!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 13 – “आगे अब सुन्दर उपवन है”)
गतांक से आगे –
अजी ! प्रेम का श्रीगणेश तो करो । कहीं से भी करो । करो तो ।
यत्रलौकिककवितालताप्रतानपरिरम्भितांकुरितकोरकितमुकुलितविकसितफलितकाव्यनाटकादितरुनिलयम् विविधगन्धाधारमंथरशीतलानिलमिलनललन्नवलकिसलयपरमाभिराममारामकुलं सर्वत परिखावलयम् ।।
अर्थ – उस परिखा ( खाई ) के चारों ओर सुन्दर उपवन सुशोभित हो रहे हैं …..उस उपवन ( बगीचा ) की विशेषता है कि वहाँ की लतायें वृक्षों से लिपटी हुयी हैं । “लौकिक” कविता ही लता हैं ..और वृक्ष काव्य …दोनों एक हो रहे हैं । जैसे प्रेमियों में अष्ट सात्विक रोमांचादि भाव जागृत होता है …ऐसे ही इनमें भी हो रहा है । लताओं से लिपटे वृक्षों में कलि का खिलना और बन्द होना यही तो रोमांच हैं । नए नये पत्तों का आना …ये कवितादि का प्रकट होना है । फिर पवन भी साथ देता है …और इनको अपने झौंकों से हिलाता रहता है ।
ओह ! क्या कहें हे रसिकों ! प्रेम पर लिखना सच में बड़ा दुरूह कार्य है । दिमाग लगाना मना है ….न इसे दिमाग से समझ सकते हो तुम….बस दिल से लिखना है । अजी ! मैं क्या जानूँ भगवान , ईश्वर , या तुम्हारे तथाकथित ब्रह्म को ….मैं तो बस “प्रेम” को जानता हूँ …और मैं इतना ही जानता हूँ कि प्रेम ही ईश्वर है …निराकार या साकार । जहां मैं अपना प्रेम लगा दूँ …उसमें ही भगवान को प्रकटा दूँ । ये महिमा प्रेम की है । इससे प्रेम करो या उससे …ये सब छोड़ो ..पहले प्रेम तो करो । अजी ! किसी से भी करो ….पहले प्रेम का अंकुर तो फूटे ….लौकिक प्रेम नही पारलौकिक प्रेम करो …लो जी ! इन पण्डित जी ने ये कह दिया । पर मेरा अपना प्रेम शास्त्र तो कहता है …बस प्रेम करो । किसी से भी करो । अगर लौकिक है तो भी डूब जाओ उसी में वही लौकिक तुम्हें अलौकिक़ प्रेम में पहुँचा देगी । हाँ जन्म लग जायेंगे …वैसे भी जल्दी मुक्ति तुम्हें चाहिए नही । जी ! क्या इतना भी नही समझते ये लोग कि प्रेम तो प्रेम है ….चाहे किसी व्यक्ति विशेष से हो या भगवान से । अभी छोड़ो , इन झंझट में मत पड़ो …बस प्रेम में डूब जाओ …और प्रेम का आस्वादन करो …..
। सो साहिब सौं इश्क़ वह , कर क्या सके गँवार ।
सीधे साहिब से इश्क़ की सोच रहे हो …..बड़ा मुश्किल सा काम है …शुरुआत अपने आस पास से ही करो ना ! देखो ! प्रेम की गति वही है …प्रेम की चाल वही है …जो एक व्यक्ति से हो या भगवान से …अभी हम प्रेमनगरी में प्रवेश नही किए हैं ….स्थिति हमारी ऊँची नही है ….इसलिए कोई बात नही ….लौकिक गीत ग़ज़ल ही सही, उसी को गुनगुनाओ और रो लो ….इससे इतना लाभ तो होगा ही कि हृदय कोमल हो जाएगा …प्रेम नगर में प्रवेश के लिए हृदय का कोमल होना तो आवश्यक है ना ! इसलिये …गाओ …”तुम्हीं मेरे मन्दिर तुम्हीं मेरी पूजा तुम्हीं देवता हो तुम्हीं देवता हो “अरे ये लौकिक गीत है …तो क्या हुआ …लौकिक से ही पहुँचोगे अलौकिक तक ।
जय हो प्रेम नगर की ………
अब खाई भी हमने पार कर ली ……पर खाई के पार करते ही …..हमें बगीचा मिलेगा …ये आराम करने के लिए है ….”सात्विक की खाई को भाव की छलांग से पार किया है ना “, इसलिए परिश्रम तो हुआ होगा ..अब सुस्ता लो ..ये खाई के चारों ओर बना बड़ा सुन्दर उपवन है ….थोड़ा देख लो ।
क्या अद्भुत वो बगीचा है …जहां लता वृक्ष से लिपटी हैं । यहीं से आरम्भ हो रहा है प्रेम नगर …प्रेम नगर की पहचान ही यही है ….जहां दो एक होने के लिए तत्पर हैं ।
हे रसिकों ! यहाँ ये बताया गया है कि – लता क्या है ? कविता ही लता है ….और एक विचित्र बात ये भी कि ….लता कविता तो है ..किन्तु लौकिक कविता है । साधारण , सामान्य …लोक प्रेम ….लोक प्रेम की जो कविता है वो यहाँ के उपवन की लता है….ये बताया गया है ।
प्रेमनगर अभी आरम्भ नही हुआ ….बस इस बगीचा को पार करते ही प्रेमनगर आरम्भ हो जाएगा …इस उपवन के बाद प्रेमनगर है ।
लौकिक गीत या नाटक आदि ….ये भी हमारे भाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं …..लैला मजनूँ का उदाहरण हमारे श्रीराधाबाबा जी जैसे सिद्धमहापुरुष भी देते थे ….मेरे पागलबाबा कभी कभी अलौकिक प्रेम का उदाहरण देते समय लौकिक शेरो शायरी सुनाते हैं ।
मेरे बाबा बड़े प्रेम से गाते हैं …….
“जो तुम को हो पसन्द वही बात कहेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे”
ये गाकर मैंने उन्हें रोते हुए देखा है …..क्या है ना ! लोक भाषा को आप नज़रअन्दाज़ नही कर सकते । चाहे लाख संस्कृत की बात करो …पर लोक भाषा हृदय को छूती है ।
स्वामी श्रीरामसुखदास जी कहते हैं …प्रार्थना संस्कृत की अपेक्षा अपनी भाषा में करो । और वो ये भी कहते हैं ….संस्कृत भाषा तुम्हारे हृदय से नही उठ पाएगी …क्यों की तुम्हारे दिन चर्चा की भाषा नही है वो ….इसलिए गहरी जाएगी तुम्हारी अपनी भाषा । श्रीवृन्दावन में कोकिल साँई जी थे …वो सिन्धी भाषा में ही अपने ठाकुर जी से बोलते थे ….आप जो हो ..जो भाषा आपकी अपनी है …उसी से शुरुआत करो । उसी को अपनाओ । प्रेम में तो लौकिक भाषा का ही अपना महत्व है । आपको नही लगता ? आप जो भाषा भाषी हो प्रेम में जब डूबोगे तो वही बोलोगे …आपके मुख से वही निकलेगा ।
और दूसरी बात प्रेम के सिद्धांत एक ही होते हैं ….ये समझना बहुत आवश्यक है ।
एक सामान्य लड़के से प्रेम करो , और कन्हैया से प्रेम करो …दिल का धड़कना वही है ..रोना वही है ..तड़फ वही है ….पुकार वही है । नींद आपकी उड़ी है श्याम सुन्दर के प्रेम में …और एक लड़की की नींद उड़ी है लड़के के प्रेम में …अहसास वही है ….क्यों की प्रेम प्रेम होता है …प्रेम पात्र बदल जायें …पर प्रेम अपना काम करता ही है ….और एक सा करता है ।
अब आप कहोगे कि …फिर तो भगवान से प्रेम क्यों करें सांसारिक लड़की लड़के से ही प्रेम करें ….इसमें अन्तर इतना ही है कि वो सनातन है …और ये नाशवान है …अब आप ही विचार करो …नाशवान से प्रेम करोगे या सनातन से ? हर तरह का लाभ तो सनातन से ही है । अस्तु ।
मैं तो ये कह रहा हूँ …कि प्रेम का अहसास वही होता है …क्यों की प्रेम प्रेम है ।
आप प्रेम में डूबे हैं …तो अच्छे से डूब जाइये ….मजनूँ ने लैला से प्रेम किया …और लैला को ही उसने खुदा बना दिया …वैसे लैला तो मिथ्या है उसमें जो भी है वो खुदा ही तो है …आपका हृदय तो सरस बन गया ….तड़फ तो हुयी ….बस दिशा देनी है ….इनका भी प्रेम लौकिक ही था आरम्भ में ….श्रीतुलसी दास जी , श्रीविल्वमंगल सूरदास जी …आदि आदि । कहीं तो राग हो …..
लौकिक प्रेम में आप डूबे हुए हों और उससे आपको धोखा मिल गया …आप तड़फ रहे हो बस उसी समय कोई सन्त मिले , गुरु मिलें तो वो अलौकिक से सीधे तुम्हारी लौ लगा सकते हैं …..
थक गए हो ….इतना बड़ा क़िला पार किया ..फिर द्वार ..फिर खाई …अब आराम करो ।
देखो , चारों ओर देखो ….लता वृक्षों से लिपटी हुयी है ….वो कितनी प्रेम
पूर्ण है …लताओं में तो पत्ते हैं …वो कवितायें हैं …नाटक हैं ….जैसे प्रेम के नाटक गाये जाते हैं ना ! महाभारत में नल दमयंती के प्रेम की अमर कथा है …पर ये लौकिक है ….अभी लौकिक को ही देख लो …..देखो ! प्रेमी व्यक्ति सब में प्रेम ही देखता है ….ये वासना है ये उपासना है …ये छोड़ो ….तुम्हारे लिए सब उपासना है ।
पागलबाबा मेरे साथ श्रीबाँके बिहारी जी जा रहे थे ….उन्होंने एक गीत सुना …लौकिक गीत …सिनेमा का गीत था वो …पर बाबा को क्या पता ..उस गीत के बोल तो बड़े अच्छे थे , “अगर तुम मिल जाओ ज़माना छोड़ देंगे हम”…..मेरे बाबा बोले …आहा ! उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….आगे की लाईन और …..”जमाने भर से नाता तोड़ लेंगे हम”….बाबा ने कहा …ये तो बड़ा महान प्रेम है ….सबसे नाता तोड़ देंगे ? वाह !
देखो ! लौकिक अलौकिक के चक्कर में प्रेमी नही पड़ता …उसके लिए तो प्रेम ही अलौकिक है ….वो इतनी ताक़त रखता है की लौकिक को भी अलौकिक बना दे ।
वो आगरा के “किशोरी दास”….उनकी पत्नी का नाम था “किशोरी” , देह त्याग दिया उसने । तो उनके वियोग में वो रोने लगे ….दिन दिन बीत गए ….भोजन पानी सब छोड़ दिया …एक दिन उसके मित्र ने कहा …..मैं बरसाना जा रहा हूँ ….तुम चलो …उन्होंने कहा …अब कहीं जाने का मन नही करता । किन्तु उनके मित्र उन्हें ले गये ….अब वो तो लता कुंजों में बैठकर हा किशोरी ..हा किशोरी …पुकारने लगे ….वो पुकार रहे थे अपनी मरी पत्नी को …उसकी याद में तड़फ रहे थे ….इधर हमारी श्रीश्रीकिशोरी जी अपनी सखियों के साथ बरसाने में भ्रमण कर रही थीं …उन्होंने जब पुकार सुनीं …ललिते ! ये कौन बोल रहा है ? मेरा नाम कौन पुकार रहा है ? और हृदय से पुकार रहा है ….ललिता सखी बोलीं ….आपको नही पुकार रहा … उसकी पत्नी का नाम है “किशोरी” है उसी को पुकार रहा है …श्रीकिशोरी जी ने कहा …उसकी पत्नी किशोरी कैसे हो सकती है ….”ब्रह्माण्ड में किशोरी तो एक मात्र मैं ही हूँ”…..क्यों कि सदा किशोरी तो मैं ही रहती हूँ ….बाकी तो जन्म लेकर युवा और वृद्ध होते हुए मर जाते हैं ….चलो , वो मुझे ही पुकार रहा है …ये कहकर श्रीकिशोरी जी ने उसे दर्शन दिये और वो महान भक्त बन गया ।
हे रसिकों ! प्रेम करो ….बस प्रेम में डूब जाओ …लौकिक अलौकिक के झंझट में अभी मत पड़ो …प्रेम करो ।
लौकिक कविता लता पत्र हैं , और काव्य वृक्ष हैं …इनसे भी आपका हृदय कोमल बनेगा ..और प्रेम नगर में पहुँच पाओगे ।
आज इतना ही….
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