पर दूसरी नें तुरन्त मना कर दिया ………महर्षि नें “नही” कहा है …….कि कुछ भी पूछकर इन्हें परेशान न किया जाए ।

तभी  चार तपश्विनी उधर से आईँ……..शंखनाद किया  उन्होंने ।

मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े ……….पर मैं मुस्कुरा रही थी  ।

चक्रवर्ती सम्राट  अयोध्या नरेश  राजा राम के पुत्रों का जन्म उत्सव  मात्र चार शंख बजाके ?      महर्षि को सूचना दी  ?     एक तापसी नें दूसरी से पूछा ……हाँ दे दी ………वो बहुत प्रसन्न हैं ……..वो  नाच उठे थे  ।

कह रहे थे  मेरी पुत्री के  पुत्र हुआ है ………उत्सव मनाओ ……मैं भी तैयारी में लगता हूँ ………….वो  इन नवजात शिशु  के ग्रह स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर रहे हैं ।……..मुझे  लाकर  एक तापसी ने  उष्ण जल दिया …..।

*क्रमशः….*
*शेष चरित्र कल ……!!!!!*

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹

Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

            *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                          *भाग – ६३*

                   *🤝 ३. उपासना  🤝*

                          _*ईश्वर – पूजन*_

       *रागाद्यदुष्टं    हृदयं    वागदुष्टानृतादिना ।*
      *हिंसादिरहित: कायः केशवाराधनत्रयम्॥*

       (२) दूसरा साधन है *’वागदुष्टानृतादिना’* अर्थात् वाणी को असत्य भाषणरूपी दोष से दूषित अथवा अपवित्र न होने देना। भावात्मक शब्द प्रयोग करें तो कहेंगे कि वाणी को सत्य से पवित्र रखना। अर्थात् *’सत्यपूतं वदेद् वाचम्’* का मन्त्र ध्यान में रखकर सत्य बोलने का व्रत ले लेना। सत्य का आचरण कैसे किया जाय, इसको इस
श्लोक में ठीक-ठीक बतलाया गया है —

   *सत्यं ब्रूयात् प्रियं बूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।*
   *प्रियं  च   नानृतं   ब्रूयादेष  धर्मः  सनातनः ॥*

       अर्थात् सत्य अवश्य बोले, परंतु मधुर वाणी से बोले, क्रोधावेश में या कड़े शब्दों में नहीं; क्योंकि क्रोध में या कड़े शब्दों में बोलने से सामनेवाले आदमी का दिल दुखता है और इससे सत्यभाषण का तप नष्ट हो जाता है। इसी कारण श्लोक के दूसरे चरण में कठोर वाणी बोलने का प्रत्यक्ष निषेध किया है, बल्कि प्रिय लगनेवाली बात हो पर असत्य हो तो उसे भी न बोले, यह तीसरे चरण में कहा है। प्रिय और असत्य वाणी का अर्थ है खुशामद। किसी की खुशामद करना या प्रसन्न करने के लिये झूठ बोलना-एक ही बात है। मनुष्य में सामान्यतः इस प्रकार की दुर्बलता पायी जाती है, इसलिये इस प्रकार का असत्य न बोले। यह तीसरे चरण में स्पष्ट कहा है और अन्त में कहा है कि सत्य बोलने के विषय में यह सनातन धर्म सदा से चला आ रहा है, इसका अनुसरण करे।

      इस साधन की सिद्धि के लिये श्रीभगवान् ने गीता में वाणी का तप इस प्रकार बतलाया है–

    *अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।*
    *स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥*
                              (१७/१५)

         वाणी ऐसी बोलनी चाहिये जो सुननेवाले के दिल को न दुखाये। सत्य हो, प्रिय हो और हितकर भी हो। *इस प्रकार नित्य के व्यवहार में बोलने-चालने में ध्यान रखें कि असत्य तो नहीं बोला जा रहा है और कहीं ऐसा तो नहीं बोला जा रहा है कि सुननेवाले के लिये कष्टकर हो या अहितकर हो। साथ ही नियमित स्वाध्याय या  भगवन् नाम-जप-कीर्तन भी सदा नियमितरूप से चलाते रहना चाहिये।*

      क्रमशः……✍

      *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

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