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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 117 !!
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हे ललिता सखी जू !
प्रेम, दो से एक बननें की विलक्षण लीला का नाम है ।
मुझे निकुञ्ज की उसी लीला का दर्शन करना है ।
हँसी ललिता सखी ………..अर्जुन ! ये सम्भव नही है ।
क्यों सम्भव नही है ? आप चाहें कुछ भी कर सकती हैं ……..
अर्जुन नें प्रार्थना की ।
पर……..निकुञ्ज में पुरुष का प्रवेश नही है……वहाँ मात्र “सखी भाव” से भावित जीव ही जा सकता है ।
क्यों की विशुद्ध प्रेम में ……….अहंकार पूर्णतः प्रतिबंधित है ।
अर्जुन ! गोलोक के दर्शन कर लिए तुमनें …………कुञ्ज , जहाँ बड़े बड़े सिद्धात्माओं का भी प्रवेश नही है ………वहाँ के दर्शन भी तुमनें कर लिए…….ये बहुत बड़ी बात है पार्थ ! ललिता सखी नें समझाया ।
नही ………..मुझे विशुद्ध प्रेम के उस लोक का दर्शन करना है ………जहाँ “सुरतसुख” में निरन्तर अपनें आपको देखते हुए भी अघाते नही हैं वो परब्रह्म………अनादिकाल से ……..ये लीला चल ही रही है ।
चरणों में गिर गए अर्जुन…………ललिता जू ! आप कृपा करें ।
क्या पुरुष भाव को त्याग सकते हो ? ललिता सखी नें पूछा ।
मैं उस प्रेमलोक “निकुञ्ज” का दर्शन करनें के लिये …….कुछ भी कर सकता हूँ ……अर्जुन नें कहा ।
मुझे अच्छा लगा अर्जुन ! तुम समझते हो प्रेम को……..और क्यों नही समझोगे, वासुदेव के सखा हो तुम………अर्जुन ! प्रेम को पानें के लिये……..अगर अपनें प्राण भी न्यौछावर करनें पड़ें ……तो भी सस्ता सौदा हुआ …….बहुत सस्ता । क्यों की प्राण देने पर भी प्रेम कहाँ मिलता है ?
अर्जुन ! तुम चलो मेरे साथ………..ललिता सखी नें अर्जुन का हाथ पकड़ा………..
कहाँ ? अर्जुन नें एक बार पूछा था ।
डर लग रहा है ? हँसी ललिता सखी ।
आपनें मुझे सम्भाला है ……फिर काहे का डर ! अर्जुन सहज हुए ।
सीढियाँ उतर रही थीं ललिता सखी, अर्जुन का हाथ पकड़े हुए ।
इस सरोवर को “मानसरोवर” कहते हैं ……भगवान शंकर भी इसी सरोवर में स्नान करते हुए गोपीश्वर बने थे ……तभी उन्हें महारास का दर्शन प्राप्त हुआ था ………..इतना कहते हुये अर्जुन की ओर देखा ललिता सखी नें ……………चलें ? एक बार फिर पूछा ………..
अर्जुन नें जब “हाँ” कहा……….तब ललिता सखी नें प्रवेश किया था मानसरोवर में ………अर्जुन के साथ ………………..
पर कुछ ही क्षण में…………….जब ललिता सखी निकलीं सरोवर से बाहर ………तब उनके साथ अर्जुन जो थे ……….वो अत्यन्त सुन्दर “सखी” बन गए थे……..सखीरुपा अर्जुन प्रेम में भींगें, बाहर आये ।
अर्जुन को अपनें हृदय से लगाया ललिता सखी नें …………..
चलो ! अब अधिकारी हो गए हो तुम निकुञ्ज के ……….इतना कहते हुए ललिता सखी फिर अर्जुन का हाथ पकड़ कर चल पडीं थीं ।
हे वज्रनाभ ! ये प्रेम का पन्थ है……..दिव्य है ये प्रेम की लीला ।
पर महर्षि ! आपनें कहा ………..कि अर्जुन को उन सखी नें बताया कि गोलोक पृथ्वी में गोकुल या नन्दगाँव के रूप में है ……….फिर ये “निकुञ्ज” पृथ्वी में किस रूप में है ?
.वृन्दावन के रूप में ………वैसे निकुञ्ज को ही वृन्दावन या “नित्य वृन्दावन” या “महावृन्दावन” भी कहा गया है ।
महर्षि नें समाधान किया था ।
क्रमशः…
शेष चरित्र कल –
🌷 राधे राधे🌷

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