महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (007)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास की भूमिका एवं रास का संकल्प -भगवानपि०-
गोरजश्क्षुरितकुन्तलबद्धबर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम् ।
वेणुं क्वणन्तमनुगैरनुगीतकीर्तिं गोप्यो दिदृक्षितदृशोभ्यगमत्समेता: ।।
नवघन पर मानो झीन बदरिया शोभा रस बरसावति ।।
श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का एक नमूना देखो- ‘गोरजश्क्षुरित- कुन्तल’- काले चिकने घने घुँघराले बाल हैं, स्निग्ध हैं, सुच्चिक्कन हैं और सुसूक्ष्म हैं। और उनके ऊपर गाय के खुर से उड़-उड़कर धूल पड़ी हुई है। गोपियों ने देखा- मयूर-पिच्छ बँधा हुआ है। मयूरपिच्छ- ‘राधा- प्रिय- मयूरस्य बर्हपिच्छं मूर्ध्रा विर्भत्यजः’ राधारानी के प्रिय मोर का पंख शिर पर बाँधे हुए हैं। मानो बताते हैं कि – अरे! तुमको ही नहीं, तुम्हारे मोरपंख से भी इतना प्यार करते हैं। तुम्हारे लिए मोर बनाने के लिए भी तैयार हैं। बादल को देख-देखकर जैसे मोर नाचता है, वैसे हम नाचते हैं। हम नाचते हैं कि हमारी आँख ललाट के नीचे न रहें, हमारी आँख ललाट से भी ऊपर हो जाएं कि दूर से भी तुमको देख सकें। ‘बद्धवर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षण चारुहासम्’। वृन्दावन के फूल प्यारे हैं। चितवन प्यारी है, मुस्कान प्यारी है। अपने प्यार को समेटकर ले तो चलो अपने भगवान के पास।
देखो- गोपियों ने वेणुगीत का श्रवण किया, उनके चित्त में आकर्षण उत्पन्न हुआ। इसको पूर्व राग बोलते हैं। पूर्व राग माने मिलने के पहले मिलन का प्रेम। अब जिसमें प्रेम हुआ उससे मिलने की लालसा भी तो होगी न! लालसा होने पर क्या होगा? प्रयत्न होगा। तो कात्यायिनी देवी की पूजा हुई। भगवान ने बताया कि तुम तो हमारी जाति-विरादरी की हो। हमारी प्रेमिका हो, प्रेयसी हो, गोपी हो। देखो- हम तो मथुरा की जो यज्ञ-पत्नी हैं उनको भी नहीं भूलते हैं।
ये सब काम एक साथ हैं- गोपियों का पहले दूरदर्शन, फिर आँखों का मिलना, फिर लालसा का उदय होना, फिर प्रयत्न करना, फिर सिद्ध-मनोरथ होना अर्तात् देवी-पूजा के व्रत पर प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण का उनको रास का वरदान देना और फिर दृष्टान्त के रूप में यज्ञपत्नियों की कथा आना। गोवर्धन- धारण के समय वीररस प्रकट करके पराक्रम दिखाया। पर्वत को धारण करना- यह वीररस, श्रृंगार रस का पोषक है। इतना बहादुर है वह जिससे हम प्रेम करते हैं। वीर के प्रति आकर्षण होता है। गोपियों के चित्त में आकर्षण उदय हुआ और कर्मवाद का विध्वंस हुआ। परमात्मा प्रेम से मिलता है, कर्म से नहीं मिलता है। इंद्र का मानमर्दन माने- इन्द्र देवता के यज्ञयागादि रूप कर्म-साधन का मान-मर्दन। वेदान्ती लोग भी बोलते हैं-
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृत्वमानुशुः ।
देखो, हाथ का देवता है इंद्र। पहाड़ भी उठाया तो कृष्ण ने अपने ऊपर नहीं लिया। उनके हाथ में बैठा हुआ जो इन्द्र था उनके ऊपर ही रख दिया कि लो बेटा, तुमने बहुत सताया है- वर्षा करते हो न। और फिर शत्रु के सामने शत्रु को भिड़ा दिया। कैसे?
बोले- इन्द्र ने पहाड़ों की पाँख पहले काट दी थीं तो पहाड़ों से उसकी पहले से ही दुश्मनी थी। तो बोले- दुश्मन के सामने दुश्मन को खड़ा करो, खुद मत खड़े हो। इन्द्र और पहाड़ों की दुश्मनी है तो इन्द्र और पहाड़ को ही भिड़ा दिया। इस प्रकार एक तो वीर रस से गोपियों के चित्त में श्रृंगार रस का संचार हुआ। सात दिन तक लगातार आँक मिलाने का मौका मिला, देखने का मौका मिला; इससे प्रीति का उदय हुआ और दूसरे कर्मवाद का विध्वंस हुआ। व्रज में देवताओं की पूजा की अपेक्षा वहाँ की माटी की पूजा अच्छी है। व्रज का एक कंकड़ भी स्वर्ग का देवता है। बोले किसकी पूजा करें?
कृष्ण ने कहा- स्वर्ग के देवता की नहीं, व्रज की कंकड़-पत्थर की पूजा करो। व्रज की महिमा बड़ी है। गोवर्धन धारण करके अब ‘गोविन्द’ पद पर अभिषेक हुआ। कर्म गया कर्म की साधनता गयी। इन्द्र का यज्ञ मिटाने से कर्म की साधनता गयी और प्रीति उत्पन्न हुई व्रज-भूमि में।
अब वरुणलोक में गये। परलोक का जो सुख है वह व्रज की प्रीति के सामने तुच्छ है। लौट आये। गोपों को वैकुण्ठ में अपने ऐश्वर्य का दर्शन करा दिया। यह सब रास का अंग है- यह सब रासलीला की भूमिका है। सब व्रजवासियों ने वैकुण्ठ में सिंहासन पर बैठे हुए- ‘कृष्णञ्च तत्रच्छन्दोर्भिः स्तूयमानं सुविस्मिताः।’ जब देखा- कि से वेद कृष्ण की ही स्तुति करते हैं और ये तो वैकुण्ठ में सिंहासन पर बैठे हुए हैं-
सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्मज्योतिसनातनम्।
यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिता ।।
उस कृष्ण को देखा- सब व्रजवासियों के मन में यह हो गया कि यह साक्षात् भगवान हैं। यह रासलीला तो आनन्द की लीला है। तो यह सब बैकुण्ठ लोक में अपना नारायण के रूप में दर्शन देना, कृष्ण के रूप में दर्शन देना; वरुण लोक में अपने को देवपूज्य बताना, इससे पारलौकिक ऐश्वर्य को तुच्छ कर दिया। लोक में कर्म की साधना को तुच्छ किया। गोवर्धन लीला से और यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की अपेक्षा यज्ञानधिकारिणी जो उनकी स्त्रियाँ हैं, भक्तिभाव के कारण उनकी श्रेष्ठता दिखायी। ये सारी बातें रास पञ्चाध्यायी की भूमिका है। जो लोग कहते हैं कि रासपञ्चाध्यायी तो अनवसर ही आ गयी। कहाँ वरुणलोक का वर्णन, कहाँ वैकुण्ठलोक का वर्णन और कहाँ कि रासपञ्चाध्यायी का वर्णन।
तो कहने का अभिप्राय यह है कि प्रसंग की संगति है, यह अनवसर नहीं है। यदि इतनी लीला भगवान श्रीकृष्ण प्रकट न कर लेते, एकाएक नाचने ही लगते तो सब लोग उनको नचकैया ही समझते न! यह तो कोई नचनिया है। कहा- अरे। नचनिया नहीं है। वरुण के द्वारा पूज्य है, वैकुण्ठ का स्वामी है, इन्द्रमयर्दक है। अधिकारी- अनिधिकारी का विचार किए बिना रसदान करने के लिए आया हुआ है। तो ये सारी बातें जब आ गयीं तब रास का वर्णन आता है।
रास में भी बड़ी अद्भुत-अद्भुत बातें हैं। इसका वर्गीकरण होता है- आकर्षण लीला, प्रेम-प्रकाशन लीला इत्यादि। बाँसुरी बजाकर- ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ यह आकर्षण लीला है। गोपियों के हृदय में कितना प्रेम है, इसको प्रकट करन के लिए प्रेम प्रकाशन लीला है। कह दिया- लौट जाओ, धर्म की दृष्टि से गोपियाँ डर गयीं। कितना प्रेम है उनका, यह जाहिर हो गया। गोपियों में कितना त्याग है, कितना संसार से वैराग्य है; श्रीकृष्ण से कितना प्रेम है, यह प्रेमप्रकाशन लीला है। इसके अलावा अनुसंधान लीला है, अन्तर्धान लीला है, और भी लीला हैं। कि रासपञ्चाध्यायी में बड़े विलक्षण-विलक्षण भाव हैं- आध्यात्मिक व्याख्या करें तो वह भी निकलती है पर जहाँ रस का प्रसंग हो वहाँ अध्यात्म निकालने की कोई जरूरत नहीं है।
अध्यात्म की व्याख्या करनी हो तो ‘अपूर्व अनपरं, अनन्तरं’ हमारी बहुत सी श्रुतियाँ हैं। कोई आध्यात्म की कमी होती है तो इसमें से निकालकर उसको पूरा करते। अरे, हमारे ऋषि-महर्षि अध्यात्म बोलते हैं तो खुलेआम बोलते हैं, उनको कोई छिपाने की जरूरत थोड़े ही है। यह तो रासलीला है। ‘रसो व सः रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति’ परमात्मा क्या है? बोले- रस है। यह हृदय में जो सरोवर है, उस हृदय-सर में जो रस है, वह कौन है? कि ब्रह्म है। जैसे सरोवरों में जल होता है वैसे हृदय सरोवर में रसात्मक कौन है? तो कहा-ब्रह्म। यह दहर विद्या में जैसे वर्णित है वैसे। यह छान्दोग्यपनिषद् में दहर विद्या है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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