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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 116 !!
त्रिपुरासुन्दरी द्वारा अर्जुन को “राधाभाव” का उपदेश
भाग 2
हे अर्जुन ! तुम कृष्ण सखा है……..नारायण के अनादि सखा हो ……श्रेष्ठतम “नर” हो तुम……..इसलिये सुनो …….ये अत्यन्त रहस्यमय और गोप्य चर्चा हैं………अनधिकारी के सामनें इस महाभाव की चर्चा न करना ही श्रेष्ठ है ……….अर्जुन ! इस “महाभाव” का अनुभव तो बड़े बड़े ऋषि योगी तपश्वी तक नही कर पाते ………ब्रह्मा का भी प्रवेश “बृज लीला” तक ही है………..हाँ भगवान शंकर को प्रवेश मिला है ……और वो भी तब, जब गोपी बनकर वह आये ।
हे भगवती ! जब ब्रह्मा की गति नही…….भगवान शंकर भी गोपी बनकर प्रवेश किये उस महाभाव के रास में……..तब मैं क्या हूँ ?
पर इतना पूछना चाहता हूँ कि …….ये “महाभाव” किसे कहते हैं ?
अर्जुन नें पूछा ।
प्रेम की अपनी चाल है……….हे पार्थ ! ……………
सामान्य रूप में आगयी थीं त्रिपुरा सुन्दरी …………वह दैवीय रूप अब छुप गया था त्रिपुरा का …………..
मान सरोवर की दिव्य सीढ़ियों में बैठकर चर्चा करनें लगीं थीं ….अर्जुन से ।
अब “भगवती” मत कहो पार्थ ! ललिता सखी ………हाँ “निकुञ्ज राज्य ” में मुझे इसी नाम से जाना जाता है ………..
मैं वहाँ, समस्त शक्तियों की स्वामिनी ब्रह्म को आनन्द देनें वाली …..आल्हादिनी महाभाव रूपा श्रीराधारानी की सखी हूँ…….अर्जुन ! “सखी” तो वह करुणामयी कहती हैं ……मैं तो उनकी सेविका हूँ ।
अब सुनो ध्यान से ……..तुमनें पूछा है …..”महाभाव” किसे कहते हैं ।
तो सुनो अर्जुन ! प्रेम अपनी अटपटी चाल से चलता रहता है …….प्रेम कभी रुकता या ठहरता नही है……..वो चलता रहता है ।
प्रेम के चलनें से ……आगे आगे बढ़नें से ……..उसमें स्वाभाविक गति होती है ……..तो प्रेम की प्रथम गति.. ….स्थिति है ………
1) स्नेह ।
प्रेम जब प्रथम हृदय में आता है ……तो वह हृदय को पिघला देता है ……कठोर से कठोर हृदय भी पिघलते देखे गए हैं प्रेम में ……..इस पहली स्थिति का नाम है – स्नेह ।
2 ) मान ।
प्रेम जब स्नेह से आगे बढ़ता है …….तब अपनत्व घना होनें लगता है …..अपनापन गहरा हो जाता है ………उस स्थिति में प्रियतम से रूठना सहज है ………….बाहर से देखनें में भले ही लगे कि प्रियतम से वह क्रोध कर रही है ……….पर वह क्रोध नही ……….वह प्रेम का ही एक रूप होता है ………..जिसे कहते हैं – मान ।
3) प्रणय ।
ये “मान” से आगे की स्थिति है ………..इस अवस्था में प्रेमी को लगता है ……हम दोनों एक हो रहे हैं ……….हम दोनों का तादात्म्य एक होता जा रहा है ……….इसे – प्रणय कहते हैं ।
4 ) राग ।
प्रियतम का वियोग हो गया है …………..पर उस वियोग में भी …..अपार दुःख कष्ट को सहते हुए …….लगे कि ये तो प्रियतम की कृपा है ………दुःख में भी सुख का अनुभव करनें लगे ……इसे कहते हैं – राग ।
5 ) अनुराग ।
प्रेम के विकास क्रम में ……….ये एक पड़ाव आता है ………ये विचित्र स्थिति होती है……..जिसमें प्रेमी को अपनें प्रियतम के लिये जड़ बनना भी स्वीकार होता है ………जैसे – मैं उनके मार्ग की धूल बनूँ …….ताकि उनके चरण तो मिलेंगें………जल बनूँ उस सरोवर का ……..जिस सरोवर में मेरा प्रियतम नहाता हो , आदि आदि…….इस स्थिति को “अनुराग” कहते हैं ।
6 ) भाव ।
हे पार्थ ! तमोगुण का नाश रजोगुण से करे साधक ……….फिर रजोगुण का नाश सत्वगुण से करे …………अब सत्वगुण ही है हमारे अन्तःकरण में ………जब विशुद्ध सत्व होगा ……..तब ईश्वर के प्रति अटल विश्वास होगा ……….तब लगनें लगेगा कि हमारा सनातन सखा तो ईश्वर है ………..तब उसकी तड़फ़ जागेगी ………….
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🌲 राधे राधे🌲


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