Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग 1️⃣6️⃣0️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 2`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे*
मैं वैदेही !
चक्रवर्ती सम्राट अयोध्या नरेश राजा राम के पुत्रों का जन्म उत्सव मात्र चार शंख बजाके ? महर्षि को सूचना दी ? एक तापसी नें दूसरी से पूछा ……हाँ दे दी ………वो बहुत प्रसन्न हैं ……..वो नाच उठे थे ।
कह रहे थे मेरी पुत्री के पुत्र हुआ है ………उत्सव मनाओ ……मैं भी तैयारी में लगता हूँ ………….वो इन नवजात शिशु के ग्रह स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर रहे हैं ।……..मुझे लाकर एक तापसी ने उष्ण जल दिया …..।
मैने देखा ………मेरे दो बालक ……….मुझे ही देख रहे थे टुकुर टुकुर ।
मेरे श्रीराम की तरह ही आँखें हैं इनकी …………..मैने मन ही मन विचार किया ………..मैं अपनें शिशुओं को देखती रही ।
मेरी कुटिया में औषधियों की धूनी दी जारही थी ………….महर्षि नें शस्त्र भेज दिए थे …….मेरी कुटिया में लटकानें के लिए ।
ये तपश्विनी ही थीं धाय, स्वजन , सेविकाएँ या इन्हें सहायिका भी कह लो ……..सब यहीं थीं …….बड़े उत्साह से मेरी सेवा में लगी थीं ।
बाहर ऋषि बालक ….नाच रहे थे….शंख नाद तो रुकही नही रहा था ।
मुझे बता रही थीं तापसी …….महर्षि स्वयं उत्सव की तैयारियों में जुट गए थे ……छोड़े छोटे ऋषि कुमारों को लेकर ……..बन्दन वार बंधवा रहे थे ………..रंगोली काढ़ी जा रही थी ।
फूलों का ढ़ेर लगा दिया था ……..और उनको फैलाया जा रहा था चारों ओर ………….।
महर्षि नें ही स्नान करके जातकर्म संस्कार करवाया …………महर्षि ही आचार्य बने थे ………..और नाना की भूमिका में भी वे ही थे ।
जातकर्म के बाद मेरे नवजात शिशुओं का…….तपश्विनीयों ने ही नाल छेदन संस्कार भी किया ………और उनको बड़े उत्साह से …..आनन्दित होते हुये नेग महर्षि नें स्वयं दिया………मेरी पुत्री के पुत्र हुए हैं …..ये मेरे लिये आनन्द का विषय है…….वो बहुत प्रसन्न थे ।
मेरे पास आये……….मेरे नवजात को बहुत आशीर्वाद दिया ।
राम के समान ही तेजवान और यशस्वी होंगें ये बालक …………कहते हुए महर्षि नवजात शिशुओं को ही देखे जा रहे थे ।
इतनें वीतराग होनें के बाद भी …………..मेरे प्रति कितना वात्सल्य था महर्षि का …………मेरे नवजात को आशीर्वाद देते हुये जानें लगे तो शंख मंगवा कर शंख नाद किया ……..।
कोई आया है महर्षि ! एक तपश्वीनी नें आकर कहा ।
कौन आया है ? महर्षि नें पूछा ।
वही अयोध्या के राजा श्रीराम के अनुज…….मैं चौंक गयी ….शत्रुघ्न कुमार आये हैं ?
पर वो अब इन बालकों को नही देख सकते……..क्यो की बालकों का जातकर्म संस्कार हो चुका है….।
इतना कहकर महर्षि बाहर चले गए ।
*क्रमशः….*
*शेष चरित्र कल ……!!!!!*
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – ६४*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
_*ईश्वर -पूजन*_
*रागाद्यदुष्टं हृदयं वागदुष्टानृतादिना ।*
*हिंसादिरहित: कायः केशवाराधनत्रयम्॥*
तीसरा साधन है– *’हिंसादिरहितः कायः’* अर्थात् शरीर को हिंसा आदि से मुक्त रखे। *’हिंसादि’* कहकर त्रिविध हिंसाओं से बचने के लिये कहा गया है। हिंसा तीन प्रकार की है-
(१) *कायिक*–अर्थात् शरीर से या शरीर के द्वारा किसी अस्त्र-शस्त्र से दूसरे मनुष्य के शरीर पर आघात करना । मृत्यु होने से ही हिंसा होती हो, ऐसी बात नहीं है, बल्कि मार डालने की इच्छा से किया हुआ आघात भी हिंसा कहलाती है।
(२) *वाचिक*- अर्थात् कठोर वाणी के प्रयोग से किसी के हृदय के ऊपर आघात पहुँचाना, मनुष्य का तिरस्कार करना, मृत्यु की धमकी देना अथवा किसी भी दूसरी रीति से मनुष्य को शब्दों द्वारा असह्य आघात पहुँचाना – यह सब वाचिक हिंसा कहलाती है।
(३) *मानसिक हिंसा*-अर्थात् मन से किसी का बुरा चाहना, किसी मनुष्य का नाश हो-ऐसा संकल्प करना अथवा किसी मनुष्य के लिये अशुभ विचार का सेवन करना-किसी के बुरे होने में आनन्द मानना, किसी का बुरा होते देखकर उसका समर्थन करना, यह सब मानसिक हिंसा है।
*इन तीनों प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होने का नाम है- शरीर को हिंसामुक्त करना।* इसके लिये काया का तप श्रीभगवान् ने इस प्रकार बतलाया है-
*देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।*
*ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥*
(१७/१४)
*’देव’*- अर्थात् अपने-अपने इष्टदेव का पूजन करना । *’द्विज’* – अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जिनको यज्ञोपवीत का अधिकार है। इनमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण है। अतएव ब्राह्मण का पूजन करना, उसे सुख पहुँचाना। अपने-अपने *गुरु* का पूजन करना। गुरु पास हों तो शरीर से उनकी सेवा करना और दूर हों तो स्मरण-रूप सेवा करना। इस प्रसंग में दूसरी पूजा तो परम्परा से ईश्वर-पूजन होती है, परंतु गुरु की पूजा प्रत्यक्ष ईश्वर-पूजन है। *’प्राज्ञ’* अर्थात् विद्वान् साधु-संत, महात्मा, संन्यासी तथा विद्वान् मनुष्य का पूजन करना।उनकी सेवा करना। दूसरा, *शौच* का पालन करना, बाह्याभ्यन्तर पवित्र रहना अर्थात् शरीर तथा मन को पवित्र रखना। तीसरा, *आर्जव* अर्थात् सरलता है। जीवन के व्यवहार में सरलता रखना अर्थात् सीधे मार्ग से चलना और निर्दोष जीवन बिताना।
क्रमशः…….✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग 1️⃣6️⃣0️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 3`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे*
मैं वैदेही !
कोई आया है महर्षि ! एक तपश्वीनी नें आकर कहा ।
कौन आया है ? महर्षि नें पूछा ।
वही अयोध्या के राजा श्रीराम के अनुज…….मैं चौंक गयी ….शत्रुघ्न कुमार आये हैं ?
पर वो अब इन बालकों को नही देख सकते……..क्यो की बालकों का जातकर्म संस्कार हो चुका है….।
इतना कहकर महर्षि बाहर चले गए ।
मैं सुन रही थी – महर्षि नें शत्रुघ्न कुमार से उनकी कुशल क्षेम पूछी ……शत्रुघ्न कुमार बता रहे थे ……..भाभी माँ के आशीर्वाद लवणासुर मारा गया …….इसलिये मैं केवल भाभी माँ के दर्शन करनें आया हूँ ।
पर कुमार शत्रुघ्न ! तुम बिलम्ब से आये ………….अब तुम्हे जात सूतक लग गया है …………महर्षि कह रहे थे ।
क्या ? शत्रुघ्न कुमार चौंके ।
तुम्हारे अग्रज के पुत्र हुए हैं…..और तुम कुमार शत्रुघ्न, चाचा बन गए हो ।
आनन्द से उछल पड़े थे शत्रुघ्न कुमार……पर मन मसोसकर रह गए मैं देख नही पाउँगा अभी ? नही कुमार ! शास्त्र अब जातकर्म के बाद आज्ञा नही देता आपको …………नाल छेदन से पहले तुम देख सकते थे ….पर अब नही ……।
मैं दान करूँगा ……..आपके आश्रम में कितनें ब्रह्मचारी हैं …….?
शत्रुघ्न कुमार नें पूछा ।
पर अब आप को सूतक लग गया है…….आप दान भी नही कर सकते ।
शत्रुघ्न कुछ नही बोले ………।
महर्षि नें हाथ जोड़े कुमार के …….आप क्या कर रहे हैं ये महर्षि ?
नही कुमार ! आप हमारे अतिथि हो …….पर आज मैं आपका सत्कार नही कर पाउँगा ……..और मै व्यस्त भी हूँ आज …………मेरी पुत्री के पुत्र हुआ है ……दो पुत्र ।
कुमार शत्रुघ्न सिर झुकाकर सुनते रहे …….और महर्षि वहाँ से चले गए थे ……….उन्हें तैयारी करनी थी ……उत्सव की …….पुत्री के पिता को सूतक नही लगता ………यही सबको कह रहे थे ।
दही दूर्वा हरिद्रा सब लाओ ……………आज आनन्द मनायेगें ।
मुझे सब तापसी यही कह रही थीं – कि प्रकृति आज कितनी प्रसन्न है………चारों ओर सगुन ही दिखाई दे रहा है ……………कमल खिल उठे हैं सरोवर में …..और उनमें भौरें गुँजार कर रहे हैं ………।
यज्ञ वेदी में अग्नि जलानें के लिये प्रयास नही करना पड़ रहा ………..स्वयं ही अग्नि प्रज्वलित हो रही है ।
अन्तःकरण सबका शुद्ध और पवित्र हो गया है……..ब्राह्मण बालक वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं …..गौएँ प्रसन्नता से उछल रही हैं ….और अपनें बछड़ों को देखते ही उनके थन से दुग्ध की धार बह चली है ।
वनदेवी ! अयोध्या से आये कुमार कह रहे थे कि ऐसे लक्षण तो तब दिखाई दिए थे अयोध्या की प्रकृति में ……..जब राजा राम का सीता देवी से विवाह हुआ था ……..बिलकुल ऐसे ही शुभ लक्षण प्रकट थे ।
पर वो कह रहे थे कि अब अयोध्या में अपशकुन के सिवाय और कुछ नही होता …………एक तापसी नें आकर कहा ।
दूसरी नें तुरन्त पूछा ……….क्यों ? अब क्या हो गया अयोध्या में ?
तुम्हे पता नही …….राजा राम नें अपनी धर्मपत्नी सीता का त्याग कर दिया है ………मुझे तो महा निष्ठुर लगते हैं राम !
वो परम पवित्र सीता…………….राजा राम नें ठीक नही किया ।
पाप किया है राम नें……………दूसरी बोली ।
नही …………मैं जोर से चिल्ला उठी ……..मत बोलो राजा राम को कुछ भी ……..वो प्रजा वत्सल हैं …………..ऐसा राजा कहाँ मिलेगा ! जो प्रजा की बातों को इतनें गम्भीरता से लेता है ……..।
अब रहनें दो वनदेवी ! राजा राम का हम अब नाम भी नही सुनना चाहती………सब तापसी एक साथ बोल उठीं थीं ।
मेरे नेत्रों से अश्रु बहते रहे थे ………मैं उन सबसे झगड़ती रही ……….अपनें श्रीराम के लिये ……………..।
पर बाहर से – “बधाई हो बधाई हो” ………यही आवाज आरही थी ।
*शेष चरित्र कल ……!!!!!*
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – ६५*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
_*ईश्वर -पूजन*_
सरलता के विषय में बहुत सुन्दर नियम बतलाते हुए भगवान् वेदव्यासजी कहते हैं-
*श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।*
*आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥*
‘सारे धर्मो का सार अर्थात् रहस्य मैं तुमसे कहता हूँ सावधान होकर सुनो। फिर उसे एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल न दो, बल्कि हृदय में धारण करो और उसका निरन्तर मनन करके उसे अपने जीवन में उतारो। केवल सुनने से या सुनकर कण्ठस्थ कर लेने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, बल्कि सुनकर हृदय में निश्चय करके उसे जीवन में उतारो। तभी कार्य सधेगा।’
*’आत्मनः प्रतिकूलानि’*- अर्थात् जो व्यवहार तुमको प्रतिकूल लगे, दूसरों के तुम्हारे प्रति किये गये जो व्यवहार तुमको दुःखद जान पड़ें, वैसे व्यवहार *’परेषां न समाचरेत्’*–अर्थात् दूसरों के प्रति कभी न करो। अर्थात् दूसरों के जिन-जिन व्यवहारों से तुम्हें दुःख होता हो, वैसे व्यवहार तुम दूसरों के प्रति न करो। उदाहरण के लिये कोई तुम्हारा तिरस्कार करता है और वह तुम्हें अच्छा नहीं लगता तो तुम किसी दूसरेका तिरस्कार न करो। तुमसे कोई झूठ बोले और उससे तुम्हें दुःख होता हो तो तुमको किसी से नहीं बोलना चाहिये। कोई तुम्हें ठगता है और तुमको अच्छा नहीं लगता है तो तुम्हें भी किसी को नहीं ठगना चाहिये। कोई तुम्हारी निन्दा करता है और तुमको ठीक नहीं लगता तो तुम भी किसी की निन्दा न करो। यह सब नकारात्मक बातें कही गयीं। इससे उलटा स्वीकारात्मक बातें इस प्रकार कही जा सकती हैं—कोई तुम्हारे प्रति मधुर और सत्य बोले और वह तुम्हें अच्छा लगे तो तुम सबसे मधुर और सत्य बोलो। जो तुम्हारे साथ ईमानदारी का बर्ताव करे और उससे तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होती हो तो तुम्हें सबके साथ ईमानदारी का बर्ताव करना चाहिये। यदि कोई तुम्हें आदर-सत्कार प्रदान करे और तुम्हें अच्छा लगता हो तो तुम्हें सबका आदर-सत्कार करना चाहिये।
यही बात श्रीकृष्ण भगवान् ने गीता में विधि और निषेध दोनों रीति से कही है। जैसे–
*आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।*
*सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥*
अर्थात् जो योगी सब प्राणियों में अपने ही समान सुख और दुःख को एक-सा देखता है, उसे मैं योगियों में श्रेष्ठ मानता हूँ। अधिक स्पष्ट कहें तो कह सकते हैं कि जो योगी ऐसा देखता है कि जिस-जिस भाव या व्यवहार से मुझे दुःख होता है, तदनुसार ही सब प्राणियों को दुःख होता है। उसी प्रकार जिस-जिस व्यवहार या भाव से मुझे सुख होता है, तदनुसार ही प्राणीमात्र को सुख होता है। ऐसा योगी ही श्रेष्ठ योगी है; क्योंकि जिस व्यवहार से अपने को दुःख की प्रतीति होती है, वैसे व्यवहार का आचरण वह अन्य के प्रति नहीं करता। इतना ही नहीं, बल्कि जिस व्यवहार से अपने को सुख मिलता है, वैसा ही व्यवहार दूसरे प्राणियों के प्रति करता है और भगवान् कहते हैं कि ऐसा योगी श्रेष्ठ है।
क्रमशः…….✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*


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