!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 16 – “जहाँ विराजत मोहन राजा” )
गतांक से आगे –
मूलं मुदां रतिपतेर्मनसोनुकूलमाचूलमूलमरुणं धरणीगुणेन ।
नैश्रेयसाकरममन्दमरन्दसान्द़ं सन्ध्याघनोपमघनोपवनं विभाति ।।
अर्थ – उस नगर के बीच में मधुर मेचक ( श्याम सुन्दर ) और उनकी महारानी रति ( श्रीराधारानी ) का दिव्य महल है …उस महल के चारों ओर उपवन है …..वह उपवन ही इन राजा रानी के प्रसन्नता का मूल है । भूमि के गुण से सब कुछ लाल है । अनेक पुष्पों का रस सुगन्ध को और बढ़ा रहा है यानि सुगन्ध ही सुगन्ध फैल गया है चारों ओर । इस महल का उपवन वैकुण्ठ के समान है ।
****धन धन वृन्दावन रजधानी ।
जहाँ विराजत मोहन राजा , श्रीराधा सी रानी ।।
सदा सनातन इक रस जोरी , महिमा निगम न जानी ।
“श्रीहरिप्रिया”हितू निज दासी , रहत सदा अगवानी ।।
जय हो ….जय हो ….ये रहा प्रेम नगर के राजा रानी का महल ।
इसी महल में हमारे मोहन राजा और श्रीराधा रानी विराजमान हैं । इनकी जोरी सनातन है ..एक रस है ….सदा से ही इक रस है ….वेद भी इनकी महिमा जान नही पाये हैं ।
करो दर्शन ! कितना सुन्दर महल है । अत्यधिक अनुराग के कारण लाल दिखाई दे रहा है ….सुन्दर बगीचा है …कुँज है …निकुँज है ….यही इनके सुख का मूल है । हाँ , यहाँ के राजा रानी को लताओं से बड़ा ही लगाव है …वृक्षों से स्नेह है । पुष्पों से आसक्ति है ।
बाग बगीचा इनके सुख का मूल है ….किन्तु बाग बगीचा तो जड़ है ।
अरे ! पागल हो क्या ? इस प्रेमनगर में जड़ की कोई सत्ता ही नही है ।
यहाँ हर वस्तु चिद है …चैतन्य है ….महारानी की ही सब सखियाँ हैं ….लतायें भी सखियाँ हैं और वृक्ष भी ….सब सखियाँ ही हैं । वैसे भी इस बात को समझना बहुत आवश्यक है …कि प्रेम में जड़ सत्ता होती ही नही है । क्या प्रेमी लोग अकेले में चाँद तारों से बातें नही करते ? क्या प्रेमी लोग लताओं को आलिंगन करके रोते नही है ? क्या प्रेमियों के मन में ये भेद रहता है कि ये जड़ है , इसे क्या कहना ? नही , प्रेम ये द्वैत का भेद ही खतम कर देता है ….सब वही है ….
हे रसिकों ! उनको पाने का एक ही मार्ग है …वैसे अनेक मार्ग बताये हैं किन्तु सबसे ऊँचा साधन और सरल भी , ये प्रेममार्ग ही है ….हमें जैसे भी हो , इस प्रेमनगर में पहुँचना ही है …किन्तु बड़ा कठिन काम ये है कि इस प्रेमनगर में जो महल हैं जहां हमारे प्रीतम विराजमान हैं उसका वर्णन कैसे किया जाये ? क्यों की वो तो अवर्णनीय है ….उसे जो देखेगा वो बोल ही नही पाएगा ।
अब आप यही विचार कीजिये कि …उस महल का उपवन ही वैकुण्ठ के समान है ….कोई उपमा ही नही है …वैकुण्ठ सर्वोच्च है ..उपमा इसीलिए उसी की दी गयी है । किन्तु वैकुण्ठ शान्त रस का क्षेत्र है …और ये तो उछलता नाचता प्रेमधाम है । इसकी तुलना किसी से सम्भव नही है …
“मुक्ति भरें जहां पानी”
हमारे बृज के रसिकों ने कहा ….वो प्रेम नगर ऐसा है जहां मुक्ति भी पानी भरती है । अब वो कैसा होगा ? किन्तु – “तदपि कहे बिनु रहा न कोई”…कह नही सकते ..पर कहे बिना रहा भी तो नही जाता ।
अब भारतेन्दु बाबू ने जो वर्णन किया है वो मिलता जुलता ही है ….सुनिये –
“साधन आन प्रेम सम नाहीं ।
साँचेहूँ याकी सरि न मिली कहूँ , भुवन चतुर्दश माहीं ।।
याकों परस द्रवत उर अन्तर , बहति ब्रह्म रस धारा ।
होत पुनीत पुण्य जीवन यह , मिलत आनन्द अपारा ।।
ज्ञान ,जोग ,तप , कर्म , उपासन साधन सुकृत घनेरे ।
भये जात सब नेह नगर में बिनु दामन के चेरे ।।“
इस प्रेम लोक के समान कोई लोक नही है ….चौदह लोकों में नही है । यहाँ जो रस बहता है उसके आगे ब्रह्म रस भी फीका है ….यहाँ जो आनन्द है , वो आनन्द ब्रह्मानन्द भी नही दे सकता ।
क्या कहें …मार्ग तो अनेक हैं किन्तु इस “नेह नगर” की बात ही कुछ और है ….यहाँ तो बिना दामों के ही सिद्धों को प्रेमनगर में बिकते देखा है …ओह !
अरुण है …प्रेम राजा का महल अरुण है ….और ये भी कहा कि…..सन्ध्याकालीन मेघ के समान है ….इसका अर्थ ये हुआ कि अरुण शब्द से प्रकाशमान है …..और मेघ समान कहने का अर्थ तप नही रहा ….अगर लाल ही लाल अरुण के समान हो तो गर्मी होगी ना ! मेघ के समान कहने का अर्थ है ….शीतलता है …अरुण के समान होने के बाद भी शीतल है । इन सबके कारण बहुत सुख है …प्रिया प्रीतम सुख में निमग्न हैं …दिन रात सुख में ही डूबे रहते हैं । और इतना ही नही इस महल के जो सेवक हैं वो भी इनके अनुराग के कारण लाल हो गये हैं । लाल ललना को देख देखकर ये भी लाल हो गये हैं ….सब कुछ अनुरागमय हो गया है यहाँ ।
आहा ! सेवक ही नही , पक्षी भी लाल हैं …यहाँ हंसो का रंग भी सफेद नही है अरुण हो गया है ।
सब कोई यहाँ अनुराग के रंग में रंग गए हैं …..
जिधर देखो उधर बस एक ही रंग दिखाई देता है लाल ।
क्या कहें ?
प्रेम प्रेम की नाव रज , प्रेम ही खेवनहार ।
प्रेम चढ़े भव सिन्धु तें , प्रेम लगावै पार ।।
अब शेष कल –


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