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July 20, 2025 10:31 pm

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श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 30-( वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति)-: Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 30-( वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति)-: Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 30

( वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति)

एक अच्छे साधक हैं आंध्रप्रदेश के ….उन्होंने मुझे लाकर एक दाक्षिणात्य विद्वान द्वारा लिखी गयी भागवत की टीका दी ….मात्र श्रीकृष्ण चरित्र का उसमें वर्णन था । मेरे जीवन का व्यसन यही है…..मेरी कमी-कमजोरी अब यही बन गयी है …कि इन युगल की लीलाओं को गा गा कर इस जीवन को बिताऊँ । मैंने उस लघु भागवत , जिसमें मात्र श्रीकृष्ण चरित्र था …एक घड़ी में ही उसे पढ़कर पूरा कर लिया था । साधकों ! एक बात उसमें विचित्र लिखी थी ….कि देवकी माता को छोड़कर उनके पुत्र श्रीकृष्ण कहीं नही गए ….वो कारागार में ही रहे । उसमें बड़ा सुन्दर वर्णन था कि देवकी माता कारागार में ही अपने आँचल में छुपा कर अपने बाल कृष्ण को रखती थीं ….लेखक महाशय का कहना था कि देवकी माता को छोड़कर अगर श्रीकृष्ण कहीं , गोकुल भी चले जाते तो क्या देवकी माता जीवित रह पातीं ! तो यशोदा के यहाँ जो गये थे वो ? समाधान ये दिया है उस ग्रन्थ में कि ….देवकी नन्दन श्रीकृष्ण तो कारागार में ही रहे …किन्तु एक रूप नन्दनन्दन के रूप में गोकुल गये …फिर समय होने पर मथुरा में लौट आये और वो नन्दनन्दन फिर देवकी नन्दन में समा गये ।

मैंने पढ़ा …..कुछ चिन्तन चला । क्या ये कथा झूठी है ? मेरे मन ने प्रश्न किया । गुरुतत्व ने समझाया …कि भगवान की कथा चाहे तुम अपनी भावना के आधार पर कह रहे हो …यानि अपनी कल्पना के आधार पर , फिर भी झूठी नही है । क्यों की श्रीकृष्ण मात्र पाँच हज़ार वर्ष पूर्व की घटना नही हैं ….ये तो उससे पहले भी थे ….और अनन्त बार श्रीकृष्ण का अवतार हुआ है …अनन्त ब्रह्माण्ड में अभी भी कहीं ना कहीं उनकी लीला चल ही रही है । और आपकी कल्पना ने जिस लीला गान किया है …वो लीला कभी न कभी भगवान ने की ही होगी ।

मैं तो यशोदा मैया का पक्षधर हूँ …..मुझे देवकी नन्दन से ज़्यादा प्रिय यशोदानन्दन हैं । मुझे राज वेश की अपेक्षा उनका गोपाल भेष ही प्रिय है । उनके वाम भाग में मुझे अपनी लाड़ली को ही देखना प्रिय है …कुब्जा या रुक्मणी नहीं । अब इसमें मैं सही गलत हो सकता हूँ ….भेद खड़ा कर रहा हूँ ….किन्तु ये है तो है ….अब मेरा भी इसमें कोई वश नही है …मैं क्या करूँ ? मुझे वृन्दावन बिहारी से ही प्यार है , मथुराधीश या द्वारिकाधीश से नहीं ।

मैं भी मीरा बाई जी की तरह कहता हूँ ….”हमारौ मुरली वारौ श्याम” ।

देवकी माता के साथ कारागार में श्रीकृष्ण रहे ….अगर ये किसी कल्प में हो सकता है …तो किसी कल्प में ये भी हुआ होगा …कि श्रीकृष्ण लौट आये मथुरा से ही श्रीवृन्दावन । फिर द्वारिका की लीला ? अरे भई ! वो पूर्ण ब्रह्म हैं ….एक सामान्य योगी स्वामी योगानन्द जब ये लिख सकते हैं कि मेरे गुरुदेव महावतार बाबा जी एक साथ पचास रूपों में दिखाई देते थे….तो भैया ! श्रीशुकदेव जी तो कहते ही हैं ….श्रीकृष्ण तो योगियों कि ईश्वरों का भी बाप है ….फिर ये दो रूपों में लीला कर दें ….तो इसमें आश्चर्य क्या ?

“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” ……ये मेरा अपने जनों से खुल्लम खुल्ला पक्षपात है । प्रेम पक्षपात करता ही है ….मेरी स्वामिनी श्रीराधा रानी हैं …और श्रीकृष्ण भी मुझे वही प्रिय हैं …जो मेरी श्रीराधा के साथ रहें ….बस …इसी के चलते इस लघुनाटिका “श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” का लेखन आरम्भ हुआ ….लिखाया , श्याम सुन्दर ने ही लिखाया है ….इसलिये उन्हीं को समर्पित ….लिखते हुए मैं बहुत रोया हूँ । मेरे बृज रसिकों ने ये बात डिमडिम घोष करते हुये कही है …..कि “वृन्दावनं परित्यज्य पाद मेकं न गच्छती”….यानि श्रीवृन्दावन को छोड़कर एक पद भी आगे नही बढ़ते हैं श्रीकृष्ण । अब वो यहीं हैं ….हाँ , वो नही गये मथुरा या द्वारिका ।

अब आज , आप इस लघुनाटिका “ श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” का अन्तिम अध्याय पढ़ें ।

                                                                                   हरिशरण 

गतांक से आगे –

ललिता अर्धरात्रि में श्रीवृन्दावन प्रवेश करती हैं….उसे रोना आरहा है …..रोते हुये वो यही सोच रही है ….कि मैं कैसे सान्त्वना दूँगी अपनी स्वामिनी को ! फिर मन में आता है ….क्या पता श्याम सुन्दर आजाएँ । रोते हुए हंसती है ललिता ….पागल बनाया श्याम ने तुझे ….वो नही आयेंगे ।

उनके सामने ललिता है तो वो ललिता के होकर बतियाते हैं और उनके सामने कुब्जा हो तो उससे भी …..वो सम हैं ….ललिता गम्भीर हो जाती है । तो सम को प्रेम करने की आवश्यकता क्या थी ? हमारी फूलों सी कोमल श्रीराधिका की कैसी दशा बना दी है । ललिता का देह अब थक गया है ….वो चली कहाँ है ….दिन भर वो वृन्दावन की सीमा में ही तो बैठी रही थी , किन्तु थक गया है उसका देह , वो अब टूट गयी है ….उसको अब पक्का विश्वास हो गया कि ….श्याम सुन्दर अब नही आयेंगे ।

बरसाना की ओर मुड़ चुकी है ललिता ।
कैसे जाऊँ बरसाना ! जाना तो पड़ेगा ….जाना तो है । क्या कहूँगी ? रुक जाती है ललिता ….क्या कहूँ ? और मैं कहूँ कि श्याम सुन्दर नही आए तब क्या लाड़ली के प्राण बचेंगे ? वो जीवित रख पायेंगी अपने शरीर को ? ओह ! ललिता सखी ने देखा सामने ब्रह्माचल पर्वत है …..वहीं स्वामिनी विराजमान हैं ….उचक कर देखती है ललिता ….सब सखियाँ भी वहीं हैं ।

अब नही हिम्मत हो रही …..ललिता बैठ जाती है ….वहीं बैठ जाती है । वो रोने लगती है …चीखने लगती है …वो चिल्लाने लगती है ….श्याम सुन्दर ! वो इसी नाम को चीखकर बोलती है ….क्यों किया ये सब ? क्यों ? नही आना था तो बोल देते ना ? क्यों ये सब झूठ , झूठ पर झूठ ….अब मैं क्या करूँ ? नेत्र लाल हो गए ललिता के ….मुझे उत्तर चाहिये …मुझे बताओ ये ललिता क्या करे ? चिल्लाई ललिता । तभी ……

“ललिता ! तू जा ….जा , और गहवर वन के सघन कुँज में मेरी प्यारी को ले आ”

श्याम सुन्दर !

ललिता के नेत्रों से अब आनन्द-अश्रु बहने लगे ….ओह ! ललिता ने देखा चारों ओर , वृक्ष लता सब हरे हो रहे थे …रात्रि में भी फूल खिल उठे थे ।

ललिता चली , अब इसकी चाल तेज थी ….इसके आनन्द का कोई ठिकाना नही था ।


ललिता आगयी । ललिता आगयी ।

चन्द्रावली ने दूर से देख लिया ।

क्या श्याम सुन्दर उसके साथ हैं ? श्रीराधारानी रंगदेवि की गोद में है ….वो उठने का प्रयास करती हैं ….उठकर बैठ भी जाती हैं ।

बताना चन्द्रावली ! क्या उसके साथ श्याम सुन्दर हैं ? श्रीराधारानी फिर पूछती हैं ।

चन्द्रावली चुप हो जाती है …..

क्या हुआ ? कांपती आवाज में लाड़ली ने फिर पूछा ।

ललिता को अब सब देख रहे हैं उस पहाड़ी से …अकेली आयी है ….ओह ! सब सखियों का हृदय बैठ गया ।

क्या हुआ ? बताओ ना ! मुझे भी तो कुछ बताओ । श्रीराधारानी फिर पूछती हैं ।

ललिता को सब देख रही हैं ……आत्मविश्वास से भरी चल रही है ललिता । चन्द्रावली ने रंगदेवि से कहा ….चाल देखकर तो लगता है कि श्याम सुन्दर को अपने साथ ही लाई है …किन्तु श्याम सुन्दर दिखाई नही दे रहे । ललिता अब चढ़ रही है पहाड़ी में ।

वो पहुँची अपनी स्वामिनी के सामने …….और ।

ललिता ! ( अत्यन्त आतुरता पूर्वक ) बताना मेरे प्राण नाथ कहाँ हैं ? श्रीराधारानी पूछ रही हैं ।

ओह ! देह काला पड़ गया है …..देखने पर लगता है ये जीवित कैसे हैं ।

ललिता ! क्यों चुप है तू ? कुछ तो बोल ।

क्या हुआ तू अपने कार्य में सफल नही हुई क्या ? श्रीराधारानी ने पूछा ।

हे प्रेममयी श्रीराधा ! आपकी जिस पर कृपा हो वह असम्भव को भी सम्भव करके दिखा सकता है …..फिर मेरे ऊपर तो आपकी पूर्ण कृपा है , है ना ? ललिता बोली ।

अब पहेली न बुझा…..बता ना मेरे श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? श्रीराधारानी अधीर हो उठी हैं ….और समस्त सखियाँ भी जानना चाहती हैं …कि कार्य में ललिता सफल हो गयी तो श्याम सुन्दर कहाँ हैं ?

श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? श्रीराधा ने फिर पूछा ।

ललिता सखी ने हाथ पकड़ा श्रीराधारानी का ….मैं उठ नही सकती ललिते ! ललिता बोली …बस उस सामने कुँज तक …..श्रीराधारानी उठीं ….ललिता हाथ पकड़ कर ले गयी, सामने कुँज है ।

( कुँज के भीतर प्रवेश करते ही )

पीताम्बर की फहरान ……ये कौन ? श्रीराधा रानी ने पूछा ।

और तभी वो श्याम सुन्दर मुड़े …….ओह ! ललिते ! ये कौन हैं ? मेरे मनमोहन ! मेरे गिरधर या जल धर ….ये श्याम मेघ तो नही हैं ? या ये कोई नील विद्युत हैं …ये कौन हैं ? श्याम सुन्दर मुस्कुरा रहे हैं …..श्याम सुन्दर को देखते देखते ….श्रीराधारानी का श्रीअंग जो काला पड़ गया था वो वापस गौर हो गया ….केश जटा बन गए थे ….वो सुन्दर वेणी बन गयी ….सुन्दर नीली साड़ी …..चन्द्रमा को भी लज्जित करने वाला अद्भुत वही रूप सौन्दर्य !

श्रीराधारानी अब मुस्कुरा रही हैं ।

अब क्यों इतने दूर खड़े हो प्यारे ! आओ और अपनी प्यारी को हृदय से लगा लो ।

ललिता ही बोली ।

ये सुनते ही श्रीराधा रानी शरमा गयीं …श्याम सुन्दर ने दौड़कर अपनी प्राणप्रिय को हृदय से लगा लिया ….और दोनों के हृदय धीरे धीरे एक हो गये ।

सखियाँ सब आगयीं …सब सखियाँ अब आनन्द के अश्रु बहा रही हैं ।

तभी देखते ही देखते …वो कुँज पुष्पों से भर गया …उस कुँज में नाना प्रकार के पुष्प खिल उठे …उन पुष्पों का सौरभ फैलने लगा श्रीवृन्दावन में । श्रीवृन्दावन महक उठा ।

एक दिव्य सिंहासन प्रकट हो गया ….उस सिंहासन में सखियों ने श्याम सुन्दर को श्रीराधारानी के साथ विराजमान किया । हमारी श्रीकिशोरी जी कितनी सुन्दर लग रही हैं ….हमारी श्रीजी आज कितनी आह्लादित हैं …देखो सखी ! देखो ।

फिर इसी तरह ग्वाल सखाओं के “कन्हैया” भी उनको मिल गये थे …और मैया और बाबा का दुलारा उनके ही पास में ही था । गोपियों का “गोविन्द” उनकी मटकी आज भी फोड़ रहा था ।

सिंहासन में विराजमान युगलवर आज सबको दर्शन दे रहे थे …..तभी –

प्यारे ! अब तो कभी नही जाओगे वृन्दावन छोड़कर ? श्रीजी पूछ रही हैं ।

मुस्कुराते हुए श्याम सुन्दर बोले – मैं वृन्दावन छोड़ता ही नही प्यारी !

फिर ये सब क्या था ? ललिता ने पूछा । लीला ! मेरी लीला । मेरी प्यारी का दिव्य प्रेम इस संसार में प्रकट हो , प्रेम किसे कहते हैं ये संसार जाने …इसलिये ये लीला होती है । श्याम सुन्दर मुस्कुराये …और अपनी प्यारी की ओर देखा …वो अपने प्यारे में डूबी हुई थीं ।

बड़े प्रेम से अब सखियों ने आरती की ….ताकि इस रस भरी जोरी को किसी की नज़र ना लगे ।

साधकों ! लघुनाटिका – “श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” अब यहीं विश्राम लेती है ।

          जय जय श्रीराधे !  जय जय श्रीराधे !  जय जय श्रीराधे !
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