!! उद्धव प्रसंग !!
{ प्रेम और विरह – नन्दगाँव में “उद्धव क्यारी” }
भाग-10
ऊधो बिरहा प्रेम करे…
( सूरदास जी )
हरि जी !
पीछे से मुझे आवाज दी… गौरांगी ने ।
मैं कुञ्ज में घूम रहा था… वहाँ के वृक्षों को छू रहा था…
कदम्ब को आज गले लगाकर बहुत रोना आया… और बहुत रोया भी ।
मैं इन दिनों “उद्धव प्रसंग” में ही डूबा हुआ हूँ ।
मुझे उद्धव, मेरी प्यारी मैया यशोदा और पूज्यतम बाबा नन्द ।
बस मेरे दिलो दिमाग में यही सब हैं…
यमुना के किनारे बैठता हूँ… तो बस यही याद आता है कि… “कैसी तड़फ़ देकर चला गया” ।
आँसुओं में भिगोकर चला गया ।
निर्दयी, निष्ठुर ,…
पर नही… निकुञ्ज से इस धरा धाम पर लीला करने के लिए ये कृष्ण और “कृष्ण प्रेमी परिकर” एकत्रित हुआ… तो मात्र संयोग की लीला… मिलन की लीला मात्र करने के लिए नही ।
उस उच्च विरह का दर्शन कराने भी…क्यों कि विरह में ही तो प्रेम प्रकट होता है… ।
विरह से जब सूक्ष्म देह जल जाता है… मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार जल गया… तब प्रेम का प्राकट्य होता है ।
मन का मैल कैसे साफ़ होगा… बिना विरह की अग्नि के ?
प्रेम के अंकुर को सींचने के लिए जल तो दोगे ना !…
बस विरह के जो अश्रु हैं… वही प्रेम की पौध को बढ़ाते रहते हैं ।
उफ़ ! विरह की वेदना मधुर है यार !…
हमें आँसू और तड़फ़ ही दीखते हैं… प्रेमियों के… पर उसमें छुपा रस और आनंद नही दिखाई देता… ।
अरे ! कभी तड़फे नही हो ना…किसी की याद में…इसलिये !
कभी जी भर के रोये नही हो ना… किसी की याद में… इसलिये !
ओह ! विरही के रुदन को ये संसारी क्या जानें ?
जो रोज बॉय फ़्रेन्ड और गर्ल फ़्रेन्ड चेंज करते हों… वो इस “उद्धव प्रसंग” से दूर रहें वही अच्छा है… समझ में नही आएगी तुम्हारे ।
हरि जी !…
कुञ्ज में, मैं खोया था… विरह में…
तभी पीछे से आकर गौरांगी ने मुझे छू लिया ।
क्या लिखते हो यार ! कलेजा चीर के रख देते हो !
“उद्धव प्रसंग” विलक्षण है…
गौरांगी ने मेरा हाथ पकड़े ही… ये सब कहा ।
मैंने अपने आँसू पोंछे… क्या बोलता… बस मुस्कुरा दिया ।
हरि जी ! चलो… नन्द गाँव चलो… वहाँ उसी जगह बैठेंगे… जहाँ उद्धव जी बैठे थे… उसी नन्द महल में जायेंगे… जहाँ आपका बाबा नन्द के साथ सम्वाद चल रहा है… ।
आपके साथ उस “उद्धव क्यारी” में आँखें बन्द करके बैठेंगे…
उस भूमि के विरह को आत्मसात् करेंगे।
पगली है ये गौरांगी ! पूरी पगली ।
मेरे पास अभी कार नही है… बनने गयी है… दो दिन और लगेंगे।
मैंने कहा ।
हरि जी ! हम किसी वस्तु के बन्धन में थोड़े ही हैं… कार नही है तो क्या हम नन्दगाँव नही जायेंगे !
पर कैसे जायेंगे ?
टैम्पो से… गौरांगी ने कहा ।
अभी तो सुबह के 8 बज रहे हैं… मैंने घड़ी देखते हुए कहा ।
हाँ… तो चलो… 5 बजे तक आजायेंगे शाम को ।
पर खायेंगे कहाँ ?
अरे ! हरि जी ! आप भी जब इस ” प्रेम साधना” में चल चुके हो… तो क्या खाने की परवाह करते हो… अरे ! जिसके यहाँ जा रहे हैं… वो खिलायेगा ना… ।
चलो !… मैं चल दिया उसके साथ ।
एक टेैम्पो पकड़ा गौरांगी ने… हम दोनों उसमें बैठे… और भी यात्री थे… दो जगह टैंपो चेंज करते हुए… हम पहुँच गए थे 10 बजे तक नन्द गाँव ।
और गौरांगी सीधे नन्द गाँव में जो “उद्धव क्यारी” है… वहीं मुझे ले गयी थी ।
ओह ! जाते ही मैंने उस भूमि को साष्टांग प्रणाम किया…
फिर वहीं बैठ गए… ध्यान करते हुए ।
श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं !
अपनी बात फिर दूसरी बार उद्धव ने शुरू की थी ।
हाँ… नन्द बाबा के सामने अब यही कहूँगा… बार बार यही दोहराऊंगा… कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं ।
ऐसा मैं कहूँगा तो नन्द बाबा का वात्सल्य कुछ तो शिथिल होगा ।
और वात्सल्य शिथिल हुआ तो रोना विरह ये कुछ तो कम होगा ही ।
और उद्धव देख चुके हैं… कि जब जब उद्धव कहते हैं कृष्ण भगवान हैं… तब तब नन्द बाबा की आँखें बहनी बन्द हो जाती थीं ।
कृष्ण नारायण है… आप कृष्ण को साधारण न मानें…
विश्व में जितनी श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं… उसके मूल में नारायण ही हैं ।
हे पितृ नन्द राय ! श्री कृष्ण इस अखिल विश्व के बीज हैं… और नही नही बीज ही नही… योनि भी हैं… उद्धव हँसे… कितनी विचित्र बात हैं ना… नन्द बाबा !…
पर उद्धव की बातें सुनकर नन्द बाबा शान्त ही रहे ।
पर उद्धव को लगा कि चलो मेरे ये कहने से… आँखों के आँसू कुछ तो सूखे ।
पर उद्धव अब रुके नही… बोलते जा रहे हैं… जैसे घड़े का बीज है कुम्हार… और योनि है मिट्टी ।
बीज अलग अलग हैं… योनि भी अलग अलग है…
पर आश्चर्य ! नारायण स्वयं बीज हैं और योनि भी स्वयं हैं…
इसको हम ज्ञानी लोग… निमित्त कारण और उपादान कारण कहते हैं ।
हे नन्द राय ! समस्त विश्व में जो कुछ भी है… वह सब कृष्ण की विभूति ही हैं… इस बात को समझिये ।
समस्त जीवों में वही कृष्ण अन्तर्यामी आत्मतत्व के रूप में विद्यमान है…पर हम सबमें होने के बाद भी… वह हम सबसे परे भी है ।
हम सब माया के बन्धन में बन्धे हैं… पर वो कृष्ण इस माया का पति है… इस बात को हमें नही भूलना चाहिये ।
नन्द बाबा आश्चर्य चकित होकर उद्धव की बातें सुन रहे हैं ।
थोड़ी देर चुप रहे उद्धव… फिर श्रोता नन्द राय का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया… कि वक्ता की बातें श्रोता समझ रहा है कि नही !
फिर उद्धव आगे बोलने लगे… हे पिता नन्द राय ! आप जो विरह से व्याकुल हो रहे हैं कृष्ण के लिए… रो रहे हैं… विलाप कर रहे हैं… इसलिये कि आपको – कृष्ण क्या हैं… यही पता नही है !
आपको जब ये पता चल जाएगा कि कृष्ण क्या है… तो आपका मोह शोक सब समाप्त हो जाएगा ।
आप से मैं पूछता हूँ… नन्द राय ! विरह कहाँ से प्रकट होता है ?
नन्द बाबा उद्धव को ऐसे देख रहे हैं… जैसे कोई पिता अपनी तोतली भाषा में बोलते हुये बालक को देखता है ।
विरह प्रकट होता है… अभाव से… जब आपको किसी का अभाव महसूस होने लगता है… तब विरह प्रकट होता है… है ना ?
पर कृष्ण का अभाव कहाँ है ?
कृष्ण तो सर्वत्र है… और सर्वदा है… हर जगह है… और हर समय है… फिर उसका अभाव कहाँ हुआ… और जब अभाव ही नही है… तो विरह कैसे सम्भव है… ?
हे नन्द राय ! कृष्ण को अपना पुत्र मानने के कारण ही… आपको शोक हो रहा है… ।
कृष्ण जब ईश्वर है… तो उसके कोई माता-पिता कैसे हो सकते हैं ?
ना ! नन्द राय ! ना… उसके कोई माता-पिता नही हैं… न उसके भाई हैं… न पत्नी… ये सब मायिक सम्बन्ध हैं… ।
इतना बोलकर उद्धव चुप हो गए ।
ये देखो !… अरे ! गौरांगी ! देख ! उद्धव ने कितना सुंदर ज्ञान का चित्र खींचकर नन्द बाबा और यशोदा को दिखाया है ।
मैं ध्यान में ये सब देख रहा था… मैंने गौरांगी को ये सब कहा ।
गौरांगी हँसी… पर उद्धव जानता नही हैं… नंदबाबा और यशोदा अन्धे हैं… हरि जी ! संसार के लोग भोग विलास के लिए अन्धे हैं पर ये बृज के लोग प्रेम वश अन्धे हैं… ।
धन्य है ऐसा अंधापन… और धिक्कार है उन आँखों को… जो हर जगह भोग और विलासिता को ही देखते हैं ।
गौरांगी ने कहा ।
हरि जी ! देखो !…नन्द बाबा कुछ कह रहे हैं उद्धव से…
गौरांगी ने मुझ से कहा ।
…और मैं फिर उसी लीला को देखने लगा था… साधकों ! हम दोनों की आँखें बन्द थीं… पर आश्चर्य ! वही लीला हम दोनों देख रहे थे… और उससे भी परमाश्चर्य ये था कि… सम्वाद भी हम दोनों को एक ही सुनाई दे रहे थे… ।
तुमनें अच्छा प्रयास किया… हमें सांत्वना देने का उद्धव !
नन्द बाबा ने कहा ।
तुमको मैंने जितना समझा… उसके आधार पर मैं ये कह सकता हूँ कि… सत्य को जानने के लिये… ज्ञान के आलोक से ही सत्य का दर्शन हो सकता है… ठीक है ।
पर उद्धव ! कई वस्तुएँ अन्धकार में ही दिखती हैं !
आकाश में चन्द्रमा को देखना हो… तो अन्धकार ही चाहिए… है ना ?
अगर हम जैसे किसी व्यक्ति का ये व्रत हो कि जीवन भर अपने प्यारे चन्द्रमा को ही निहारेंगे… तो इस व्रत को निभाने में बड़ी मुश्किल आएगी तब… जब सूर्य का आलोक फ़ैल जाएगा… ।
उद्धव ! हम लोग तो “कृष्ण हमारा है” इस भावना रूपी चन्द्रमा को टकटकी लगाकर देख रहे थे… पर तुमने ये कैसा ज्ञान का आलोक फैला दिया… इससे तो हमारा व्रत ही खण्डित हो रहा है उद्धव !
नन्द बाबा ने कहा ।
उद्धव ! तुमने मेरे सन्मुख भगवत्त्व की बातें की… सही कहा तुमने ।
मैं कोई शास्त्र पढ़ा हुआ व्यक्ति नही हूँ… पर उद्धव ! इतना अवश्य जानता हूँ कि… भगवान ही जगद्गुरु हैं… जगतनियन्ता हैं ।
वे ही सबके मूल कारण हैं… वे अनादि हैं… अजन्मा हैं… और वे ही मेरे घर में शालिग्राम के रूप में विराजमान हैं ।
पर उद्धव ! तुम इतना ही बोलकर चुप नही हुए… तुमने तो ये भी कह दिया कि मेरा कृष्ण ही भगवान है !
नारायण ही मेरा गोपाल है ..।…
हँसे नन्द जी…
नारायण सत्य स्वरूप है… मेरा बेटा तो झूठ भी बोलता है ।
नारायण भगवान शान्त हैं… पर मेरा पुत्र तो अशान्त, चंचल है ।
नारायण प्रणम्य हैं… पर कृष्ण तो मेरी पादुका अपने सिर में लेकर घूमता रहता है ।
उद्धव ये बातें सुनकर चकित हो जाते हैं… जब नन्द बाबा ने ये कहा कि… ईश्वर होगा तो तुम मथुरा वासियों के लिए होगा हमारे लिये नही ।
कुछ समय चुप रहे… नन्द बाबा… यशोदा तो मूर्छित ही हैं ।
फिर बोले… उद्धव ! अगर तुम्हारी बातें हम मान भी लें… कि कृष्ण ईश्वर है… तो भी मेरा विरह तुमने और बढ़ा ही दिया ।
क्यों कि पहले तो मेरे मन में कभी कभी आता था कि… पुत्र के प्रति हमारा ये रोना धोना मोह है… पर तुमने ये नारायण बता कर तो… ।
पहले हम सोचते थे… हमने अपना पुत्र ही खोया है… पर ये क्या ! अब तो हमें लग रहा है… हमने भगवान को खो दिया ! ओह !
नन्द राय इतना कहते हुए… जोर जोर से रोने लगे थे ।
यशोदा ने सुना…अपने पति के पास में आयीं… क्या हुआ जी !
क्या अपना कृष्ण फिर कालीदह में कूद गया ?
नही… यशोदा ! इस उद्धव ने हमें अभी कहा… कि कृष्ण भगवान है… ओह ! यशोदा ! हम तो यही सोचकर रो रहे थे कि काँच को खो दिया…पर हमें क्या पता था… हमने तो हीरा गंवा दिया ।
हिलकियाँ छूट गयीं नन्द बाबा की…
यशोदा का तो वक्ष भींग गया है… कृष्ण को याद करते हुए… वो अपने ही अंक में कृष्ण को महसूस करने लग जाती हैं ।
उद्धव के भी आँसू बहने लगे थे… ये क्या हो रहा है…
उठे उद्धव…अपने आँसू पोंछे… ब्रह्म मुहूर्त का समय हो गया है…
पूरी रात ऐसे ही कृष्ण चर्चा में बीत गयी थी… इन लोगों की ।
3 बज गए हैं… चलो…
मैंने ही ध्यान से उठाया गौरांगी को… आँसुओं की धार से… उसके गोरे कपोल में काजल की काली पतली रेख बन गयी थी ।
उठी गौरांगी…
सामने एक बृजवासन कुछ रोटी… बथुआ की साग… और बथुआ का ही रायता… और गुड़ ।
ये लेकर आगयी थी… ।
तुम दोनों बहुत देर से बैठे हो… ध्यान करके भाव में खोय गए थे ।
तुम लोगों ने कुछ खाया भी नही है… चलो खा लो ।
मैंने गौरांगी को देखा… उसने मुझे ।
बिना कुछ बोले… हम दोनों… उद्धव नंदबाबा और मैया यशोदा के सान्निध्य में बैठ कर… उस ब्रिजबासन के हाथ की रोटी… साग, रायता और गुड़ बड़े प्रेम से खाया ।
हाँ… नन्द गाँव में ही… उद्धव क्यारी के पास ही… बड़े सिद्ध महात्मा हुए…श्री बालकृष्ण दास जी ।
ये यही रहते थे… यहीं बैठकर भजन साधना किया…
और कृष्ण के साक्षात् दर्शन भी इन्हें हुए ।
हम जब उनकी गुफा में गए… तब हमें एक बात और आश्चर्य जनक सुनाई दी… कि तीन बार कृष्ण भगवान इनको दर्शन देने के लिए आये थे…बाल कृष्ण दास जी को… तब तीनों ही बार… कृष्ण को लौटा दिया था इन सन्त ने… ये कहकर कि… मेरे पिता नन्द बाबा को तुमने बहुत कष्ट दिया है… मेरी प्यारी मैया यशोदा को बहुत कष्ट दिया है… गोपियों को… वृषभान नन्दिनी को… जाओ मैं दर्शन नही करूँगा तुम्हारे ।
साधकों ! उस स्थान में बैठकर हम लोग बहुत रोये… क्या भाव की उच्चावस्था है… ।
तब कहते हैं… चौथी बार में… कृष्ण ने समझाया… बालकृष्ण दास जी को…
विरह को कौन त्यागना चाहता है… जो सच्चा प्रेमी होगा… वो विरह को ही स्वीकार करेगा… क्यों कि विरह में हर क्षण हर पल हर साँसों में… प्रेमी के ही दर्शन होते रहते हैं ।
मिलन में तो मात्र आँखें देखती हैं… पर विरह में तो सम्पूर्ण अन्तःकरण प्रियतममय हो जाता है… अब इसे विरह कहोगे ?
भिन्न होते हुए भी अभिन्नता का भान… ये विरह में ही सम्भव है ।
मिलन तो हम लोगों का निरन्तर है ही… हम लोग अलग ही कहाँ हैं ।
निकुञ्ज में… मिलन की लीला अनादि काल से… अबाध गति से चल ही रही है… पर ये इस धरती की लीला है… जिसमें मुझे इन अपने प्रेमियों के प्रेम को जगत में प्रकाशित करना है…
इस स्वार्थी जगत को मुझे दिखाना था… कि ..प्रेम कैसा होता है ।
इतना कहते हुए श्री कृष्ण… बालकृष्ण दास जी को अपने अंक में भर रहे थे ।
चलो उठो गौरांगी… शाम के 5 बज रहे हैं… कार भी नही है साथ में । मैंने कहा ..गौरांगी से… और हम दोनों चल पड़े थे ।
एक सज्जन वृन्दावन आरहे थे… उन्होंने हमें आग्रह करके अपनी कार में बैठाया… और हमें वृन्दावन में छोड़ दिया था ।
घर वाले मेरे पर बहुत नाराज थे… मोबाइल भी नही ले गया था ।
पर ये बात मुख्य नही है… मुख्य है… मैंने जो वहाँ पाया ।
हाँ… गौरांगी ने… उद्धव क्यारी में…एक बड़ा सुंदर पद सुनाया था ।
सखी ! क्या कहा ? तनिक फिर तो कह, फिर मृदु गिरा सुनूँ तेरी ,
सहसा बधिर हो गयी हूँ मैं, मिटा मनोज्वाला मेरी ।
पावेगा यह दग्ध हृदय क्या फिर वह रत्न महा अभिराम,
हा हा ! पैरों पड़ती हूँ मैं, सच कह फिर आवेंगे श्याम ?
शेष चर्चा कल…
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877