श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! आदर्श प्रेम – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 42” !!
भाग 1
ये राधा कौन है ?
उठे जब द्वारिकाधीश …..तब रुक्मणी नें यही प्रश्न किया था ।
ओह ! जैसे तैसे तो अपनें आपको सम्भाला है फिर वही नाम !
बृज की गोपी है ना राधा ? ये दूसरा प्रश्न था रुक्मणी का ।
क्या कहते श्रीकृष्ण ……..वो कुछ नही बोले उठे और झरोखे में जाकर खड़े हो गए वहाँ से समुद्र की लहरें दिखाई देती थीं ।
इस दासी रुक्मणी से भी ज्यादा प्रेम है राधा का ?
रुक्मणी का ये तीसरा प्रश्न था ।
श्रीकृष्ण नें लम्बी साँस ली …………..कुछ और प्रश्न होते और उत्तर नही देना होता श्रीकृष्ण को तो वो टाल देते …..पर राधा ! इस नाम को वो कैसे टाल जाएँ ………….
बताइये ना ! क्या मुझ से भी ज्यादा प्रेम है राधा का ?
मैने सबकुछ त्यागा आपके लिये….मैं कुछ भी कर सकती हूँ ……रुक्मणी का अपना अहं है……पर राधा में अहं तो तिल भर भी नही………..
ओह ! गिर पड़े एकाएक श्रीकृष्ण ……….रुक्मणी के कुछ समझ में नही आया हुआ क्या ? वो चिल्ला उठीं …..नाथ ! उठाया द्वारिकाधीश को ….और सुला दिया क्यों की उठनें की अब इनमें हिम्मत नही हैं………….आप विश्राम करें . ……रुक्मणी इतना ही तो बोली थीं पर – रुक्मणी ! मेरे उदर में पीड़ा हो रही है , असह्य पीड़ा ।
कराह रहे थे लीलाधारी ……ओह ! रुक्मणी ! कुछ करो ना !
हाँ , हाँ, रुक्मणी नें दासी को आज्ञा दी ……..राजवैद्य को बुलाओ ।
महारानी नें बुलाया था आनें में तनिक भी देरी नही लगाई राजवैद्य नें ।
वायु विकार भी नही है ………….उदर में कोई कृमि भी नही है ………अपच जैसी कोई बात लग नही रही ……नाड़ी देखकर राजवैद्य बता रहे थे ………..पर इनकी उदर पीड़ा तो बढ़ती ही जा रही है ।
राजवैद्य के समझ में न आनें के बाद भी कुछ औषधि बनाकर दे ही दी ….किन्तु ! कोई लाभ नही ……..समय बीतता जा रहा है ……रुक्मणी नें अन्य रानियों को भी बुलवा लिया है ……..पर वो भी क्या करें !
नारायण ! नारायण ! नारायण !
देवर्षि नारद जी नभ में दिखाई दिए रुक्मणी को…..परेशान रुक्मणी को महल के खुले झरोखे से देवर्षि की “नारायण नारायण” की गूँज सुनाई दी थी ।
देवर्षि ! देवर्षि ! पुकारा रुक्मणी नें ।
ऊपर से ही देखा नारद जी नें तो वो तुरन्त उतर आये द्वारिका ।
हाँ, देवी ! आप कुछ परेशान दिखाई दे रही हैं कारण ?
नयन मटकाते हुए देवर्षि पूछ रहे थे ।
आप महल में आइये ना !
रुक्मणी नारद जी को अपनें महल में ले आईँ ।
ओह ! मेरे नाथ ! श्रीकृष्ण को लेटे हुये देखा तो प्रणाम करनें लगे नारद जी ।
पर आप लेटे हुए क्यों हैं ? देवर्षि चंचल तो हैं हीं, पूछ लिया ।
इनके उदर में पीड़ा है……..तो राजवैद्य नही है क्या द्वारिका में ?
पर इनका उपचार राजवैद्य के पास भी नही है ..रुक्मणी दुःखी होकर बोलीं …….फिर किसके पास है ? रुक्मणी के नेत्रों से अश्रु बह चले ………देवर्षि ! मैं प्राण दे दूँगी पर मेरे नाथ ठीक हो जाएँ ……अब इनकी तड़फ़ मुझ से देखी नही जाती ! रुक्मणी देवर्षि के चरण पकड़नें लगी थीं ……….अरे ! ऐसा मत करो ……..मैं कुछ उपाय खोजता हूँ ।
ये कहते हुये नारद जी श्रीकृष्ण के निकट आये ……वो तो बस कराह रहे थे ……….
नाथ ! इसका इलाज क्या है ?
धीरे से पूछा नारद जी नें श्रीकृष्ण से ही ।
“मेरा कोई प्रेमी अगर मुझे अपनें पैरों की धूल दे दे और उस धूल को मैं अपनें उदर में लगा लूँ तो मेरा दर्द ठीक हो जायेगा”………..ये बात सबके सामनें स्पष्ट बोले थे श्रीकृष्ण ।
लो …..इतना सरल उपाय ………..बताओ ! प्रेमी तो सब हैं यहाँ द्वारिका में प्रेमियों की कमी कहाँ ! …….फिर तो कोई भी अपनें पैरों की धूल दे सकता है …….देवर्षि बोले रानियों से ।
फिर कुछ देर बाद ही बोले …….रुक्मणी देवी ! आप तो सबसे बड़ी प्रेमिन हैं श्रीकृष्ण की ……आप ही दे दीजिये !
रुक्मणी कुछ नही बोलीं ………….सत्यभामा से कहा देवर्षि नें …..आप क्यों पीछे हट रही हैं आप दे दीजिये अपनें पैरों की धूल ……..सत्यभामा भी कुछ नही बोलीं ……………रानियों की भरमार है यहाँ पर, पर कोई श्रीकृष्ण के उपचार के लिये आगे नही आरहा !
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –

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