[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣6️⃣1️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
उस रात्रि कोई नही सोये थे …….महर्षि से लेकर ब्रह्मचारी बालक …..तपश्विनी तो ढोल बजाती रही थीं ……प्रकृति भी जागी थी ।
देवों नें पुष्प बरसाए थे ….गन्धर्वो नें आल्हादित होकर नृत्य किया था ।
हाँ सोये थे तो बस तीन जन ……दो मेरे नवजात शिशु और मैं ।
शत्रुघ्न कुमार मुझ से मिल न सके ………..उन्हें शीघ्र ही मथुरा जाना था ……..क्यों की वहाँ की प्रजा का कोई राजा भी तो नही था ।
“कुश” नाम रखा मेरे बड़े बालक का …..महर्षि वाल्मीकि नें ही ।
और “लव” …..छोटे का नाम लव…। …….मन्त्रों के साथ नामकरण संस्कार भी पूर्ण हुआ ……………..।
कुश का रँग मेरे श्री राम से मिलता है ……………..हल्का सांवला रँग है…..बाकी सबकुछ कुश अपनें पिता पर ही पूर्ण गया है
मुस्कुराता भी है तो वैसे ही ………..अपनें पिता श्रीराम की तरह ।
पर लव का रँग गौर है ……….मेरी तरह……..आश्रम की तपश्विनी कहती हैं………आपकी तरह ही है ये लव तो……तपे हुये सुवर्ण की तरह………मैं इन दोनों बालको को देखती हूँ तो दुःख भी होता है …….क्या इन्हें पिता का सुख मिलेगा ? इनके पिता कब इनके सिर में हाथ रखेंगें ………ये सोचकर मेरा हृदय रो पड़ता ।
धीरे धीरे बड़े होते जा रहे थे मेरे दोनों बालक ……..पर जिद्दी हैं ।
मेरी मानते ही नही…….फिर सोचनें लग जाती कि इनके पिता भी तो जिद्दी ही …….अपनी जिद्द पूरी होनी ही चाहिये , पिता की तरह ।
क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ….!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ६६*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
_*ईश्वर -पूजन*_
चौथा ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का पालन चारों वर्गों और आश्रमों के लिये विशेष उपयोगी है। गृहस्य शास्त्र की मर्यादा में रहकर गृहस्थाश्रम को भोगे तो वही उसका ब्रह्मचर्य-पालन कहलायेगा। अन्य तीन आश्रम में तो इसका कठोर पालन आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के पालन से जीवन सुखरूप बनता है; क्योंकि इससे शरीर की तथा मन-बुद्धि की शक्ति प्रचलित रहती है। पाँचवाँ अहिंसा है। इसके विषय में ऊपर बहुत कहा जा चुका है, इसलिये यहाँ कुछ कहना नहीं है।
ईश्वर-पूजन के जो विविध साधन-(१) *रागादि से दूर रहकर को पवित्र रखना* (२) *असत्य आदि से दूर रहकर वाणी को पवित्र रखना* और (३) *हिंसा आदि से दूर रहकर शरीर को पवित्र रखना* आदि हैं, वे भी एक प्रकार से ईश्वर पूजन ही है।
इससे भी अधिक उत्कृष्ट प्रकार का ईश्वर पूजन है, जो कुछ निश्चित कालतक साधन करने के बाद अपने आप होता रहता है। वह इस प्रकार है-
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा: प्राणाः शरीरे गृहे
पूजा ते विषयोपभोगरचना निन्द्रा समाधिस्थितिः ।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥
अति उच्चकोटि का भक्त भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए उनसे कहता है कि 'हे शम्भो! हे भोलानाथ! मेरे शरीररूपी मन्दिर में तुम्हीं आत्मारूप में विराजमान हो, तुम्हारी अर्द्धांगिनी पार्वतीजी मेरी बुद्धिरूप में विराजती हैं और मेरे प्राण तुम्हारे सहचर अर्थात् साथी हैं। इस शरीर में रहनेवाली इन्द्रियाँ विषय-भोग भोगती हैं, उसके द्वारा तुम्हारा पूजन हुआ करता है। मेरी निद्रा समाधि-दशा है और वाणी से जो-जो शब्द उच्चारित होते हैं, उनसे सब तुम्हारी स्तुति हो रही है। पैरों से जो संचरण हो रहा है, वह तुम्हारी परिक्रमा है। सारांश यह है कि *हे प्रभो! जो-जो कायिक, वाचिक या मानसिक क्रिया होती है, वह सब तुम्हारा पूजन हो रहा है।'*
जब देहाध्यास सर्वथा छूट जाता है और सर्वात्मभाव पूर्ण परिपक्व हो जाता है, तब ऐसी स्थिति प्राप्त होती है। ऐसी स्थिति को ही ज्ञानी की सहज समाधि-दशा कहते हैं। ऐसी स्थिति कब होती है, यह दिखलाती हुई भगवती श्रुति कहती हैं-
*देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।*
*यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परात्परम् ॥*
जब देहाभिमान अर्थात् मैं यह शरीर हूँ-ऐसा जो आत्मा को अभिनिवेश हो गया है और जिससे विशुद्ध परमात्मस्वरूप आत्मा का जो जीवभाव दृढ़ हो गया है, वह तत्त्वज्ञान के साधन के द्वारा बिलकुल निर्मूल हो जाता है तथा परमात्मा स्वयं ही चराचर भूतमात्र में आत्मरूप से विराजता है, यह भाव दृढ़ हो जाता है। अर्थात् जो कुछ भूत-भौतिक प्रपंचरूप में दिखलायी देता है, वह आत्मा का ही विलास है- ऐसा यथार्थ बोध हो जाता है, तब सारी इन्द्रियों की क्रियाएँ ईश्वर-पूजन रूप हो जाती हैं।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣6️⃣1️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
धीरे धीरे बड़े होते जा रहे थे मेरे दोनों बालक ……..पर जिद्दी हैं ।
मेरी मानते ही नही…….फिर सोचनें लग जाती कि इनके पिता भी तो जिद्दी ही …….अपनी जिद्द पूरी होनी ही चाहिये , पिता की तरह ।
लकड़ी के कितनें खिलौनें बनाकर रख दी हैं इन तापसीओं नें ………पर ये बालक हैं मेरे कि …….धनुष ही चाहिये इन्हें ……तलवार से ही खेलना है ………..कितनी जल्दी चलनें लग गए थे …………..डरते नही हैं ………मुझे तो – ये डरते नही हैं इसी का “डर” लगा रहता है ।
अब मैने तपश्विनीयों से कह दिया है ………आपलोगों को अब मैं कष्ट नही दूंगी………मैं भी कर सकती हूँ अब अपना कार्य ………मैं भोजन बनाउंगी ।
पर माननें वाली कहाँ थीं ये तापसी नारियाँ……..पर मेरे मन में आता ये सब तो अपनी साधना से सिद्धि प्राप्त करनें के लिये यहाँ हैं ………फिर मेरे कारण विघ्न क्यों पड़े इनकी साधना में !
भोजन बनाना मैने शुरू कर दिया था …….लकड़ियाँ बीननें जाती थी ….तो मेरा पल्लू पकड़े मेरे नन्हे मुन्हें मेरे पीछे पीछे चलते रहते…….
वन में बालकों को खेलनें के लिये छोड़ देती……..उस समय मैं कन्द मूल साग इत्यादि तोड़ती ……..मेरे बालक खेलते ……….मैं अपना काम भी करती पर दृष्टि मेरी बालकों पर ही रहती ।
एक दिन –
क्रमशः…
शेष चरित्र कल ….!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ६७*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
_*ईश्वर -पूजन*_
*अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम् ।*
*प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ॥*
अर्थात् ब्राह्मणादि का देवता अग्नि है, योगियों का देवता अपने हृदय में स्थित अन्तरात्मा है, साधनहीन मनुष्य का देवता मूर्तियाँ हैं और तत्त्वज्ञानी का देवता सर्वत्र रहता है। इसलिये तत् तत् प्रकार के देव-पूजन का विधान है।
इस प्रकार की सहज समाधि की दशा का कबीर साहब ने अपने एक भजन में इस प्रकार गान किया है-
*साधो, सहज समाधि भली ।*
*जहँ-जहँ डोलौं सो परिकरमा, खाऊँ पिउँ सो पूजा।*
*जब सोवौं तब करौं दंडवत, भाव मिटावौं दूजा ॥*
*आँख न मूँदौं, कान न रूँधौं तनिक कष्ट नहिं धारौं।*
*खुले नैन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ॥*
*कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करि गाई।*
*दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई ॥*
इस छोटे से निबन्ध में हमने देखा कि एक-दो घण्टे ईश्वर का पूजन करना ईश्वर की प्राप्ति के लिये पर्याप्त साधन नहीं है, परंतु इसके लिये सम्पूर्ण जीवन को ही पूजन या भजनरूप बना देना होगा और वह कैसे बनता है तथा उसके लिये क्या-क्या साधन करना चाहिये-यह भी हमने देख लिया, बल्कि हमने यह भी देख लिया कि मनुष्य जीवन का ध्येय भोग-सामग्री का संग्रह करना नहीं है, किंतु ईश्वर-प्राप्ति कर लेना है; क्योंकि केवल मनुष्य-शरीर से ही नर नारायण हो सकता है, जहाँ भोग-सामग्री तो प्रत्येक योनि में प्रत्येक देहधारी को प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप ही मिल जाती है।
ईश्वर हमको बल दे, जिससे हम विषय से विमुख होकर ईश्वर-प्राप्ति के साधन में प्राणपण से लग जायँ ।अष्टावक्र मुनिने जो कहा है, उसे ध्रुव मानकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में हमें लग जाना चाहिये। वह महामन्त्र है-
*'मुक्तिमिच्छसि चेत् तात विषयान् विषवत् त्यज ।'*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
