श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! हा सखे, दर्शय – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
ललिता दौड़ी ………चन्द्रावली ! ये तो हमारी स्वामिनी हैं !
उफ़ ! कैसा क्रन्दन था ……कैसा करुण विलाप था…..श्रीराधारानी का विरह देखकर तो वृन्दावन भी मानों सुबक रहा हो ……ऐसा लगता था ।
हिचकियाँ शुरू हो गयीं थीं कज्जल मिश्रित अश्रु उन गोरे कपोलों को काला कर रहा था …………..
स्वामिनी ! ललिता पागलों की तरह दौड़ी थी ……विशाखा तो स्तब्ध सी हो गयी थी अपनी स्वामिनी की ये दशा देखकर ………….
स्वामिनी ! नेत्रों को खोलिए ! रंगदेवी जल का छींटा उन मुखारविन्द में डालते हुए कहती जा रही थीं …….पर श्रीराधारानी को कुछ भान न था ………..वो बस……हा श्याम सुन्दर ! हा प्राण ! हा सखे !
यही बोलती जा रही थीं………उनकी साँसों की सुगन्ध से पूरा वृन्दावन महक रहा था……स्वेद निकल रहे थे उनके गौरांग देह से ….उसकी सुगन्ध अद्भुत थी ………पशु पक्षी सब घेरकर खड़े थे श्रीराधारानी को ….मोरों का झुण्ड चारों ओर था……..उनके भी नेत्रों से अश्रु बह रहे थे……..शुक, कोयल आदि पक्षी शान्त होकर वृक्षों में बस बैठे थे ….पर उदास थे सब ।
श्याम सुन्दर !
एकाएक पता नही क्या हुआ श्रीजी को …..उठकर बैठ गयीं ।
कहाँ हैं मेरे प्यारे ! कहाँ हैं मेरे नाथ ! श्रीजी बिलख रही थीं ।
आपको भी छोड़कर चले गए वे छलिया ? ललिता सखी नें जैसे तैसे अपनें आपको सम्भाला ……..और पूछ लिया ।
हाय ! प्रेम में अहंकार जब आजाता है तब सखियों ! प्रियतम दूर चले जाते हैं……अहंकार अपनें प्रिय से दूर कर देता है…….
श्रीजी दिव्य प्रेम का उपदेश कर रही हैं सखियों को ।
महारास करते करते तुम सबके मन में अहंकार आगया था……..मैं सुन्दर, मैं सबसे सुन्दर…….वे उस सखी के साथ क्यों नृत्य कर रहे हैं …..मेरे साथ क्यों नही……..श्रीराधा जी कहती हैं…….ये भाव अहं है ……ये प्रेम के मार्ग में बहुत बड़ा बाधक है सखियों ।
मेरे साथ भी यही हुआ ……………श्रीराधा जी बतानें लगीं ।
सब सखियाँ सुबुकते हुए सुन रही हैं श्रीजी का प्रेमोपदेश ।
सखियों ! मेरे मन में भी अहंकार आगया ………….वे मुझ से कह रहे थे ……कि चलो ! उस कुञ्ज में चलो …….वहाँ एकान्त है ……….हम दोनों ही होगे ……..।
मैं सुख लूटती श्यामसुन्दर के साथ………..पर इस अहंकार नें मुझे श्याम से अलग कर दिया ।
श्रीराधारानी की वो विरहकातर वाणी सब सुन रही हैं ध्यान से ।
“मैं चल नही सकती”………….ऐसी अहंकारपूर्ण भाषा मेरी ?
हँसी भी आती है ………राधा ! तू श्याम के साथ चल नही सकती ……तो फिर ये पाँव किस लिए ? सखियों ! वे मेरे प्राणधन मुझ से बोले …….मेरे कन्धे में बैठ जाओ ……..हँसती हैं श्रीराधारानी ।
बस, वो अंतर्ध्यान हो गए…………हा नाथ ! कुछ देर रुक कर फिर पुकार उठीं थीं श्रीराधारानी ।
चलो ! आगे ही तो गए होंगें ना श्याम सुन्दर ………चलो स्वामिनी ! आगे चल कर खोजें उन्हें ……ललिता सखी नें प्रार्थना की ।
नही, नही ललिते ! नही सखियों ! कहीं मत चलो ……यहीं बैठो ……कालिन्दी के तट पर ………….आना होगा तो यहीं आजायेंगे ।
पर राधा ! खोजना तो पड़ेगा ना ? चन्द्रावली बोली ।
नही, जीजी ! हम आगे बढ़ेंगी उन्हें खोजते हुये ……तो वो और आगे जाएंगे हम से छुपनें के लिये ………और आगे करील के काँटे हैं …..गढ़ जाएंगे उनके कोमल चरणों में ……….आहा ! कितना कष्ट होगा उन्हें ।
यहीं बैठो सब ……..चन्द्रमा की चाँदनी में सब यहीं से पुकारती हैं ……वे चुपके चुपके हम सबकी पुकार सुनते हैं ……….वे भी ठहर जायेंगे ……उनको भी आगे भागना नही पड़ेगा ………यहीं बैठो सखियों !
श्रीराधारानी नें कहा ……..तो सबको उनकी बात सही लगी ……और सब बैठ गयीं ……….चन्द्रमा पूर्ण खिला हुआ है …….उसकी चाँदनी यमुना की बालुका में बिखर रही है ……………….तब गोपियों को और विरह सतानें लगा ……..वो चीत्कार कर उठीं …….
हा सखे ! दर्शय …………हे सखे ! हमें अब दर्शन दो ।
*शेष चरित्र कल-


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