उद्धव गोपी संवाद:-
गतांक से आगे:
२९ एवं ३०
भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी को ब्रज में भेजने के लिए विचार कर रहे हैं।
दोहा: ऊधौ को ब्रज भेजि कें,यह जिये में आज।
सरि है एक हि पंथ में,पांच पांचमें काज।।
माता यशोदा तात नंद,गोपी गोप औ ग्वाल।
धीरज सबहि बंधाय हैं,कहि हैं मिलि हैं लाल।।
ऊधौ ज्ञान गुमान है,कहै न समुझत प्रीत।
गर्व न राख्यो काहू कौ,यह मेरी है रीत।।
वार्ता: यासों,याकौ (ऊधौ को) अभिमान, गोपियों द्वारा चूर करवाऊं।
दोहा: सगुण निर्गुण द्वै पंथ हैं,कहियतु शास्त्र विचार।
सहज सहज तिन मध्य जो,ताकौ होय निरधार।।
भावार्थ -यदि ऊधौ अपनों रंग चढ़ाय देयगौ तौ ज्ञान योग को मारग सूधौ सिद्ध ह्वै जायगौ और यदि गोपी,यापैं अपनों रंग चढ़ाय देंगी तौ प्रेम भक्ति को मारग सूधौ सिद्ध ह्वै जायगौ।
दोहा: उद्धव अन्तर सखा,परम मेरौ दूजौ रूप।
वंचित रहै रस प्रेम सों,यह नहिं कृपा स्वरूप।।
मेरी परम कृपा कौ फल, श्री वृंदावन वास।
सो दैहों प्रिय सखा क्यों,उपजै जब अभिलाष।।
भावार्थ -ब्रज में जाये बिना यह अभिलाषा ऊधौ के हृदय में नहीं उपजैगी, वहां जाय कैं और गोपी गोपन के प्रेम कूं निरखि परखि कै,जब ब्रजवास की तीव्र अभिलाषा जागैगी तौ मैं यापै कृपा करिकैं,याकूं ब्रजवास दऊंगौ और पांचमों प्रयोजन यह है कि मोकूं एक रसिक सखा मिल जायगौ।
दोहा: उतमें गोपिन की कृपा, उद्धव पै है प्रीति।
इत कारज मेरौ सरै, पाऊं रसिक वर मीत।।
प्रेम भक्ति नव रंग की,दैनी भक्ति अभिराम।
बिना रंगै बहिरंग मन,ढिंग मेरे कहा काम।।
भावार्थ – प्रेम, महाविद्यालय तो ब्रज में ही है, और प्रेम की आचार्या ब्रज ललना ही है, उन्हीं के निकट प्रेम पाठ पढ़ पढ़ कैं मैंने रसिक शेखर की पदवी पाई है।वाही गुरुकुल में, उन्हीं प्रेमाचाय्यार्न के समीप, मैं अपने प्रिय बंधु उद्धव कौं भेज दऊं,तौ ये हू रसिक पदवी कूं प्राप्त कर आवैगौ और तब मोकूं विरह की लम्बी यात्रा पार करिवे के लिए एक सहचर मिलि जायगौ।
शेष कल…
( उद्धव जी का भगवान को प्रणाम करना)
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