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July 7, 2025 8:52 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 149 भाग 2″ श्रीकृष्णसखा’ मधुमंगल’ की आत्मकथा – 122″,(साधकों के लिए) भाग- 47 तथा अध्यात्म पथप्रदर्शक: Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣9️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

आर्य श्रीराघवेंद्र वन में ……उनके साथ भैया लक्ष्मण भी वन में ……और भरत भैया नन्दीग्राम में ………..रह गए मेरे प्राणनाथ !

वो भीतर ही भीतर घुटते थे……….वो अकेले में रोते थे मैने उन्हें कई बार देखा है……..वो किसी को अपनें आँसू दिखाते नही थे जीजी ! ।

एक बार वो हिलकियों से रो रहे थे …….अर्धरात्रि की बेला थी …….मैने उन्हें देख लिया ……..मैं उनके सामनें खड़ी हो गयी थी …..।

जीजी ! तब वो मेरे गले से लगकर रोये ……….बहुत रोये थे …..मुझे कहते रहे कीर्ति ! मैं क्या करूँ ! मेरे आधार एक मात्र भरत भैया थे ……पर उन्होंने भी नन्दीग्राम में रहनें का संकल्प ले लिया ।

श्रुतकीर्ति बहुत रोई ………….उसके अंदर जो भी चौदह वर्षों का गुबार था वो सब आँखों से बाहर आगया था ।

सच बताओ अब छोटी ! तपस्या तेरी बड़ी है कि हमारी ? ……उर्मिला कुछ देर में बोली …….जब सहज वातावरण हुआ तब बोली ।

नही ……..जीजी ! नही ….तप तो माण्डवी और उर्मिला जीजी नें ही की है …….मैं तो बस उछलती कूदती रहती थी ।

अच्छा ! कीर्ति ! बता इस कक्ष को रंगों से पुतवा ले …..या तुड़वाकर दूसरा सुन्दर कक्ष बना ले ….? मैने ही श्रुतकीर्ति से कहा था …..क्यों की वहाँ रखी सामग्रियाँ और वो रक्त के धब्बे …….मुझे अच्छे नही लग रहे थे ।

नही जीजी ! ऐसा मत करना ………….कीर्ति बोली ।

इस कक्ष को मैं संग्रहालय के रूप में बनाउंगी …………..

देखो ! उर्मिला जीजी नें भी कई चित्र बनाये थे सब मुझे दे दिए हैं …….

उनको यहाँ लगाउंगी ………….मुझे दीवार दिखा रही थी कीर्ति ।

और ये चक्रवर्ती महाराज के पोशाक हैं ………कीर्ति नें मुझे दिखाए ।

ये तुझे किसनें दिए ? मैने पूछा ।

चहकते हुए बोली श्रुतकीर्ति ………….मुझे माँ कौशल्या जी नें दिए हैं ।

जीजी ! मैने संग्रहालय के लिए सामग्रीयाँ जोड़नी शुरू कर दी है ।

इस तरफ महाराज के पोशाक…उनकी तलवारें…उनके भाले …कवच ।

और इस तरफ ! …….फिर कीर्ति मुझ से मचलनें लगी …….जीजी ! आपको मेरी सहायता करनी पड़ेगी ।

क्या ? क्या चाहिये तुझे मुझ से …………..मैने पूछा ।

आर्य श्रीराघवेंद्र के बल्कल वस्त्र …….और ये देखो ! मुठ्ठी में कुछ बाल थे कीर्ति के……ये जटाओं के बाल हैं……आर्य श्रीराघवेन्द्र की जटाओं के बाल …….अभी स्नान हो रहा था ना ………तब जटाओं को सुलझाते समय कुछ बाल गिर गए थे ……मैं इन्हें भी रखूंगी ।

मैने कहा ……तू पागल है क्या ? ये सब भी कोई रखता है भला !

मुझे अब हँसी आरही थी ।

क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ……..!!!!

🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-122”

( आज छाक नही आयौ )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल…….

आज छाक नही आयौ ……मैया बृजरानी , जब हम सब गौचारण करवे जामैं तब दोपहरी में घर तै मैया छाक भेजे …मैया कौ स्नेह है कि लाला और हम सब गरम गरम भोजन करें …या लिए वन में ही काऊ के हाथन में छाक भिजवाय देय ।

आज नही आयौ छाक , कैसे आतौ ….मथुरा के निकट हम सब पहुँच गए हैं ….कन्हैया ही लै आयौ ……फिर यहाँ एक वृक्ष के नीचे बैठके ….हम सब छाक की प्रतीक्षा करवे लगे ….लेकिन कहाँ तै आयगौ छाक । छाक लायवे वारौ तौ वहीं श्रीवन में ही हम सबकूँ खोज रह्यो होयगौ ।

कन्हैया ! भोजन की व्यवस्था कर । सुबल हम सब सखान तै आयु में कम है …या लिए याकूँ भूख हूँ अधिक लगे । तोक सखा फलदार वृक्षन कूँ खोजवे लग्यो …..लेकिन यहाँ तौ फलदार वृक्ष हूँ नही है …..श्रीदामा बोलो ….कंस की नगरी सामने है ….बाके राक्षस फल छोड़ते थोड़े ही होंगे ! सुबल बोल्यो …हम लोग बहुत दूर आय गए हैं । तौ चलो वापस श सुबल ने कही …..अब तौ चल्यो हू नाँय जा रह्यो । मैं आनन्द तै बैठ्यो हूँ …भूख मोकूँ हूँ लग रही है …लेकिन मोकूँ विश्वास है कि कन्हैया कछु उपाय करैगौ ।

कन्हैया ! कहा करें ? अब मैंने पूछी ।

कन्हैया शान्त है …कछु नही बोल रह्यो ।

सारे ! तू तौ बड़े बड़े राक्षसन कूँ मारे …..या भूख कूँ नही मार सके का ?

कन्हैया फिर हूँ कछु नही कर रह्यो ।

तभी कन्हैया के नेत्रन में एक चमक आय गयौ …..

मधुमंगल ! देख सामने धुँआ उड़ रह्यो है ….मैंने हूँ देख्यो ….और धुँआ सुगंधित हूँ है । कन्हैया पतौ नही काहे कूँ खुश भयौ । मैं बाके ही मुखमण्डल में देख रह्यो हो । मैं तौ बाद में समझ्यो …कि यमुना तट पे कोई यज्ञ है रह्यो है । और यज्ञ कौ आयोजन माथुर ब्राह्मणन के द्वारा हो ।

मधुमंगल ! तू श्रीदामा और तोक कूँ भेज बा यज्ञ में ……..

कन्हैया की बात सुनके मैंने बाते पूछी …किन्तु यज्ञ में भेजवे तै कहा होयगौ ?

वहाँ जायके जे सब कहेंगे कि …भूख लगी है …कछु खान देयो । और कन्हैया तोकुँ लगे कि पण्डित इन सबकूँ अपनी यज्ञ सामग्री देय दिंगे ? मैंने कही । चौं ना दिंगे? अरे ! यज्ञ के प्रसाद में तौ सबकौ अधिकार है ……दिंगे ….तुम जाओ तौ ।

कन्हैया की बात सुनके हूँ कोई नही गयौ ….सब वहीं खड़े रहे ।

कुछ देर बाद कन्हैया फिर बोले ……अच्छो तौ एक काम करियौं ……मेरौ नाम लै कै कहियों ….कि कृष्ण आयौ है …बाकूँ भूख लग रही है ….या लिए कछु देय दो ।

और तोकुँ देय देंगे ? मैंने हँसते भए कही ।

चौं ना देंगे ? मोकूँ सब जानें …….कन्हैया हूँ ताल ठोक के बोलो ।

ठीक है सखाओं ! जाओ ! और देख लो ….मैंने श्रीदामा आदि तै कही ।

तौ श्रीदामा हंसतौ भयौ बोलो ……..अगर नही दियौ तौ ? मैंने कही …तू जा ना पहले ….देख लै …नही दियौ तौ लौट अइयो …..

श्रीदामा मेरी ओर देखके बोलो ……ठीक है …फिर कन्हैया तै बोलो …..कन्हैया ! बात हमारी नही है ….हमें तौ कोई बात नही …भूखे हूँ रह जायेंगे ….लेकिन तू ? तोकुँ भूख लग रही है ……और हमतै सहन नही होय है कि तू भूखौ रहे ……..श्रीदामा जे कहतौ भयौ वहाँ तै यज्ञ मण्डप की ओर चलौ गयौ हो ……..

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ३४*

               *🤝 १०. व्यवहार 🤝*

                          _*ममता*_ 

  श्रीविष्णुपुराण में एक श्लोक है-

 *ममेति मूलं दुःखस्य निर्ममेति च निर्वृतिः ।*
 *शुकस्य विगमे दुःखं न दुःखं गृहमूषिके ॥*

   भाव यह है कि ममता ही दुःख का मूल है और कहीं ममता न बाँधना ही परम सुख-शान्ति का उपाय है। मनुष्य शुक पालता है। उसको खिलाता-पिलाता है और पुत्रवत् उसमें ममता रखता है। इससे शुक के मरनेपर, मनुष्य शोक करता है। पक्षी तो प्रतिदिन हजारों मरते हैं, शुक भी कितने ही मरते होंगे; परंतु उनके लिये किसी को दुःख नहीं होता, परंतु अपना पाला हुआ शुक जब मर जाता है, तब मनुष्य शोक करता है। चूहे भी घर में रहते हैं, परंतु उनके मरने से कोई शोक नहीं करता; क्योंकि उनमें मनुष्य का ममत्व-सम्बन्ध नहीं बँधा होता। इसलिये ममता ही दुःख का मूल है, यह इस श्लोक का तात्पर्य है।

   अब यह देखना है कि ममता क्या वस्तु है और वह कैसे बँधती है। *'मम'* यानी मेरा और मेरापन का जो भाव है, वही ममता है। जो *'मेरा'* नहीं है उसमें भी *'मेरा है'* यह भाव हो जानेपर उसमें ममता बँध जाती है और ममता के विषय के वियोग से दुःख हुए बिना नहीं रहता।

   ममता कैसे बँधती है-यह समझने के लिये शास्त्र ने जगत् को दो भागों में बाँट रखा है-

 *ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन निर्मिता ।*
 *जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसार: जीवकल्पितः ।।*

  परमात्मा योगनिद्रा में सोये थे। जागकर देखा तो कुछ भी दीख न पड़ा, तुरंत ही संकल्प की स्फूर्ति हुई *'एकोऽहं बहु स्याम'* - मैं अकेला हूँ, अनेक रूप हो जाऊँ- यह संकल्प प्रकृतिक ऊपर प्रतिफलित होते ही उसके गुणों में क्षोभ हुआ और उससे विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई। सृष्टि उत्पन्न तो हुई परंतु उसमें कोई क्रिया या गति न दीख पड़ी, इससे सूर्य जैसे अपनी अनन्त किरणों से सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार परमात्मा ने अपने अनन्त अंशों से सृष्टि में प्रवेश किया, ऐसा करनेपर सारी सृष्टि चेतनामय हो गयी और सब अपना-अपना व्यवहार करने लगे।

   *क्योंकि सृष्टि की रचना प्रकृति से हुई है, इसलिये वह स्वभाव से ही विकारवाली है। इसका अर्थ यह है कि पदार्थों में रूपान्तर होता रहता है। एक प्राणी उत्पन्न होता है, कुछ समयतक रहता है और फिर नाश को प्राप्त होकर अपने उपादान कारण में मिल जाता है। शास्त्रों ने इस विकार की छः अवस्थाएँ (उत्पन्न होना, जीवित रहना, रूपान्तर होना, बढ़ना, घटना और मर जाना) बतलायी हैं, परंतु यहाँ तीन विकारों के समझ लेनेपर भी काम चल जायगा, यानी उत्पन्न होना, जीना और मर जाना।*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-47

प्रिय ! रामसनेही ना मरे, कह कबीर समुझाय…
(श्री कबीर दास )

मित्रों ! वो अपना नाम “नियमानंद” बताता था
…युवा था …एक जोश था उसमें …उत्साह , कि
अध्यात्म को जानना ही है …इलाहाबाद के पास
के ही किसी गांव में उस “नियम” का जन्म हुआ था
…पर शिक्षार्थ के लिए वाराणसी आगया था ।

उन दिनों अंग्रजी विद्या का इतना प्रकाश नही
था …उन दिनों संस्कृत व्याकरण , न्याय,
पुराण, वेद साहित्य यही सब विषय थे …अति
शीघ्र ही नियमानंद समस्त विद्याओं में
पारंगत हो गया था…।

आज उसके विद्यालय में हिंदी साहित्य के विद्वान
बुलाये गये थे …सब अपने अपने काव्य पाठ
में मस्त थे …पर वो नियमानंद ऊँघ रहा
था …एक साहित्यकार ने श्री कबीर दास का
दोहा सुनाया …”ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो
पण्डित होय”
कबीर की वाणी कई बार सुनी थी …पर आज हृदय
में लग गयी …अरे ! कोई पता थोड़े ही है कि
कौन सा तीर कलेजे के आर पार हो जाए ।

शाम को मणिकर्णिका घाट में गंगा जी के किनारे
नियमानंद टहल रहा था …पर वही कबीर दास जी
कि पंक्ति – “पोथी पढ़ पढ़ जुग गया, पण्डित भया न
कोय” ….।
क्या पोथी पढ़ने से कोई लाभ नही है ….फिर
क्या पढ़े ? …”ढ़ाई आखर प्रेम का” ।

झकझोर दिया था नियमानन्द को इस कबीर के
निर्दोष विचार ने …..गर्मी का महीना था
…ज्यादा सोचने के कारण नियमानन्द का सिर
दूखने लगा …शीतल गंगा जल में नहाकर उसने
अपने माथे को शीतलता पहुंचाई …पर कब तक ?
…अभी तो आगे बहुत कुछ होना था ….।

पत्र आया कि नियमानन्द ! शीघ्र आओ इलाहाबाद
अपने घर । …वो तुरन्त निकल पड़ा …घर में
गया तो उसने देखा …पिता जी शरीर त्याग
चुके थे …माँ तो बाल्यावस्था में ही छोड़कर
चली गयीं थीं । वह “नियम” अब और अकेला हो
गया …शादी कर …शादी कर …ये परिवार
वाले “नियम” की शादी कराने के पक्ष में थे
…ये देखकर “नियमानन्द” रात में ही घर
से भाग गया ।
सबको मरना है …एक दिन सब मरेंगे ? …फिर
मैं किसके लिए जीयूँ और क्यों जीयूँ ?
…मुझे वो बनना है जो कभी मरता नही है
…जो जन्म और मृत्यु के चक्र से निकल
जाता है ।

किसके पास जाऊँ ?…”बोधगया” पास में ही था
…चलते चलते “नियम” ने ही सोचा …पढ़ा लिखा
तो था ही …बौद्ध धर्म इस चक्र को (जन्म
मृत्यु ) को रोक सकती है …। ऐसा सोचकर
नियम गया ….एक बौद्ध मठ में रुका
…क़रीब चार दिन रुका …और उस मठ के
भिक्षु का दिमाग खाता रहा ।

उन वृद्ध बौद्ध भिक्षु ने कहा …वासना ही
मुख्य है …तुम्हारे मन में जो कामना है
बस वही कामना या वासना तुम्हें इस जन्म मृत्यु
के चक्र में घुमाती रहेगी …।

तो क्या करूँ मैं भन्ते ! …कुछ नही
विपस्सना के माध्यम से तटस्थ हो जाओ …वासना
धीरे धीरे तिरोहित होते चले जायँगे ।
तुम इस चक्र से बाहर आजाओगे ।

पर इस जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर आकर
…फिर आगे ? …बौद्ध भिक्षु ने कहा
…क्या मतलब ? अरे ! आगे क्या …बस
जन्म मृत्यु से परे हो गये …अब क्या चाहिए ?
…कुछ नही …प्रणाम किया और आगे के
लिए वो नियमानन्द चल पड़ा …मन में यही
सोचता हुआ जा रहा था कि …शून्य बन जाना ही
जन्म मृत्यु से परे जाना है …यही बौद्ध धर्म कहता है ।

पर शून्य बनकर रस कहाँ ? …शून्य बन कर
प्रेम कहाँ ? …नीरस ? …वासना को मिटा
दें …ठीक है मिटा दिया अब क्या ?…बस
हो गया ?…आगे अब कुछ नही ।

उसने सीधे हरिद्वार की रेल पकड़ी इलाहबाद से
हरिद्वार दूसरे दिन पहुँच गया ।
…यहाँ इसने कई स्थान देखे …विद्वान
तो था ही …अच्छे अच्छे महन्तों से मिला
…महामंडलेश्वरों से मिला …और उनसे
पूछा भी कि ….वासना से मुक्त होकर आगे
क्या होगा ? …

तुम मुक्त हो …तुमने अपने आप को बद्ध मान
लिया है । उन महामण्डलेश्वर जी ने बड़े
ठसक के साथ कहा …फिर हम बधें क्यों हैं ?
…उस युवा नियमानन्द ने पूछा …इस
प्रपञ्च में फंसने के कारण …इस प्रपंचात्मक
जगत में फंसने के कारण …कर्ता भाव के गहरे
होने के कारण ।
हम फँसे नही हैं …बस मान लिया है ..इसलिए ।

तभी उनके पास एक वकील साहब आये …उन्होंने
कहा …स्वामी जी ! आप केस जीत गये हैं
…और फ़ंलाने स्वामी जी केस हार गये
…बधाई हो …वो विशाल गंगा के किनारे का
भूखण्ड अब आपका ही हुआ ।

मन फिर खिन्न हो गया …ये भी ऐसे ही निकले
…कह कुछ रहे हैं …कर कुछ और रहे हैं ।
मैं तो इनका आश्रम देख कर सोच रहा था कि
…सिद्ध होंगे …पर ये तो राग द्वेष से
घिरे हुये हैं ।

आगे फिर बढ़ चला…फिर वहीं गंगा जी के
किनारे बैठकर शान्त भाव से गंगा की लहरों को
देख रहा था …कि तभी एक साधु आये
…गैरिक वस्त्र धारण किये हुये थे
…वृद्ध थे …पर उन्होंने देखा तो
समझ गये कि ये युवा विचलित है …

क्यों विचलित हो ? …नियमानन्द ने देखा
…प्रणाम किया …मत हो विचलित
…नियमानन्द को देखकर उन्होंने कहा ।…
हे महात्मन् ! मैं किसकी आज्ञा मानूँ ..? कोई
क्या कह रहा है …कोई क्या…लगता है कि ये
सारी की सारी बातें मात्र आदर्श की बातें बन के रह गयी हैं …।…किसी की आज्ञा मत मानो …बस
एक मात्र भगवान की आज्ञा का पालन करो
….कैसे ? …हे महात्मन् ! मैं क्या
जानूँ कि भगवान की आज्ञा क्या है ? …मैं
जिनके भी पास में जाता हूँ …वो लोग अपने
सम्प्रदाय के सिद्धान्त को भगवत् आज्ञा का नाम
दे देते हैं । …मैं किस के सिद्धान्त को
भगवान की आज्ञा मानूँ ?
मैं बहुत दुःखी हूँ …हे महात्मन् ! आप कुछ
मार्ग दर्शन करें …कृपा होगी ।

कुछ मत करो …कहीं मत जाओ …यहीं रहो
…यहीं गंगा के किनारे …मेरी झोपड़ी
वहाँ है …जब कुछ पूछना हो आजाना
…और सुनो ! बस एक काम करो …गीता
के एक मन्त्र को दोहराते रहो …”हे कृष्ण
मैं आपका शिष्य हूँ” इस मन्त्र को जपो
…ख़ूब जपो …हर समय जपो …पागल की
तरह जपो । इतना बोल कर वो महात्मा लठिया
टेक कर चल दिए ।

वो भिक्षा करता …और रोटी को गंगा जल में
भिगोकर …थोड़ा नमक डाल कर खा लेता । अब
उसकी उम्र हो गयी थी …50 वर्ष …20
वर्ष कैसे गंगा के किनारे हरिद्वार में बीत गये
थे …पता ही न चला …। एक दिन इसी
मन्त्र को जपते हुये सो गया था
नियमानन्द…तो रात्रि में जगदगुरू श्री
कृष्ण आये ..वो तो आनन्दित हो गया …जगदगुरू
बोले …मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ
…आज से तुम मेरे शिष्य हो ।

वो उठकर बैठ गया …गंगा जी से अंजुली में जल
भरकर लाया …और चरण पखारे …फिर
उनके चरणोदक का पान करके उसने प्रार्थना की,
कि …हे नाथ ! मृत्यु से पार जाने का उपाय
क्या है ? …तुम जा चुके हो पार …इस
देह के बाद तुम्हें कोई देह नही मिलेगा …इस
जन्म मृत्यु के झंझट से तुम मुक्त हो ।

मैं शान्त हो गया …कुछ न बोला … क्यों
प्रसन्न नही हुये ? …जगदगुरू श्री कृष्ण ने
कहा …नही प्रसन्न तो हूँ …पर । पर
क्या ? …वो “ढ़ाईआखर” क्या है ?
….मुझे उसको जानना है …भगवान हँसे
…और बोले …बद्रीनाथ जाओ …और
उद्धव गुफा में अवश्य जाना…वहीं तुम्हें इस
“ढ़ाईआखर” का प्रकाश प्राप्त हो जायेगा । पर हो
सकता है कि इसके लिए तुम्हें एक जन्म और लेना
पड़े …जगदगुरू श्री कृष्ण अन्तर्ध्यान हो गये ।

पैदल का मार्ग था उन दिनों कोई साधन भी नही
थे …शरीर भी अब वृद्ध होता जा रहा था
…बद्रीनाथ धाम में 2 महीने में वह पहुँचा
…दर्शन किये …उद्धव गुफा में
गया …वहाँ जाकर बैठ गया …”कृष्ण
कृष्ण” का नाम जप आरम्भ कर दिया था
…रात्रि में बर्फ़वारी हुयी …वो तो
बस भगवन् नाम से ही ऊर्जा ले रहा था…तभी
एक दिव्य प्रकाश उसे दिखाई दिया…बिल्कुल
कृष्ण ! …उद्धव …उसने उन महाभागवत
उद्धव को प्रणाम किया ।
उद्धव जी ने उसके सिर में हाथ फेरा
…क्या जानना चाहते हो ? …मैंने कहा
…”ढ़ाई आखर” । उद्धव बोले …उस ढ़ाई आखर
को तो मैं भी नही जान पाया हूँ ….फिर मैं
कहाँ जाऊँ अब ? उद्धव जी से बड़ी आत्मीयता से बोला
नियमानन्द …आपके पास ही तो मुझे
भेजा है मेरे सद्गुरूदेव श्री कृष्ण ने ।

वृन्दावन जाओ ! वृन्दावन जाओ ! वृन्दावन
जाओ ! ।

इतना बोल कर। उद्धव जी अन्तर्ध्यान हो गये ।
रात्रि में बर्फ़ वारी तेज़ हुई …और
नियमानन्द का शरीर शान्त हो गया । मृत देह ।

  • मैं यमुना जी के किनारे आज बैठा हुआ था
    …बारिश हो रही थी ….गौरांगी मेरे साथ
    थी ….नियमानन्द ! ओ नियमानन्द ! मैंने
    पलटकर देखा …तो सामने एक तेजोमय रूप दिखाई दिया …मैंने कहा …आप कौन हैं ? …मैं
    कृष्ण सखा उद्धव ! …मैंने इधर उधर देखा
    …गौरांगी ! देखो ! …गौरांगी आज अपनी
    ही धुन में थी …उसने मेरी बातें सुनी ही
    नही ।
    नियमानन्द ! समझ रहे हो ना …इस जन्म में
    ढ़ाई आखर को ?
    मुक्ति इस ढ़ाई आखर के सामने तुच्छ है
    …वैकुण्ठ इस ढ़ाई आखर के सामने निम्न
    है…फिर इन्द्रादि लोक की तो बात ही क्या
    करें ।
    नियमानन्द ! ये पागलबाबा से मैंने ही तुम्हें
    मिलाया है …ये कृष्ण सखा हैं …जो
    यहाँ पागलबाबा बनें हैं …ये गौरांगी !
    निकुँज की सहचरी है …और तुम तो अपना देह
    बद्री नाथ में त्याग चुके थे …मुक्त हो ही
    गये थे …पर ढ़ाई आखर को जानना था तुम्हें
    …और वो ढ़ाई आखर को समझाने की ताकत विश्व
    में एक मात्र इस श्री धाम वृन्दावन में ही है
    …इस भूमि में प्रेम के परमाणु हैं …यहाँ
    की भूमि के कण कण में प्रेम व्याप्त है ।
    नियमानन्द ! मैं भी तो आया था …ज्ञान की
    शिक्षा देने ब्रजवालाओं को …पर मैं क्या
    देता ? …अरे दिया तो मुझे इन बृजवालाओं
    ने …सब कुछ दे दिया …प्रेम दे दिया
    …प्यार दे दिया …कन्हैया का प्यार
    …कृष्ण के चरणों की रति …और कृष्ण का
    विरह धन दे दिया …आँसु रूपी धन मिल गया
    …”कृष्ण कृष्ण” कहने की विरहासक्ति मिल गयी
    …ओह ! नियमानन्द और क्या चाहिए …अब
    तो खुश हो ना ? …मिल गया ना ? ….मैं
    सुनता रहा ।

तभी वह प्रकाश मेरी आँखों से ओझल हो गया …।

हरि जी ! देखो ! वो मोर …कितना सुंदर लग
रहा है ना …मैं स्तब्ध था । गौरांगी ने
झकझोरा क्या हुआ आपको ? …मैंने कहा
…नियमानन्द ! …क्या नियमानन्द ?
…मैंने कहा …एक पागल प्रेमी …जो आज
हरि बना है …। गौरांगी ! प्रेम तत्व ही
सबसे बड़ा है ना ? …इस जन्म में मैंने पा लिया
प्रेम को ।

अब आगे जन्म नही लोगे ?…मैं तो मुक्ति को ठोकर
मारती हूँ …मुझे तो हर जन्म में वृन्दावन ही
चाहिए …हर जन्म में …और ?
तुम्हारे जैसा सखा नियमानन्द ! …मैंने कहा
…क्या ? गौरांगी ख़ूब हँसी ! अभी तुम ही
तो कुछ बड़बड़ा रहे थे ।

एक मोर नाचा …मैं और गौरांगी उसे देखते
रहे थे …और एकाएक रो गये …अपने प्यारे
की याद आगई थी …कृष्ण की ।

गौरांगी उठी और भागी …मैंने कहा …पगली
कहाँ जा रही है ? …अरे हरि जी ! अपने ठाकुर जी
को सुलाकर आई हूँ …और पंखा भी बन्द कर दिया
…खिड़की भी बन्द है …कहीं साँस न घुट
जाए गर्मी में । गौरांगी भागी । मैं आनंदित था ।
यही तो है …

” ढ़ाई आखर प्रेम का”

Harisharan

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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