!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( चतुर्विंशति अध्याय:)
गतांक से आगे –
ये जीव अपने सनातन प्रियतम को भूल जाता है इसलिये दुखी है ….हमारे सर्वस्व तो श्रीकृष्ण ही हैं …वही सनातन प्रिय हैं ….उनको भूलना पाप है ….उनकी स्मृति ही सबसे बड़ा पुण्य है । माँ ! जहां कृष्ण को गाया जाता है ….वहाँ वैकुण्ठ प्रकट है …साक्षात वैकुण्ठ भूमि है वो । माँ ! मुझे देखकर दुखी क्यों होती हो …दुखी होना है तो इस जगत को देखो ….कैसे अपने स्वामी को भूलकर लोग हंस रहे हैं …ठठोली कर रहे हैं …..ये सबसे बड़ा आश्चर्य है । काल हमारे पीछे है …कब आकर हमारी गर्दन दबोच ले ….कोई पता नही । जिस जीवन का एक क्षण भरोसा नही है उसके लिये हम क्या क्या नही करते । चोरी , हिंसा , द्वेष , अहंकार …..माँ ! इन सब को छोड़कर श्याम सुन्दर का भजन करना चाहिये । उन्हीं को भजो ।
आज हुआ ये कि भोजन कर रहे निमाई शचि देवि को कुछ शान्त और सहज दिखाई दिये । तो अवसर जानकर शचि देवि ने अपने पुत्र से कहा …..निमाई ! ये सब तू क्या कर रहा है ! तू तो विद्वान है ….लोगों को उपदेश देता हुआ फिरता है …फिर स्वयं पर बात आई तो ! निमाई ! मैं तो कुछ पढ़ी लिखी हूँ नहीं ….पर तू तो पढ़ा लिखा है …..क्या शास्त्र यही कहते हैं कि ग्रहस्थ होकर पत्नी आदि को नज़र अन्दाज़ कर देना चाहिए । क्या तेरा ये कर्तव्य नही है ! कि अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहे । मन का सारा ग़ुबार निकाल दिया था शचि देवि ने ।
तब सहज होकर निमाई बैठे ….और पहली बार मन्द मुस्कुराये …अपने पुत्र की मुस्कुराहट पे शचिदेवि को लगा कि उसे अब सब कुछ मिल गया है ।
माँ ! बैठ ना ! अपने सामने शचि देवि को बिठाया …और कपिल भगवान की तरह निमाई भी अपनी माता को ज्ञान देने लगे । जीव दुखी है ….क्यों की कृष्ण को भूल गया है जीव । दुख का कारण ही ये है – मूल को हम लोग त्याग कर खण्डित संसार की ओर बढ़ते चले जाते हैं ।
निमाई बोल रहे थे …तभी विष्णुप्रिया आगयीं …और बाहर ही बैठ गयीं….अपने प्राणेश्वर के वचनों को वो भी सुनने लगीं थीं ।
माँ ! कृष्ण नाम लो ….कृष्ण नाम जो लेता है वो चाण्डाल भी हो तो भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ है ….और अगर ब्राह्मण हरि नाम से दूर है वो तो चाण्डाल के समान अपवित्र है । माँ ! कृष्ण नाम अग्नि है ….जो हमारे अनन्त जन्मों के पापों को जला देती है …..फिर निमाई हंसते हैं …माँ ! जीव में इतनी शक्ति ही नही है कि वो इतना पाप कर सके कि एक कृष्ण नाम उसको भस्म ना कर सके । माँ ! कृष्ण बोलो , कृष्ण ही है गति कृष्ण ही हैं मति , कृष्ण ही हैं हमारे प्राण पति …..नेत्रों से अश्रु बहने लगे निमाई के …..माँ ! कृष्ण भक्ति के समान कुछ नही है ….कृष्ण भक्त की महिमा का कुछ वर्णन करके मैं सुना रहा हूँ …उसे आप सुनो । कृष्ण भक्त जहां होता है वहाँ कलियुग का प्रभाव नही होता ….कलि प्रभाव को नगण्य कर देता है कृष्ण भक्त । कृष्ण भक्त काल के चक्र को तोड़ देता है ….काल स्वयं डरता है …कृष्ण भक्त काल से लड़ जाता है …ये महिमा ज्ञानियों में नही पाई जाती केवल भगवत् भक्तों में इस महिमा का दर्शन होता है । निमाई ये कहते हुए “हा कृष्ण” कहकर फिर मूर्छित हो गये थे । ओह !
शेष कल –
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