!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 76 !!
आओ, प्रेम की सृष्टि में प्रवेश करें..
भाग 3
इस स्थिति में प्रेमी को ऐसा लगनें लगता है कि ……मेरे प्रियतम ही सर्वत्र हैं …… आकाश में मेरा प्यारा है ……चन्द्रमा में मेरा प्रिय है …..इन फूलों में वही मुस्कुरा रहा है……फूलों में भँवरे के रूप में मेरा प्रिय ही है…….जल , थल , नभ सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखाई देता है ……इतना ही नही ……..वो प्रेमी बादलों से ……पक्षियों से ……चन्द्रमा से…..बातें करनें लगता है……रूठता भी है फिर स्वयं मनाता भी है…….इसी का नाम है “दिव्योन्माद” , महर्षि बोले ।
मैं तुम्हे अब जो प्रसंग सुनानें जा रहा हूँ वज्रनाभ ! ये उसकी ही भूमिका है…..ये एक गीत है…..जो प्रेम की उच्च अवस्था में गाया गया है ।
उद्धव देख रहे हैं –
श्रीराधा रानी उद्धव से चर्चा करते हुये मूर्छित हो गयी हैं ।
सब सखियाँ पँखा करनें लगी थीं……कोई जल का छींटा दे रही थी…..
पसीनें उस गौर अंग से निकल रहे थे……सुगन्ध फैलनें लगी थी वृन्दावन में……श्रीराधा के स्वेद से सुगन्ध निकल रहा था ।
उद्धव कुछ समझ नही पा रहे …….इतनी दिव्य सुगन्ध !
तभी उद्धव नें देखा……गुनगुन करता हुआ एक भँवरा आया……
दूर से आया था……सुगन्ध सूंघकर ही आया था….कमल के पराग का रस लेनें वाला ये भँवरा……..श्रीराधा के पसीनें से कमल की सुगन्ध ही तो आरही थी……..आगया था उड़ते हुए …….सूँघनें लगा था श्रीराधारानी के चरणों को बारबार ।
उस भँवरे के स्पर्श से श्रीराधा की मूर्च्छा टूटी थी……
उठकर बैठ गयीं………फिर ध्यान से देखनें लगीं……..
फिर हँसी ……….ओये ! .कपटी के मित्र ! भँवरे को कहा ।
हट्ट ! जा यहाँ से ……….चिल्ला पडीं थीं श्रीराधा रानी ।
इस प्रसंग को “भ्रमर गीत” कहते हैं वज्रनाभ !
उद्धव के कुछ समझ में नही आरहा ………कि ये कैसा उन्माद ?
महर्षि शाण्डिल्य प्रेम रस में डूब कर इस प्रसंग को बता रहे थे ।
शेष चरित्र कल –


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