श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 12
*( विरहानल )*
गतांक से आगे –
प्रेम की आँधी जिसके जीवन में आती है वो सुख की आहुति लेती है ।
ये अनल है ….विरहानल, विरह की आग , धधकती आग । इसकी लपटें बहुत ऊँची हैं ….इसी धधकती आग में प्रेमी को चलना है ….ना , चलना नही है नृत्य करना है ….इसकी राख से स्नान करना है ….क्यों क्या सोचा था ….प्रेम में मज़ा है ? ना , ये वो तपस्या है जो बड़े बड़े तपस्वियों के भी वश की बात नही है । जोगी पंचाग्नि तापता है ….किन्तु प्रेमी पंचाग्नि में जीता है ….उसके भीतर ये आग जलती रहती है ….वो उस आग में अपने सुख की आहुति देता हुआ जीता है । ये तड़फ़ता है ….पल पल तड़फ़ता है ….आह भरते हुए इसका दिन गुजरता है ….हृदय बिंध गया है उसमें से रक्त रिसता है …..अजी ! ये राह ही रक्त से भरी है ….चलना है इस राह पर तो काँटे ही काँटे हैं …..सावधान ! पैर सम्भाल कर रखना ! अब “सावधान” कह रहे हो ….इस राह का पथिक कहाँ सावधान होगा ? उसकी सावधानी तो उसी दिन काफ़ूर हो गयी जिस दिन उसका प्रीतम चला गया । सिर पर कफ़न बांध कर चलना । अंधेरा है पथ ..इसलिए किसी विरही को साथ रखना ….उसके जलते हुए हृदय के प्रकाश में तुम चलना ।
आह खींचते चलना , सिसकते , मूर्छित होते , उठते व गिरते चलना । ओ पागल ! राह आसान नही है …इसलिए हिम्मत मत हारना । होश का काम नही है , मदहोश चलना ।
क्या कहा पाँव थक जायें तो ? तो जंघा के बल चलना , जंघा भी घिस जाये तो कमर के बल चलना , कमर में बल आजाए तो पेट के बल चलना । वह भी घिस जाए तो छाती के बल …सुनो ! छाती से भी रक्त बहने लगे तो सिर के बल चलना ….पर लौटना मत ….हाँ अभी घाटी गहरी है …बहुत गहरी है ….पर प्रीतम का उस पार देश है ना ….उसमें आलोक है , प्रकाश है …फिर प्रीतम की बाहों में सुख ही सुख है …उस सुख को हृदय में धारण करके चलना …प्रीतम में परम रस है उस रस की चाह में जीवन को धारण करना , मरना मत ….क्यों की प्रीतम को पाना है । चाहे कुछ भी हो जाये …मुस्कुराना । अश्रु प्रवाह के साथ साथ मुस्कुराना ! क्यों की प्रीतम को वही प्रिय है । ओह !
साँकरी खोर में श्रीराधारानी मूर्छित हो गयीं हैं । मेघ को प्रीतम समझ कर वो मूर्छित हो गयीं ।
सखियों ने सोचा सामान्य मूर्च्छा होगी जो आती रहती है …किन्तु पाँच घड़ी बीतने पर भी जब श्रीराधारानी की मूर्च्छा दूर नही हुयी ….तो सखियों ने ध्यान से जाँचा ….तब श्रीराधारानी की तो साँस ही रुकी पड़ी थी ।
ललिते ! चिल्ला पड़ी विशाखा । ललिता पास के ही कुण्ड से जल लाने गयी थी ….विशाखा इतनी ज़ोर से चिल्लाई कि जल पात्र ललिता का हाथ से गिर गया …काँपने लगी ललिता …अनहोनी की सोच आते ही उसका देह शिथिल होने लगा । किन्तु अपने को सम्भाल कर जल पात्र को उठाकर लम्बी साँस से अपने को सामान्य करने के असफल प्रयास के बाद वो वापस साँकरी खोर आयी । ललिता के हाथ पाँव काँप रहे थे ।
ललिते ! देख ना ! लाड़ली की स्वाँस गति भी ……विशाखा पूरी बात बोल भी नही पाई और रोने लगी …..ललिता ने चारों ओर सखियों को देखा सब रो रही हैं …….फिर डरते हुए अपनी स्वामिनी को देखा वो गौर मुख पीला हो गया है …..ललिता बैठी नीचे ….जल का छींटा दिया मुख पर ….पर कोई लाभ नही । लम्बी साँस लेकर ललिता ने अपने नेत्रों को बन्द किये …..फिर नेत्र खोलकर बोली – लाड़ली के कान में कृष्ण नाम सुनाओ । ये कहते हुए हिलकियों से ललिता रो पड़ी ….जिसने आग लगाई है वही बुझायेगा । सखियों ! सुनाओ ! सब कृष्ण कृष्ण बोलो …और इनके कान में ही बोलो ।
सब बोलने लगीं …..बारी बारी से सब कहने लगीं ….कृष्ण कृष्ण कृष्ण । पर कोई चेतनता आयी हो ऐसा लगा नही …..तो विशाखा आक्रामक होकर बोली ….लाड़ली ! देखो ! सामने मोरमुकुट धारी श्याम सुन्दर खड़े हैं …देखो ! एक बार तो देखो ….अपने नेत्र खोलो स्वामिनी !
ये कहते हुए विशाखा अपना सिर पटकने लगी …….तो उसी समय श्रीराधारानी ने अपने नेत्र खोले ….स्वाँस चल पड़ी ….धड़कने धड़क उठीं …..हर्षित हो गयी सब सखियाँ ।
तुम सब कौन हो ?
श्रीराधारानी ललिता की गोद में हैं …..वो सबको देखती हैं पहचान नही पा रहीं , तो पूछती हैं ।
हे भानु दुलारी ! हम सब तुम्हारी सखियाँ हैं । सखियों ने उत्तर दिया ।
ये सुनकर कुछ सोचने लगीं श्रीराधा ।
क्या आप हम को पहचान नहीं पा रहीं ? विशाखा ने फिर पूछा ।
मैं तुम्हारी गोद में हूँ ….मैं कौन हूँ ? ललिता से श्रीराधा फिर पूछती हैं ।
आप ऐसा मत कहिये …आप हमारी सर्वेश्वरी श्रीराधा हैं । ललिता ने कहा ।
कौन राधा ? फिर ये श्रीराधा का प्रश्न ।
वृषभानु सुता श्रीराधा । कीर्तिकुमारी श्रीराधा । वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा ।
ललिता ने स्पष्ट किया ।
ये मैं कहाँ हूँ ? थोड़ी उठने की कोशिश करती हैं और पूछती हैं ।
ये ब्रह्माचल पर्वत है ….हम इस पर्वत में हैं । ललिता बताती है ।
रात हो रही है …इस तरह पर्वत वन आदि में घूमना उचित नही हैं ….और मैं तो राजकन्या हूँ ना , फिर इस वन में रात्रि में क्यों ?
हम खोज करने आयी थीं यहाँ ? विशाखा को कहना पड़ा । ललिता ने संकेत किया कि मत बता …किन्तु उपाय भी तो कोई नही था ।
किसको खोजने ?
श्रीराधारानी धीरे धीरे उठीं …और फिर पूछा …बताओ ना , किसको खोजने ?
सब सखियों ने विशाखा को सावधानी पूर्वक कहने को कहा …..विशाखा ने भी आह भरी ..लम्बी साँस ली …नेत्रों में अश्रु भर गये ……और कहा – “श्रीकृष्ण को खोजने”।
ओह ! चन्द्रमुखी के मुख में हल्की मुस्कान बिखर गयी थी । वो कहाँ गए जो हम उन्हें खोजने आयी हैं ?
अब तो एक दूसरे का मुख सखियाँ देखने लगीं ……क्या कहें ?
बताओ ना ! श्रीकृष्ण कहाँ गए ?
कहाँ खो गये जो हम उन्हें खोजने आगयीं ? श्रीराधा ने फिर पूछा ।
सखियाँ कुछ नही बोलीं ….पूर्ण मौन हो गयीं ।
तो श्रीराधा के नेत्रों से अश्रु बरसने लगे …..हाय ! मेरे प्रीतम कहाँ गये ?
तुम लोग बताती क्यों नही हो ? ललिता ! ऐ ललिता ! तू तो बता ! मेरे प्राण कहाँ गये ?
मथुरा । ललिता को कहना ही पड़ा ।
मथुरा ? कौन ले गया उन्हें मथुरा । बोलो ।
अक्रूर के साथ वो मथुरा चले गये । ललिता ने स्पष्ट किया ।
मौन , पूर्ण मौन छा गया वहाँ । श्रीराधा मौन हो गयीं । कुछ नही बोल रहीं अब ।
श्रीराधा ने बरसाने में जैसे ही ये बात सुनी कि श्याम सुन्दर मथुरा जा रहे हैं , और अभी जा रहे हैं ।
ललिता ने ही तो आकर बताया था ।
प्रभात की वेला थी ….स्नान करके आयी ही थीं श्रीराधा और नीली साड़ी पहन कर आइने के सामने खड़ी थीं….कि तभी ललिता ने ये हृदय विदारक सूचना दे दी थी ।
ये तो पागलों की तरह वहीं से दौड़ीं ….चरण में कहाँ कुछ पहने थे …काँटों में चरण पड़ रहे हैं …पर किसे परवाह ! यहाँ तो जान पर बन आयी है । सिर का पल्लू गिर गया है….केश खुल गये हैं अवनी का स्पर्श कर रहे हैं केश । वो कोमलांगी दौड़ रही हैं ……ओह !
पहुँच गयीं ….दूर जाकर खड़ी हो गयीं ….साँसें फूल रही है …स्वेद बह रहे हैं ….इन्हें आज किसी की परवाह नही है …..वो खोजती हैं अपने श्याम सुन्दर को । नन्दमहल के द्वार पर एक रथ खड़ा है …..वो देखती हैं …..पास में जाती हैं ….इधर उधर कर रही हैं ….इन्हें समझ में नही आ रहा कि अपने “प्राण” को आज कैसे रोका जाये ? रथ के पास गयीं , रथ में एक पुरुष है ….क्या नाम है तुम्हारा ? श्रीराधा ने कभी इस तरह बात नही की थी किसी से । अक्रूर ! उस पुरुष ने भी उत्तर दिया । क्यों हो यहाँ ? मुख मंडल लाल हो गया है श्रीराधा रानी का । अक्रूर भी असहज हो गया था …ये क्या प्रश्न है । क्यों हो तुम यहाँ ? इस बार पूरी शक्ति से चिल्लाई थीं श्रीराधा ।
श्रीराधा की आवाज को सबने सुना था ….सबका ध्यान अब श्रीराधा के ऊपर ।
“मैं कृष्ण को लेने आया हूँ”……उस अक्रूर ने कहा ।
नन्दराय जी से पूछा ? श्रीराधा प्रश्न किए जा रही हैं ।
हाँ , अक्रूर रथ से उतर कर उत्तर देने लगा था ।
नन्दराय जी ने आज्ञा दी ? हाँ , अक्रूर ने कहा ।
मैया ? श्रीराधा ने फिर पूछा ।
हाँ , यशोदा रानी ने भी आज्ञा दी ।
श्रीराधा अपनी छाती पर हाथ मारते हुए बोलीं …..मुझ से आज्ञा ली ?
अक्रूर कुछ नही बोले …..वो डर और गये ।
तभी श्याम सुन्दर नन्दमहल से बाहर आये ….श्रीराधारानी स्तब्ध हो गयीं ….ओह ! तो ये जा रहे हैं ? उनका हृदय काँप उठा । वो अपलक देखती रहीं । किन्तु श्रीराधा से दृष्टि मिला न सके श्याम सुन्दर …..साहस नही हो रहा । सखियों को समझा रहे हैं ….धैर्य बंधा रहे हैं …किन्तु श्रीराधारानी ? उनसे कैसे कहूँ कि मैं जा रहा हूँ ।
वो देख रही हैं …..अब किसी से इन्हें कोई मतलब नही है ….अक्रूर कुछ कुछ बोल रहा है …पर अक्रूर जैसों से क्या मतलब ! श्याम सुन्दर श्रीराधा रानी के पास आते हैं …..वो देख रही हैं ….और पास । और आकर खड़े हो जाते हैं ….श्रीराधा के नेत्र बन्द हो रहे हैं ….तभी साहस करके श्याम सुन्दर ….”प्रिये ! दुखी मत हो कंस को मारकर मैं लौट आऊँगा”।
नेत्र बन्द हैं श्रीराधा के ….वो सुन रही हैं ….तभी श्याम सुन्दर रथ में बैठने के लिए जैसे ही मुड़े ….
“मेरे सिर में हाथ रखकर सौगन्ध खाओ …तुम मथुरा नही जाओगे”……श्याम सुन्दर का हाथ पकड़कर अपने सिर में रख लिया था श्रीराधारानी ने ।
क्या उत्तर दें श्याम सुन्दर । अब बृजलीला को यहीं समाप्त करना है या आगे भी बढ़ाना है …ये बात श्याम सुन्दर के उत्तर पर निर्भर थी । इसलिये श्याम सुन्दर ने श्रीराधारानी के हाथों को अपने हाथों में लिया …..और कहा ..”प्यारी ! मैं आजाऊँगा , देखो , गया और आया” इतना कहकर सीधे रथ में बैठ गये श्याम सुन्दर ….और श्रीराधा मूर्छित ।
क्या वो चले गये ? ललिता ! क्या मेरी बात उन्होंने नही मानीं ? मैंने कितना कहा …पर …वो सच में चले गये ? श्रीराधा फिर विरहानल में जलने लगीं । किन्तु उन्होंने तो कहा था कि कंस को मारकर वे आजाएँगे ? क्या कंस नही मरा ? फिर क्यों नही आये मेरे श्याम सुन्दर ?
फिर श्रीराधा एकाएक उन्मत्त हो उठीं …….
मैं तो मर गयी थी फिर मुझमें चेतनता कहाँ से आयी ? बताओ । मेरा मरना ही उचित था ।
ओह ! तुमने , तुम सब सखियों ने मिलकर मुझे बचाया है ….किन्तु , क्यों ? बोलो ! इस राधा का भला चाहते हो तो मर जाने दो इसे । जब मेरे प्राणनाथ ही मुझे छोड़कर चले गये तो ऐसे जीवन को मैं क्यों रखूँ ? मेरा मरण मेरे जीवित रहने से अधिक श्रेष्ठ है ।
हा श्याम सुन्दर ! हा मुरलीधर ! हा प्राणनाथ ! श्रीराधा ये कहते हुए कराहने लगीं …..कुछ समय बाद श्रीराधा फिर चिल्ला उठीं …….
अरे ! उस क्रूर अक्रूर को रोको , वो ले गया मेरे प्राण को ….रोको , सखियों ! वो गये , वो गये …वो गये । ये कहते हुए श्रीराधारानी फिर मूर्छित हो उठीं ।
ओह ! ओह ! ओह !
क्रमशः….


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