श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! नन्द ग्राम !!
ब्रह्ममुहूर्त में बृजराज जागे ………हाथ जोड़कर अपनें इष्ट भगवान श्रीमन्नारायण का स्मरण किया……..फिर जब उन्होंने अपनें नेत्र खोले, खोल नही सके ……चुंधियाँ गयीं थीं उनकी आँखें ।
मणिमाणिक्य का अद्भुत नगर खड़ा था वहाँ तो !
बृजराज दौड़े बाहर …….चारों ओर देखनें लगे …….बैल गाड़ियों को सजा कर बृजवासी जहाँ जहाँ सोये थे रात्रि में …….वहाँ अब उनके भवन बन गए थे ……भवन भी वैभवशाली !
पथ मणियों से खचित थे ……..चारों ओर अचम्भित होकर बृजराज अपनें इस अद्भुत नगर को देख रहे हैं ।
आगे और बढ़े बृजराज…….तो वहाँ देखा कोषागार बनकर तैयार है ……..दूसरी ओर वन वाटिका दिव्य है…….जिसमें अनेकानेक पुष्प खिले हैं ……उन पुष्पों की सुगन्ध बड़ी मादक है ।
चारों ओर देख रहे हैं घूम घूम कर नन्द जी ।
ये क्या हो गया था ? कल की रात ही तो आये थे यहाँ पर ……….भोजन किया और यात्रा में श्रमित होनें के कारण सब सो गए थे .और बैल गाड़ियों को सजाकर ही सोये थे ……….फिर एक रात में ही ये नगर खड़ा हो गया !
भक्त किसी को क्यों श्रेय दे ………उनका तो सब कुछ इष्ट ही है …….तो नन्दमहाराज नें भी भगवान मन्नारायण को ही प्रणाम किया ……..नेत्रों से झरझर अश्रु बह चले थे नन्द महाराज के …………….
किसी के हाथों नें बृजराज के आँसुओं को पोंछा …………
मुड़कर जब देखा तो पीछे महर्षि शाण्डिल्य थे ।
तुरन्त चरणों में प्रणाम किया नन्द महाराज नें …..ये सब क्या है ?
“नन्द ग्राम”………हाँ …..इसका नाम यही ठीक है ।
महर्षि नें नन्द महाराज को क्षेत्र का नामकरण करके भी बता दिया था ।
वृन्दावन की राजधानी होगी ये नंदग्राम ।
नम्रता की मूर्ति नन्द महाराज नें हाथ जोड़कर पूछा……..महर्षि ! पर एक रात्रि में इतनें सुन्दर और अद्भुत नगर का निर्माण किसनें किया होगा ?
“देवशिल्पी विश्वकर्मा नें”………महर्षि नें नन्दमहाराज को बताया ।
समस्त देव, समस्त तीर्थ, समस्त सिद्धात्माओं नें अब वृन्दावन में अपना डेरा डाल लिया था ………और क्यों न डालें ……….साक्षात् परब्रह्म श्रीकृष्ण चन्द्र जु नें इस स्थान का चयन जो किया अपनें आवास के लिये ।……..देव, यक्ष, किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व सब वृन्दावन में ही आगये थे ……..।
देवशिल्पी विश्वकर्मा को सूर्यदेव नें आज्ञा दी थी कि ………आपको तुरन्त जाकर वृन्दावन में एक नगर का निर्माण करना है ।
मुझे क्या मिलेगा ? शिल्पी अपना पारिश्रमिक तो लेंगे ही ।
हँसे थे भगवान भास्कर ……….हे विश्वकर्मा ! साकार परब्रह्म के महल का निर्माण करना है तुम्हे …….और उनके निज परिकरों का भवन निर्माण ……….ये सौभाग्य तुमको प्राप्त हो रहा है ……..धन्यता आजायेगी तुम्हारे जीवन में ………कृतकृत्य हो जाओगे श्रीकृष्ण चन्द्र जु के नगर को बनाकर ……….और क्या पारिश्रमिक चाहिये तुम्हे विश्वकर्मा ?
सिर झुकाकर प्रणाम किया था विश्वकर्मा नें , भगवान भास्कर को ।
ये तो मेरे ऊपर विशेष कृपा हुयी है ……….आपनें मुझे स्मरण किया मैं धन्य हो गया ……….
हे भगवान भास्कर ! अब मैं जा रहा हूँ ……….और ब्रह्म मुहूर्त तक में वो नगर बनकर तैयार हो जाएगा ……..बस श्रीकृष्ण चन्द्र जु की कृपा मेरे पर बनी रहे…….इतना कहकर भगवान भास्कर को प्रणाम करके विश्वकर्मा चले आये थे वृन्दावन ।
बृजवासी सो गए थे शीघ्र ही रात्रि में……..थके भी तो थे ………यहाँ तक की रक्षक, द्वारपाल तक सो गए थे……..किसी को कोई सुध नही थी …….वृन्दावन में निश्चिन्त हो गए ये लोग ।
अकेले कहाँ आये थे विश्वकर्मा, साथ में शताधिक शिल्पियों को भी ले आये थे……..सबके पास मणि माणिक्य थे …..और अपार थे ।
बस देखते ही देखते शिल्पियों नें अपनें काम करनें शुरू कर दिए …….
महल बनाये …….महल नन्दनन्दन के लिये था ………..इसलिये अपनी सारी कारीगरी निचोड़ दी विश्वकर्मा नें नन्द महल में ।
महल के आस पास सरोवर होनें ही चाहियें …………कुबेर नें अपनें यक्षों को आदेश दिया था कि सुन्दर सुन्दर सरोवरों का निर्माण कर दो ।
यक्ष सरोवरों के निर्माण में लग गए थे ।
नगर का निर्माण हुआ ……मार्ग बनाये गये ….चौराहों के मध्य में नाचते हुए मोर , शुक के जोड़े….कूदते कपि, …… ये सब बना दिए थे ……दूर से देखनें में ये सब वास्तविक जैसे लगते थे ।
भवन बृजवासियों का अतिसुन्दर बनाया गया था …………
यमुना के घाट मणिमाणिक्य से भर दिए थे ……अवनी में मणि खचित करके रख दिए थे……..गौओं के लिये गौशाला अद्भुत बना दी गयी थी ………..
क्या वर्णन करूँ मैं उस नन्दग्राम का तात !
विश्वकर्मा नें जिस श्रद्धा से , और पूरी निष्ठा से इस नगर का निर्माण किया था …….वह अद्वितीय रचना थी ।
उद्धव नें विदुर जी से कहा ।
नन्द महाराज ! महाराज बृजराज ! आपकी जय हो , जय हो !
महर्षि शाण्डिल्य नन्द महाराज से चर्चा कर ही रहे थे कि रात्रि में कैसे देव शिल्पी विश्वकर्मा नें इस नगर को बनाया …………
तब तक समस्त बृजवासी समाज उठ गया था ………उन्होंनें जब देखा ……दिव्य भवन , ऐसा भवन उनका बना हुआ है ……..जो बड़े बड़े राजा महाराजाओं को भी दुर्लभ है ………तो वो सब नाच उठे थे ……बाहर आये , बाहर की शोभा और अद्भुत थी …………बड़े बड़े राज पथ का निर्माण भी हो चुका था …….नन्द महल की तो बात ही क्या करें ।
ये सब देखकर दौड़ पड़े थे नन्दमहाराज की ओर समस्त बृजवासी ।
हे नन्द महाराज ! हे महाराज बृजराज ! आपकी जय हो …जय हो ।
देवशिल्पी तो एक सामान्य पुन्यजीवी देवता हैं………कृपा तो ये सब मेरे परम इष्ट नारायण भगवान की ही है …..बृजराज नें दृढ़ता से कहा ।
इस बात को सुनकर गदगद् हो गए थे महर्षि ………..सत्य है यही …….परम सत्य है ……..मूल में नारायण ही हैं ….महर्षि बोले ।
“पर नारायण तुम्हारे यहाँ बालक बनकर आये हैं”…..किन्तु ये बात मन ही मन बोले थे महर्षि ।
ग्वालों नें भी महर्षि की बातों को सुना……और भोले बृजवासियों नें भगवान श्री मन्नारायण को सहृदय धन्यवाद दिया ……और वन्दन किया नन्दीश्वर पर्वत के रूप में विराजमान भगवान शंकर जी को ।
इसका नाम आज से होगा ….नन्द ग्राम……महर्षि नें सबको बताया ।
ये वृन्दावन की राजधानी बनी ।🙏
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